Tuesday, September 17, 2013

बाहर जाकर करो रोशनी ,लोग ढूंढते फिरते हैं -सतीश सक्सेना


बाबा,ज्ञानी,संत,साध्वी, कितने पावन दिखते हैं !
फिर भी देसी अख़बारों में इनके किस्से छपते हैं !

चूहों से घबरा के हमने,घर में ज़हरी पाल लिया !
तब से, कट्टर बैरी हमसे , कुछ हमदर्दी रखते हैं !

आब ऐ आफताब को लेकर,घर में काहे बैठे हो !
बाहर जाकर करो रोशनी , लोग ढूंढते फिरते हैं !


ताले, दीवारें, दरवाजे, क्या कुछ भी कर पायेंगे !
घर के रखवाले ही कैसे, बदले बदले लगते हैं !


धनुषवाण ले राम के फोटो,दीख रहे चौराहों पे      
तब से, सारे बस्ती वाले ,आशंकित से रहते हैं !

24 comments:

  1. क्या बात है !

    सामयिक रचना।

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  2. बहुत सुंदर !
    लौट आये अच्छा किया :P

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  3. सुन्दर प्रस्तुति-
    सार्थक सन्देश-
    आभार आदरणीय-

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  4. शुभ संध्या
    बेहतरीन....
    सादर

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  5. चूहों से घबरा के हमने ,घर में ज़हरी पाल लिया !
    तब से कट्टर बैरी हमसे ,कुछ हमदर्दी रखते हैं !
    बहुत सुंदर-सार्थक .....

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  6. क्या बात है !बेहतरीन....

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  7. बेहतरीन बहुत ख़ूब

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  8. ताले ,दीवारें ,दरवाजे ,क्या कुछ भी ,कर पायेंगे !
    घर के रखवाले ही मुझको ,बदले बदले लगते हैं !
    बे-मिसाल अभिव्यक्ति

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  9. आपके गीतों को पढ़कर बस एक ही शब्द निकलता है हृदय से "वाह"!

    गीतों का सुर ताल लय यूँ ही सदा सर्वदा बरकरार रहे!

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  10. बहुत अच्छे सर जी , रवानी और रफ़्तार दोनों ही जुलम ढाए हुए हैं और देसी क्या अब तो बाबे बदेसी अखबार में भी क्रुपा बरसाते दीख रहे हैं

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  11. बाबा,ज्ञानी,संत,साध्वी ,कितने पावन दिखते हैं !
    फिर भी देसी अख़बारों में इनके किस्से छपते हैं !
    सटीक बात कही है !

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  12. ताले ,दीवारें ,दरवाजे ,क्या कुछ भी ,कर पायेंगे !
    घर के रखवाले ही मुझको ,बदले बदले लगते हैं !
    बहुत खूब ,सबसे ज्यादा पसंद आई मुझे यह पंक्तियाँ !

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  13. ताले ,दीवारें ,दरवाजे ,क्या कुछ भी ,कर पायेंगे !
    घर के रखवाले ही मुझको ,बदले बदले लगते हैं ..

    बहुत खूब ... गहरी बात कह सी सतीश जी आपने ... लाजवाब शेर ...

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  14. गहन भाव सुन्दर शब्द संयोजन।

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  15. आज का यही सबसे बडा दर्द है, बखूबी अभिव्यक्त किया.

    रामराम.

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  16. बाबा,ज्ञानी,संत,साध्वी ,कितने पावन दिखते हैं !
    फिर भी देसी अख़बारों में इनके किस्से छपते हैं !
    वास्तव में जरूरत इनके नंगेपन से समाज को परिचित करने की है.जरूरत है-
    -आब-ऐ-आफताब को लेकर ,घर में काहे बैठे हो !
    बाहर जाकर, करो रोशनी ,लोग ढूंढते फिरते हैं !
    बहुत ही सुन्दर सार्थक सन्देश,सतीश जी आपको बधाई

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  17. समाज के सपाट सत्य हैं आपके शब्दों में।

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  18. संजय त्रिपाठी की ईमेल टिप्पणी :

    सुंदर! आशंकाओं के होते हुए भी आशंकाओं में जीना नहीं है.सकारात्मकता के लिए आशंकाओं का निवारण और जीवन में विश्वास का होना आवश्यक है.

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  19. wah..aaj ke sandarv me sarthak rachna...

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  20. आज के साधु-बाबाओं का कटु सत्य

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एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

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