Monday, August 19, 2013

अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं -सतीश सक्सेना

ऐसे ही एक भावुक क्षण , निम्न कविता की रचना हुई है जिसमें एक स्नेही भाई और पिता की वेदना  का वर्णन किया गया है .....
बेटी की विदाई के साथ ही , उसका घर, मायके में बदल जाता है , हर लड़की के लिए और उसके भाई के लिए, एक कमी सी घर में हर समय कसकती है कि कहाँ चला गया इस घर का सबसे सुंदर टुकड़ा ...फिर एक मुस्कान कि हमारी लाडो अपने घर में बहुत खुश है ...  

हम दोनों जन्मे इस घर में 
औ साथ खेल कर बड़े हुए
अपने इस घर के आंगन में  
घुटनों बल, चलकर खड़े हुए
तू विदा हुई शादी करके 
पर इतना याद इसे रखना 
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं रक्षक हूँ , तेरे घर का  !
अब रक्षा बंधन के दिन पर , घर के दरवाजे , बैठे  हैं !

पहले  तेरे जन्मोत्सव पर
त्यौहार मनाया जाता था !
रंगोली  और  गुब्बारों से !
घरद्वार सजाया जाता था !
होली औ दिवाली उत्सव 
में, पकवान बनाये थे हमने 
लेकिन तेरे घर से जाते ही 
सारी रौनक ही चली गयी 
राखी के प्रति , अनुराग लिए , उम्मीद लगाए बैठे हैं  ! 

पहले इस घर के आंगन में

संगीत , सुनाई पड़ता था  !
मुझको घर वापस आने पर ,
ये घर रोशन सा लगता था !
झंकार वायलिन की सुनकर
मेरे घर में उत्सव लगता था 
जब से तू जिज्जी विदा हुई 
झाँझर पायल भी रूठ गयीं  
आहट  पैरों  की, सुनने  को, हम  कान  लगाए  बैठे  हैं  !

पहले घर में , प्रवेश करते ,

एक मैना चहका करती थी !
चीं चीं करती, अपनी  बातें 
सब मुझे सुनाया करती थी !
तेरे जाते ही चिड़ियों सी 
चहकार न जाने कहां गयी !
जबसे तू विदा हुई घर से , 
हम लुटे हुए से , बैठे हैं  !
टकटकी लगाये रस्ते में, घर के  दरवाजे  बैठे हैं !

पहले घर के,  हर कोने  में ,

एक गुड़िया खेला करती थी
चूड़ी, पायल, कंगन, झुमका 
को संग खिलाया करती थी
पापा की लाई चीजों पर 
हर बात पे झगड़ा करती थी 
जबसे गुड्डे, संग विदा हुई , 
हम  ठगे हुए  से बैठे हैं  !
कौवे की बोली सुननें को, हम  कान  लगाये बैठे हैं !

पहले इस नंदन कानन में

एक राजकुमारी रहती थी
हम सब उसके आगे पीछे 
वो खूब लाडली होती थी  
तब राजमहल सा घर लगता
हर रोज दिवाली होती थी !
तेरे जाने के साथ साथ ,
चिड़ियों ने भी, आना छोड़ा !
चुग्गा पानी को लिए हुए , उम्मीद  लगाए बैठे    हैं !

33 comments:

  1. सच कहा बेटी तो घर की राज कुमारी ही होती है....
    उसके बिना पूरा घर सूना सा लगता है.
    बहुत ही भावयुक्त रचना ...

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  2. पहले इस नंदन कानन में
    एक राजकुमारी रहती थी
    घर राजमहल सा लगता था
    हर रोज दिवाली होती थी !
    तेरे जाने के साथ साथ ,चिड़ियों ने भी आना छोड़ा !
    चुग्गा पानी को लिए हुए , उम्मीद लगाए बैठे हैं ! very touching ......ummid jarur poori hogi .....

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  3. निशब्द...

    जय हिंद...

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  4. बहुत ही भावुक कर दिया आपकी रचना ने, खुशदीप जी के शब्दों में निशब्द...

    रामराम.

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  5. बहुत सुंदर भावपूर्ण !
    यही मेरे लिये ऎसा होता
    पहले इस नंदन कानन में
    छ : राजकुमारियाँ रहती थी
    घर राजमहल सा लगता था
    हर रोज दिवाली होती थी !

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  6. बहुत ही भावयुक्त रचना ...राखी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !

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  7. एक एक शब्द सत्य है, बहुत ही भावपूर्ण

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  8. सावन औऱ ऱक्षांधन ,बेटी का मन भी थिर नहीं रह पाता ,कितने भी बरस बीत जायें वही देहरी बार-बार याद आती है.किसी का रक्षाबंधन सूना न रहे ,भाई-बहिन के स्नेह-आशीष से भरा रहे यह मंगलमय दिवस!

