Saturday, October 11, 2008

लड़कियों की तकलीफ कौन समझना चाहता है ?

                     एक बेहद कड़वा सच जिसे कोई मानना नही चाहता ! शायद हमें अपनी निगाह में ख़ुद गिर जाने का डर, इसे याद न रखने को विवश करता है !

                      २३ -२४ साल की होते होते, माँ बाप सोचने लगते हैं कि १-२ साल में गुडिया के विवाह के बाद यह खर्चा तो कम हो ही जाएगा ! उस गुडिया के कमरे पर, कब्ज़ा करने की कईयों की इच्छा, ख़ुद माँ का यह कहना कि गुडिया के शादी के बाद, यह कमरा खाली हो जाएगा, इसमे बेटा रह लेगा, किताबों को बाँध के टांड पर रख दो और स्टडी टेबल अपने भाई के बेटे को देने पर, इस कमरे में जगह काफी निकल आयेगी !

                       यह वही बेटी थी, जो पापा की हर परेशानी की चिंता रखती और हर चीज समय से याद दिलाती थी, उसके पापा को कलर मैचिंग का कभी ध्यान नही रहता, इस पर हमेशा परेशान रहने वाली लडकी, सिर्फ़ २५ साल की कच्ची उम्र में, सबको इन परेशानियों से मुक्त कर गयी !

                        यह वही बहिन थी जो पूरे हक़ और प्यार के साथ, खिलखिला खिलखिला कर, अपने भाई के जन्मदिन की तैयारी पापा, माँ से लड़ लड़ कर, महीनों पहले से करती थी ! रात को ठीक १२ बजे पूरे घर की लाइटें जला कर हैप्पी बर्थडे की धुन बजाने वाली लडकी, एक दिन यह सारी उछल कूद छोड़कर, गंभीरता का दुपट्टा ओढाकर विदा कर दी गयी .....और साथ में एक शिक्षा भी कि अब बचपना नहीं, हर काम ढंग से करना ऐसा कुछ न करना जिसमे तुम्हारे घर बदनामी हो !

                         कौन सा घर है मेरा ... ?? नया घर जहाँ हर कोई नया है, जहाँ उसे कोई नही जानता या वह घर, जहाँ जन्म लिया और २५ साल बाद विदा कर दी गयी ! जिस घर से विदाई के बाद, वहां एक कील ठोकने का अधिकार भी उसे अपना नही लगता ! और जिस घर को मेरा घर.. मेरा घर.. कहते जबान नही थकती थी उस घर से अब कोई बुलावा भी नही आता ! क्या मेरी याद किसी को नही आती... ऐसा कैसे हो सकता है ? फिर मेरा कौन है ... उस बेटी के पास रह जाती हैं दर्द भरी यादें ... और अब वही बेटी, अपनी डबडबाई ऑंखें छिपाती हुई, सोचती रहे ...

किस घर को , अपना  समझूं   ?
मां किस दर को मंजिल मानूं ?
बचपन बीता जिस आँगन में 
उस घर को, अब क्या मानूं  ?
बड़े दिनों के बाद आज भैया की याद सताती है  ?
पता नहीं क्यों सावन में पापा की यादें आती है  ?

                       शादी के पहले दूसरे साल तक बेटी के घर त्योहारों पर कुछ भेंट आदि लेकर जाने के बाद, उस बच्ची की ममता और तड़प को भूल कर, अपनी अपनी समस्याओं को सुलझाने में लग जाते हैं ! कोई याद नही रखता अपने घर से विदा की हुई बच्ची को ! धीरे धीरे इसी बेटी को अपने ही घर में, मेहमान का दर्जा देने का प्रयत्न किया जाता है, और ड्राइंग रूम में बिठाकर चाय पेश की जाती है !

तुम  सब ,  भले   भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ ?
तुम सब भूल गए भैय्या !

पर मैं , वे दिन कैसे भूलूँ  ?
मैं इकली और दूर बहुत, उस घर की यादें आती हैं !
पता नहीं क्यों आज मुझे , मां, तेरी यादें आती हैं  !

                     हम अपने देश की संस्कारों की बाते करते नही अघाते हैं पर शायद हम अपने घर के सबसे सुंदर और कमज़ोर धागे को टूटने से बचाने के लिए , उसकी सुरक्षा के लिए कोई उपाय नही करते ! आज आवश्यकता है कि बेटे से पहले बेटी के लिए वह सब दिया जाए जिसकी सबसे बड़ी हकदार बेटी है !

