Saturday, October 23, 2010

क्यों लोग मनाते दीवाली ? -सतीश सक्सेना

मानव कुल में ले जन्म, बाँट ,
क्यों रहे अरे अपने कुल को,
कर वर्ण व्यवस्था नष्ट,संगठित
कर पहले अपने कुल को !
हो एक महामानव विशाल ! त्यागो यह भेदभाव भारी !
तुलसी की विह्वलता में बंध, क्यों लोग मनाते दीवाली ?  

15 comments:

  1. सतीश जी , पढ़ के अच्छा लगा. एक अच्छा सन्देश और नया अंदाज़.

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  2. संवेदित करती हुयी पंक्तियाँ। बँटने में वह आह्लाद कहाँ जो संग रह कर आनन्द उठाने में है।

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  3. बढ़िया रचना...बधाई

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  4. मानव कुल में ले जन्म, बाँट ,
    क्यों रहे अरे अपने कुल को,
    कर वर्ण व्यवस्था नष्ट,संगठित
    कर पहले अपने कुल को !

    bahut achchha sandesh deti rachna ...

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  5. कर वर्ण व्यवस्था नष्ट,संगठित
    कर पहले अपने कुल को !
    सुन्दर सार्थक सन्देश। बधाई।

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  6. बहुत ही सुंदर और सशक्त रचना, शुभकामनाएं.

    रामराम

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  7. सुन्दर रचना है बधाई।

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  8. गुरुदेव! एक पखवाड़े पहले से ही दीवाली के आगमन की पूर्वसूचना दे दी आपने!!बहुत सुंदर गीत!!

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  9. अच्छी बात कही सबको सुनना और समझना चाहिए |

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  10. न्यून शब्दों में मानवीय विभेद वेदना॥ सार्थक

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  11. सतीश जी ,
    हमारी दुआओं और उम्मीदों के पूरे होने की दिशा में क़दम उठने लगे हैं
    भेद-भाव का ख़ातमा ,वर्ण व्यवस्था का अंत,छुआछूत का अंत अब सामने दिखने लगा है ,
    हालांकि आज भी हमारी कथनी और करनी में अंतर होता है लेकिन हमारी नई पीढ़ी इन चीज़ों में विश्वास नहीं करती वो देश की मज़बूती में यक़ीन रखती है
    बहुत सुंदर पंक्तियां !

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  12. कर वर्ण व्यवस्था नष्ट कोई इस लाइन को अन्यथा न लेले वैसे मानव कुल शव्द प्रयुक्त हुआ है इसलिये दूसरा अर्थ लगाना तो नहीं चाहिये क्योंकि आगे भेदभाव त्यागने को भी कहा जारहा है तथा अपने कुल को संगठित करने का भी कहा जारहा है अपना कुल यानी मानव कुल ।अच्छा संदेsh

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  13. ज्योति-पर्व दीपावली पर सपरिवार,हमारी मंगल-कामनाएँ स्वीकार करें.

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  14. भावपूर्ण रचना...वास्तव में काफ़ी कुछ तो वाह्य आडंबर ही होता है...त्योहार हो या रीति रिवाज...प्रणाम

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- सतीश सक्सेना

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