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  9. दिल को छू लेने वाला गीत । प्रसंग । बेटी भी, अब के बरस भेजो भैया को बाबुल ,जैसा अनुभव कर सजल नेत्रों से अपने भाई और पिता को याद करती होगी । पिता-पुत्र और भाई बहिन का रिश्ता अद्भुत है । अनौखा ।

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  10. भावपूर्ण..... बहुत सुंदर

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  11. पहले इस नंदन कानन में
    एक राजकुमारी रहती थी
    घर राजमहल सा लगता था
    हर रोज दिवाली होती थी !
    तेरे जाने के साथ साथ ,चिड़ियों ने भी आना छोड़ा !
    चुग्गा पानी को लिए हुए , उम्मीद लगाए बैठे हैं !

    यह वेदना नहीं हर माँ बाप भाई के दिल की सच्चाई है आँखें तरस जाती हैं
    राखी के पावन अवसर पर भाव भरे गीत के काहे की बधाई बस मेरी आखें भर आई

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  12. ओह, क्या बात है।
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  13. पहले घर के, हर कोने में ,
    एक गुडिया खेला करती थी
    चूड़ी, पायल, कंगन, झुमका
    को संग खिलाया करती थी
    जबसे गुड्डे संग विदा हुई , हम ठगे हुए से बैठे हैं !
    कौवे की बोली सुननें को, हम कान लगाये बैठे हैं !

    हर साल नया रस लिए आती यह रचना राखी सा।

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  14. पहले घर में , प्रवेश करते ,
    एक मैना चहका करती थी !
    चीं चीं करती, अपनी बातें
    सब मुझे सुनाया करती थी !
    जबसे वह विदा हुई घर से, हम लुटे हुए से बैठे हैं !
    टकटकी लगाये रस्ते में, घर के दरवाजे बैठे हैं !
    बिटिया होती ही ऐसी प्यारी है, पता है मेरी बेटी जब भी कॉलेज से घर लौटती है
    तो सारा घर लगता है चहक रहा है, दिनभर की बाते मुझे बताते नहीं थकती !
    मै तो उसके विदा होने की कल्पना मात्र से ही दुखी हो जाती हूँ !

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  15. बेटियाँ घर की खुशियाँ होती हैं
    बहुत सुन्दर भावपूर्ण !

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  16. रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ बस एक ही बात कहना चाहूंगी
    आज हर उस स्त्री के व्यक्तित्व को चोट पहुँचाने वाले गिरोह का विरोध करना होगा और यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है पिता की, भाई की तभी हमारा यह त्यौहार,हमारी संस्कृति हार्दिक हो सकती है !

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  17. जबसे गुड्डे संग विदा हुई , हम ठगे हुए से बैठे हैं ! निशब्द...

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  18. माँ की एक मैना चहका करती थी !
    चीं चीं करती, अपनी बातें सब सुनाया करती थी !
    निशब्द................
    रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामना

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  19. अंदर तक छूती है ये संवेदनशील रचना ... बेटियों से घर चहकता रहता है ...
    बहुत ही भावपूर्ण ओर सुन्दर गीत ... रक्षा बंधन की बधाई ओर शुभकामनायें ....

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  20. भावभीनी कविता..हर बेटी को ऐसा ही मान मिले

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  21. रक्षा बंधन की बधाई ओर शुभकामनायें ...

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  22. भावपूर्ण अभिव्यक्ति-पिता के स्नेहिल उदगार बिटिया के लिए !

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  23. घर की सुख-चैन है प्रीत-भरी बैन है । दूध की ऊफान है घर की पहचान है । मिट्टी की सुगंध है क्षिप्रा सी मंद है । अनकही भाषा है प्रेम की परिभाषा है । पूनम की चॉंद है सुरक्षा की मॉंद है ।सागर की शान्ति है विप्लव की क्रान्ति है । आँसू से भरी है भीतर से डरी है। अभावों में पली है गीतों में ढली है । मन्दिर की सीढी है पीढी दर पीढी है । दूध की मलाई है फिर भी पराई है । राखी की डोर है मानस की मोर है । निःशब्द शोर है उजली भोर है । जलती हुई आग है भैरवी राग है । काली की क्रान्ति है सरस्वती की शान्ति है ।

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  24. बेहतरीन अभिव्यक्ति.....

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  25. बहुत ही भावुक कविता। आँखें नाम हो गई ।

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  26. कोमल कृति, संबंधों की सुखद छाँह में शब्द ऐसे ही बेफिक्र बह जाते हैं।

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  27. सतीश जी.… स्वप्न गीत comments accept नहीं कर रहा है।

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  28. यह कविता मुझे कितनी अच्छी लगी, मैं क्या कहूँ? बहुत भावपूर्ण है रूलाने वाली है।

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  29. yeh kavita padh kar shabd nahi aankhain bool padi... very very nice

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  30. राखी के प्रति,अनुराग लिए, उम्मीद लगाए बैठे हैं !
    ***
    भावपूर्ण!

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  31. भावना का सागर उमड़ रहा है आपकी इस कविता में...ह्रदयस्पर्शी है।

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  32. एक बार फिर पढ़ा आँखें भर आईं

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- सतीश सक्सेना

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