25 comments:

  1. हम अपने देश की संस्कारों की बाते करते नही अघाते हैं पर शायद हम अपने घर के सबसे सुंदर और कमज़ोर धागे को टूटने से बचाने के लिए , उसकी सुरक्षा के लिए कोई उपाय नही करते !

    आपका लेख पढ़ते २ बहुत भावुक हो गया ! कितनी सहजता से सब बातें आप लिख गए ? सबका तो मैं नही कह सकता पर इनमे से एक आधी बात का ज़रा सा मैं भी दोषी हूँ ! बहुत सकारात्मक लेख है ! शुभकामनाएं !

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छी और भावुक करने वाली तहरीर है...

    ReplyDelete
  3. अमीर ख़ुसरो की याद ताज़ा कर दी आपने:-
    'काहे को ब्याही बिदेस रे……सुन बाबुल मोरे'
    बहुत मार्मिक आलेख!

    ReplyDelete
  4. आप ने बिलकुल सही कहा है। यह हमारे समाज की विडम्बना है कि हम बेटियों को पराई कर ही नहीं देते बल्कि जिस दिन से वे जन्म लेती हैं उसे पराई अमानत समझ कर ही अपने साथ रखते हैं।
    एक बेटी की व्यथा की सच्चा चित्र है यह।

    ReplyDelete
  5. ek beti ka man kagaz par utaara hai bahut sahi sundar lekh.

    ReplyDelete
  6. अपना घर


    एक घर मे लेती हैं जनम
    मानी जाती हैं
    धरोहर किसी दूसरे घर की
    जाती हैं दुसरे घर
    शिक्षाओ कर्तव्यो मे जकडी हुई
    दूसरी का वंश बढ़ाने के लिये ।
    पति और बच्चो के बीच
    बनती हैं सीढ़ी
    एक चढ़ता हैं , दूसरा उतरता हैं
    पर सीढ़ी हट नहीं सकती ।
    कर्तव्य बोध मे बंधकर
    अस्तित्व के लिये छटपटाती हैं ।
    जिस घर मे जनम लिया
    ना वह अपना
    जिस घर मे आयी
    न वह अपना ।
    कर्तव्य की बेडियाँ
    अस्तित्व से टकराती हैं
    भड़क उठती हैं ज्वाला
    कहीं किसी कलम से
    निकलेगे जब चिंगारियों के शब्द
    तभी नारी रख पायेगी
    अपने घर की नींव
    तभी बचा पाएगी
    अपना घर , उसका अपना घर ।

    ReplyDelete
  7. लेख में आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है, लेकिन अंतिम पेराग्राफ"

    "हम अपने देश की संस्कारों की बाते करते नही अघाते हैं पर शायद हम अपने घर के सबसे सुंदर और कमज़ोर धागे को टूटने से बचाने के लिए , उसकी सुरक्षा के लिए कोई उपाय नही करते ! आज आवश्यकता है कि बेटे से पहले बेटी के लिए वह सब दिया जाए जिसकी सबसे बड़ी हकदार बेटी है !"

    के साथ खतम करने के बदले कुछ व्यावहारिक सुझाव दे देते तो अच्छा रहता. एक काम करो, सुझावों से भरा एक लेख लिख दो.

    एक सबसे बडा काम जो मां बाप कर सकते हैं वह बेटी को "पराई" अमानत समझने के बदले "अपनी" अमानत समझें, एवं शादी के बाद भी उसे ऐसा माहौल दिया जाये कि उसे अपने मांबाप का घर "अपना" ही घर लगे.

    -- शास्त्री

    -- हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

    ReplyDelete
  8. माँ डॉ मंजुलता सिंह की कविता आपने यहाँ देकर, इस लेखन में चार चाँद लगा दिए हैं रचना जी ! आपका धन्यवाद !

    ReplyDelete
  9. Satishji, bahut marmik post. padhkar aankhen gili ho gayeen. yah sachai hai. hamari samajik vyavastha aisi hai jismen ladki ke bhagya men samaj ne vahi likha hai jiska varanan aapne apni post men kiya hai.bahut bhvpoorn varanan.

