Monday, October 27, 2014

अरे गुलामों कब जागोगे ? - सतीश सक्सेना

अरे गुलामों, कब जागोगे
देश लुट रहा,पछताओगे !

वतन हवाले, करके इनके   
तुम वन्देमातरम गाओगे !

राष्ट्रभक्ति के मिथ्या नारों
से कब तक मुक्ति पाओगे !

खद्दर कब से, मूर्ख बनाता,
इससे कब हिसाब मांगोगे !

राजनीति की इस बदबू में  
कैसे, खुली हवा लाओगे ?

Thursday, October 23, 2014

दीपोत्सव मंगलमय हो -सतीश सक्सेना

दीपोत्सव मंगलमय सबको 
गज  आनन,गौरी पूजा से !

दुष्ट प्रवृतियों से , लड़ने को 
अस्त्र मिले,खुद चतुर्भुजा से 

बुरी शक्तियां पास न आएं 
शक्ति मिले अर्जुनध्वजा से

हो सम्मानित, गौरव  तेरा 
तीक्ष्ण बुद्धि,अक्षय ऊर्जा से

सदा रहें , अनुकूल शारदा ,  
गृह रक्षित हो,अष्टभुजा से !



Tuesday, October 21, 2014

कवि कैसे वर्णन कर पाए , इतना दर्द लिखाई में - सतीश सक्सेना

कहीं क्षितिज में देख रही है
जाने क्या क्या सोच रही है
किसको हंसी बेंच दी इसने
किस चिंतन में पड़ी हुई है

नारी व्यथा किसे समझाएं,
गीत और कविताई में !
कौन समझ पाया है उसको, तुलसी की चौपाई में !

उसे पता है, पुरुष बेचारा
पीड़ा नहीं समझ पायेगा
दीवारों में रहा सुरक्षित 
कैसे दर्द, समझ पायेगा
पौरुष कब से वर्णन करता, 
आयी मोच कलाई में !
जगजननी मुस्कान ढूंढती , पुरुषों की प्रभुताई में !

पीड़ा, व्यथा, वेदना कैसे
संग निभाएं बचपन का 
कैसे माली को समझाएं 
26 अक्टूबर जनवाणी

कष्ट, कटी शाखाओं का 
सबसे कोमल शाखा झुलसी,
अनजानी गहराई में !
कितना फूट फूट कर रोयी , इक बच्ची तनहाई  में !

बेघर के दुःख कौन सुनेगा ,
कैसे उसको समझ सकेगा ?
अपने रोने से फुरसत कब
जो नारी को समझ सकेगा ?
कैसे छिपा सके तकलीफें, 
इतनी साफ़ ललाई में !
भरा दूध आँचल में लायी, आंसू मुंह दिखलाई में !

कैसे सबने उसके घर को
सिर्फ, मायका बना दिया
और पराये घर को सबने 
उसका मंदिर बना दिया
कवि कैसे वर्णन कर पाए , 
इतना दर्द लिखाई में !
कैसी व्यथा लिखा के लायी ,अपनी मांगभराई में !

Wednesday, October 8, 2014

कैसे सिसके करवाचौथ बिचारी सी - सतीश सक्सेना

प्रतिबद्धता कहें अथवा लाचारी सी !
जग जननी लगती, कैसी गांधारी सी !

धुत्त शराबी से जीवन भर, दर्द सहे !
कैसे सिसके करवा चौथ बिचारी सी ! 

किसने नहीं सिखाया, उसे विदाई में 
पूरे  जीवन रहना , एकाचारी  सी  !

छोटी उम्र से क्या बस्ती में सीखा है,  
किसे सुनाये , बातें मिथ्याचारी सी !

धीरे धीरे कवच पुरुष का , तोड़ रही ,
कमर है मालिन जैसी चोट लुहारी सी !

छप्पर डाल के सोने वाले, भूल गए 
नारी के मन सुलग रही , चिंगारी सी !

ग्लानि थकान विषाद और उत्पीड़न भी
मिल कर देख न पाये , नारी हारी सी !
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