Thursday, January 5, 2012

पापा को भी प्यार चाहिए -सतीश सक्सेना

शक्ति चुकी है, चलते चलते 
थकी उमर में ,पैर न उठते  !
जीवन  की संध्या  में,  ऐसे  
बेमन, भारी  कदम न उठते  !
क्या खोया , क्या पाया मैंने ,
परम पिता का वंदन करते !
वृन्दाबन से, मन मंदिर में, मुझको भी घनश्याम चाहिए !

बचपन में ही छिने खिलौने 
और छिनी माता की गोदी  ,
निपट अकेले शिशु, के आंसू
ढूंढ रहे, बचपन  से  गोदी  ! 
बिना किसी की उंगली पकडे , 
जैसे तैसे चलना सीखा  !
ह्रदय विदारक उन यादों से, मुझको भी अब मुक्ति चाहिए  ! 
  
रात   बिताई , जगते जगते 
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद  आ गयी, 
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,
जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी  गोपाल  चाहिए !

बरसों बीते ,चलते चलते ! 

भूखे प्यासे , दर्द छिपाते  !
तुम सबको मज़बूत बनाते 
मैं हूँ ना, अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको 
अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में, मुझको भी एक हाथ चाहिए !

जब जब थक कर चूर हुए थे ,

खुद ही झाड़ बिछौना सोये 
सारे दिन, कट गए भागते ,
तुमको गुरुकुल में पहुंचाए 
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !
सोचो मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक  नया अध्याय चाहिए !

सारा जीवन कटा भागते 

तुमको नर्म बिछौना लाते  
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते  थे , सिरहाने  
आज तुम्हारे कटु वचनों से, 
मन कुछ डांवाडोल  हुआ है  !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !


( इस रचना पर अली सय्यद साहब द्वारा दिए गए कमेन्ट के जरिये , मेरे गीत पर पाठकों के १०००० कमेन्ट पूरे हुए ! आभार आप सबका ! )
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