    ReplyDelete
  10. भाव वि‍ह्वल कर देनेवाली रचना, बहन की याद आ गई। उसका कमरा आज भी हमने नहीं हथि‍याया है, शायद उस घर में अब हम तीन भाई भी साथ न रहने के लि‍ए वि‍वश है, सभी उस घर से दूर हें, बस मॉं ही वहॉं रहती है, सोचती हुई कि‍ यह बेटे का कमरा था, यह बेटी का।
    आपकी पोस्‍ट ने और भी न जाने कैसी यादों ओर कर्तव्यों के लि‍ए प्रेरि‍त कि‍या है,बता पाना आसान नहीं। शुक्रि‍या।

    ReplyDelete
  11. कोन कहता है बेटी पराया धन है, लेकिन जब उस की शादी होगी तो वह कहा रहना चाहेगी ? कभी पुछा है किसी भी नारी वाद मां वाप ने? क्या वह अपने पति के साथ अपने मायके रह लेगी ? क्या उसे सच मे इजाज्त मिलेगी, क्या उस के पति को सारे घर मे इज्जत मिलेगी ? क्या उस के पति को घर जावाई यानि के घर का कुता नही कहेगे यही लोग, हमारे बुजुर्गो ने जो संस्कार ओर नियम बनाये है क्या गलत है? अधुनिकता मे पीछे भागने से पहले ओर भी बाते सोचो?
    क्या लडकी का पति चाहेगा अपने मां वाप को धक्के पकड कर ससुराल मे पडा रहै, क्या जिस दो कमरो के मकान को बेटो ने तीन मजिला बनाया है. उस पर अपना कबजा जमाने के लिये एक बहिन
    अपने भाईयो का २५ साल से बसा बसाया घर बरवाद कर दै, जब की भाईयो ने अपनी मेहनत से दो कमरो के उस माकान को बनाया है,
    लडकी की शादी कर कै आप क्या चाहते है? वह कहा रहै ??????
    इस समाज मे सिर्फ़ लडकियो की ही तकलिफ़ नही, बुढे मां वाप की, भाईयो की, भाभीयो की , सभी की तकलिफ़ है,
    कई लडकिया तो खुद ही तकलीफ़ है?
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  12. सतीश जी नमश्कार ,
    आपके द्वारा लिखे गए लिख से दिल भर आया आपका लेख इतना घरेलु और इतना सीधा था की सोचने पर मजबूर कर देता है की बिटिया ही क्यों इस व्यवस्था का अंग बनती है अपने ही घर में जिसमे कुछ साल पहले ही छोड़कर आई थी पराया कर दिया जाता है तथा उसका ये जताया भी जाता है मुझे समाज की बात जो वो हमेशा कहता है की बेतिया पराया धन होती है बहुत ग़लत होती है सोचिये लो आप जब ये बात उस बेटी के सामने कहते होंगे तो उससे कैसा लगता होगा !

    ReplyDelete
  13. आपने बढिया लिखा है हमेशा की तरह। राज भाटिया जी से सहमति है कुछ हद तक। रचना सिन्ह की कविता अच्छी है। पर इसे कोई शादी-शुदा लिखता अनुभव के बाद तो इसमे सच्चाई दिखती। एक अविवाहित महिला, विवाह पर ऐसा कुछ बोले यह जँचता नही। बाकी उनकी मर्जी-----


    संजय, गाजियाबाद

    ReplyDelete
  14. संजय जी !
    मैं बेनामी के नाम से व्यक्तिगत कमेंट्स देना बेहद आपत्तिजनक मानता हूँ ! मैं बेनामी कमेंट्स देना बुरा नही मानता बशर्ते उसमे लेख के प्रति सही आलोचना हो मगर मेरे किसी अन्य चिट्ठे पर अन्य मेहमान के साथ हो यह असभ्यता ही कहलायेगी ! आप कुछ व्यक्तिगत कारणों के से रचना जी के इतने खिलाफ है, कि आप यह भी नही देख पाये की वह कविता डॉ मंजू लता सिंह की है न की रचना जी की ! खेद सहित

