Saturday, February 14, 2009

ढाई आखर प्रेम का ..

चिटठा चर्चा पर आज मुझे तरुण का लेख , ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय पढ़ कर पाश्चात्य प्यार के इस अवसर पर सुदामा और केशव का प्यार याद आ गया और मुंह से निकल पड़ीं नरोत्तमदास रचित कुछ पंक्तियाँ !

पत्नी के द्वारा बार बार कहने पर महागरीब सुदामा, भेंट के लिए, पड़ोस से मांगे कुछ मुट्ठी चावल की पोटली लेकर, अपने बालसखा द्वारकाधीश से मिलने पंहुचे तो द्वारपाल के ये शब्द ....

"सीस पगा न झगा तन पै प्रभु जाने को आहि बसै केहि गामा
धोती फटी सी लटी दुपटी औ पायं उपानह को नहि सामा,
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सों वसुधा अभिरामा
पूछत दीनदयाल को नाम , बतावत आपनो नाम सुदामा ,

सुदामा पांडे का नाम सुनते ही, कन्हैया सारे राजकाज छोड़, हाथ जोड़ भाग पड़े अपने उस बालसखा से मिलने दरवाजे पर ! द्वार पर अपने मित्र की दुर्दशा देख करूणानिधि रो पड़े ...

"ऐसे बेहाल बिवाइन से पग कंटक जाल लगे पुनि जोए ,
हाय महादुख पाय सखा तुम आए इतै ना कितै दिन खोये
देखि सुदामा की दीन दसा करुणा करिके करुणा निधि रोये
पानी परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल से पग धोये !"

कांख में दबी पोटली को छिपाने का प्रयास करते देख , मुस्कराते केशव ने सुदामा से कहा जैसे बचपन में गुरुमाता के दिए चने तुम अकेले खा जाते थे वैसे ही भाभी के भेजे ये मीठे चावल भी तुम छिपा रहे हो, चोरी की तुम्हारी आदत अभी भी नही गयी , कहकर द्वारकानाथ, वे चावल लेकर खाने लगे ! प्यार का यह स्वरुप वर्णन करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं !इतने में ही प्रभु ने जो देना था अपने मित्र को दे चुके थे .....

खाली हाथ दरवाजे से विदा लेकर दुखी मन, कुढ़ते हुए सुदामा जब अपने गाँव पहुंचे तो अपने महल नुमा घर और पत्नी को पहचान भी नही पाए ......
प्यार का यह स्वरुप आज कहीं सुनने को भी नही मिलता .....शायद आज यह शब्द ही बेमानी है जिसकी किसी को आवश्यकता ही नही ...
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