    ReplyDelete
  15. राज भाई !
    मुझे दुख है कि आपने अपनी प्रतिक्रिया, मेरा लेख, बिना ध्यान से पढ़े, गुस्से में लिखा है ! आशा है एक बार पूरा पढेंगे !
    अपने पिता पर या पिता की जायदाद पर बेटी का हक, बेटे से कम कैसे हो गया ? और दामाद का सम्मान भी बहू से कम नही होना चाहिए ! अधिकतर लड़कियां आपने भाई के प्यार का सम्मान करते हुए अपना पैसा और संपत्ति पर दावा नही करती हैं, और ऐसा हर बेटी सिर्फ़ आपने पहले घर से जुड़े रहने की इच्छा के कारण करती है !
    शादी के बाद कोई बेटी अपने पिता के घर रहना चाहेगी, मगर यदि उसकी आर्थिक स्थिति ख़राब हो और पिता व भाई समर्थ तो बिना मांगे हमें अपनी बेटी को रहने का इंतजाम करने में हाथ बटाना चाहिए !
    हमें इस निश्छल एवं शुद्ध प्यार को सम्मान देना सीखना चाहिए !

    ReplyDelete
  16. सही लिखा है आपने सतीश जी ... मुझे आपका यह लिखा बहुत पसंद आया

    ReplyDelete
  17. नारी - व्यथा

    जीवन जिया,
    मंजिलें भी मिली,
    एक के बाद एक
    बस नहीं मिला तो
    समय नहीं मिला।
    कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
    जो अपने और सिर्फ अपने लिए
    जिए होते तो अच्छा होता।
    जब समझा अपने को
    कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
    कुछ आदेश और कुछ मनुहार
    करती रही सबको खुश ।
    दूसरा चरण जिया,
    बेटी से बन बहू आई,
    झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
    चंद लम्हे भी नहीं जिए
    जो अपने सिर्फ अपने होते।
    पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
    छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
    चाहकर न चाहकर जीती रही ,
    उन सबके लिए ,
    जिनमें मेरा जीवन बसा था।
    अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखि
    थक-हार कर सोचा
    कुछ पल अपने लिए
    मिले होते
    ख़ुद को पहचान तो लेती
    कुछ अफसोस से
    मुक्त तो होती
    जी तो लेती कुछ पल
    कहीं दूर प्रकृति के बिच या एकांत में
    जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती.


    yae kavita bhi ek viaahita ki haen aur uppar dee gaye apna ghar kavita bhi ek vivaahita kii hee haen

    mae avivaahita hii sahii par jo likhtee hun woh in sab kae vivahitaa striyon kae laekhan sae prabhavit hee hota haen

    maere avivahita honey sae "sanjay gaziabad " sukhii haen yaa dukhi wo bhi likh daetey par
    aur agli baar kavita padhey to link daekhey
    aur jitna vakt maere vyaktigat jeevan ko smajhney mae laatey haen utna samay blog ko sahii tarah sae padhey kae tarikae mae laagaey

    ReplyDelete
  18. सतीश जी...बहुत नपे तुले शब्दों में आप ने कड़वी सच्चाई को व्यक्त किया है...आप की लेखन शैली और कथ्य दोनों प्रभाव शाली हैं...मेरी बधाई स्वीकारें...
    नीरज

    ReplyDelete
  19. bahut accha likhte he aap
    blog me dum he
    lekhani dil si naram he
    regards
    humare pacemaker pr aaiye
    regards

    ReplyDelete
  20. बहुत सुंदर और भावपूर्ण लेख और कविता.।पर माँ बाप की भी मजबूरी होती है, इतने बडे घर तो होते नही कि बेटी का कमरा खाली सजा कर छोड दिया जाय । हाँ उसे यह अवश्य महसूस कराना चाहिये कि ये घर अब भी उसका है और उसके सुख दुख में हम अब भी उसके साथ हैं ।

    ReplyDelete
  21. बहुत सुंदर और सोचने पर मजबूर करता लेख !

    ReplyDelete
  22. साधुवाद..
    बगैर किसी कंट्रोवर्सी के मन से लिखी आपकी इस पोस्ट को बस महसूस कर रहा हूं..
    पुन: साधुवाद..

    ReplyDelete
  23. साधुवाद
    बगैर किसी कंट्रोवर्सी के मन से लिखी आपकी इस पोस्ट को बस महसूस कर रहा हूं
    पुन साधुवाद

    ReplyDelete
  24. आपकी कविता बहुत अच्छी लगी
    अदिति
    कक्षा ४

    ReplyDelete
  25. आज आवश्यकता है कि बेटे से पहले बेटी के लिए वह सब दिया जाए जिसकी सबसे बड़ी हकदार बेटी है !
    .........सही लिखा है सतीश जी

    ReplyDelete

एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

Related Posts Plugin for Blogger,