Wednesday, April 22, 2015

बुरे हाल में साथ न छोड़ें देंगे साथ किसानों का - सतीश सक्सेना

                 15 से 19 अप्रैल 2015 यवतमाळ जिला में आनंद ही आनंद और भारतीय शांति परिषद के संयुक्त तत्वावधान में गाँव गांव पैदल जाकर किसानों से मिलने का दुर्लभ मौका मिला जहाँ पिछले कुछ वर्षों से सर्वाधिक किसान आत्महत्या करते हैं ! पूरे विश्व में
भारत की शानदार संस्कृति और बौद्धिकता के झंडे उठाये लोगों के देश में, सीधे साधे किसान आत्महत्या करें इससे शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता ! सन  2012 में हमारे देश में 14000 किसानों ने आत्महत्या की है , और हमारे राजनेता बिना इन अनपढ़ों की चिंता किये अगले इलेक्शन की तैयारी में जन लुभावन घोषणाएं करते रहते हैं !
यवतमाळ पदयात्रा 

              किसान हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नहीं आता , भारतीय किसानों के बारे में टसुये बहाने वालों को यह भी नहीं मालुम कि साधारण किसान की सामान्य दिनचर्या क्या है वह किन समस्याओं से जूझ रहा है और शायद इसकी जरूरत भी नहीं है क्योंकि इलेक्शन के समय यह फटेहाल भोला व्यक्ति अपने दरवाजे पर आये, अपने ही गांव के प्रमुख लोगों से घिरे, इन महामहिमों को निराश करने की हिम्मत नहीं कर पाता और उसे अपने पूरे कुनबे खानदान के साथ वोट इन्हीं खद्दर धारी दीमकों को देना पड़ता है !

             यह पदयात्रा युवा आचार्य विवेक के आह्वान में पूरी हुई जिनकी मीठी वाणी और मोहक व्यक्तित्व से लगता है कि स्वामी  विवेकानंद का पुनर्जन्म हो चुका है , शिवसूत्र उपासक  विवेक पिछले कई वर्षों से , अपनी विदेशी नौकरी और विवाह त्याग कर, अध्यात्म साधना पथ पर चल रहे हैं , सुखद आश्चर्य है कि दिखावटी महात्माओं, बाबाओं के देश में, खादी का कुरता पैंट पहने यह सहज सरल युवा आचार्य,जनमानस पर अपनी छाप छोड़ने में समर्थ रहा है ! इस यात्रा में चलने वालों में विभिन्न समुदायों के लोग जिनमें वयोवृद्ध पुरुष, नवजवान और महिलायें शामिल थे, अपने कार्य छोड़कर इस कड़ी धूप में किसानों के साथ दुःख बांटने को तत्पर दिखे और यह विशाल साधना कार्य बिना किसी अखबार , टेलीविजन न्यूज़ चैनल्स को बिना दावत पार्टी दिए , रोटी दाल खाते हुए बड़ी सादगी से किया गया !

विवेक जी के इस कथन पर कि आनंद ही आनंद किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता से नहीं जुड़ा है और न हम इसके कार्यक्रमों में किसी राजनीतिक दल को शामिल करेंगे, हम जैसे बेआशीष फक्कड़ ने भी किसानों के दर्द में जाने का फैसला किया था और इस राह के आध्यात्मिक आयोजनों में भी, मैंने यही पाया यह मेरे लिए एक बड़े संतोष और राहत का विषय था !

               इस दौरान हमने विवेक जी के शिष्यों की गाड़ियों में लगभग 700 km यात्रा की जिसमें लगभग 85 किलोमीटर की दूरी तेज धूप में पैदल चलकर तय की गयी ! पदयात्रा के रास्ते में आचार्य बिनोबा भावे का पवनार आश्रम एवं  महात्मा गांधी के सेवाग्राम के दर्शन सुखद रहे ! उससे भी सुखद यह था कि एक आध्यात्मिक फ़क़ीर के पीछे कवि , साहित्यकार , डॉक्टर , इंजीनियर , सॉफ्टवेयर इंजीनियर , व्यापारी , किसान , मजदूर , चार्टर्ड एकाउंटेंट ,महिलायें , गृहणी और उनके बच्चे सब शामिल थे ! महिलायें न केवल कार चला रहीं थी बल्कि पैदल यात्रिओं के लिए भोजन पानी की व्यवस्था इस ४० डिग्री तेज धूप में पैदल चल कर , कर रही थीं और शामिल लोग इतनी विविधिता लिए थे कि उनसे बात करके थकान का नाम नहीं रहता ! ६० वर्षीय राजेश पारेख जो कि नागपुर के बड़े ज्वैलर्स में से एक हैं, ऐसे ही एक आदर पुरुष थे !  


और इस भक्ति भावना का प्रभाव ग्रामीणों पर भी पड़ा , शुरू में किसान पदयात्रा के उद्देश्य से शंकित थे क्योंकि पहले गांव में काफिला सिर्फ महामहिमों का आता था और ढेर सारे वादे देकर जबरन वोट ले जाता था मगर जब उन्हें यह कहा गया कि हमारा वोटों से कोई लेना देना नहीं , हम भाषण देने नहीं, आपको सुनने आये हैं तब राहत की सांस लेते किसानों ने अपना दर्द खुल कर बताया ! उनके कष्ट अवर्णनीय हैं, उनके अपने उपजाए देसी बीज, खाद , कीटनाशक छीन लिए गए और उन्हें बाज़ार का प्रोडक्ट खरीदने को मजबूर करने के कानून बना दिए गए यही नहीं उनकी फसल की कीमत भी खरीदार तय करेंगे, यह कानून बना दिया गया ( फसल का रेट सरकार तय करती है )  ! 


आचार्य विवेक 
इस देश में आज किसान अपने आपको हारा और बंधुआ मज़दूर मानने को मजबूर है और शायद ही कोई नेतृत्व उन्हें दिल से प्यार करता हो सब के सब इन भेंड़ों से अपनी रुई लेने आते हैं और यह झुण्ड अपना बचाव भी नहीं कर पाता ! इनकी पूरे साल की कमाई (उत्पादन ), सरकार की मदद से, अपनी मनमर्जी का पैसा देकर, कुटिल शहरी व्यापारी ले जाकर खरीद की मूल्य से आठगुने, दसगुने भाव पर बेंच कर अपनी तिजोरी भरते हैं और इलेक्शन के समय राजनेताओं को मदद के बदले धन देते हैं ताकि वे अगले ५ वर्षों के लिए दुबारा सत्ता में आ जाएँ और फिर इन्हें नोचते रहें , उनकी खुशकिस्मती से यह असंगठित भेड़ें भी करोड़ों की संख्या में हैं , सो कोई समस्या दूर दूर तक नहीं ! दैहिक, मानसिक शोषण और प्रताड़ना की यह मिसाल, पूरे विश्व में अनूठी व बेमिसाल है ! यही एक देश है जहाँ मोटे पेट वाले बेईमान सबसे अधिक भारत माता की जय बोलते नज़र आते हैं !

अनपढ़ों के वोट से , बरसीं घटायें  इन दिनों !
साधू सन्यासी भी आ मूरख बनायें इन दिनों !


झूठ, मक्कारी, मदारी और धन के जोर पर ,  
कैसे कैसे लोग भी , योद्धा कहायें इन दिनों !

मेरा यह दृढ विश्वास है कि हर क्षेत्र में हमारी ईमानदारी, पतन के गर्त तक पंहुच चुकी है , हम कोई भी काम बिना फायदे के नहीं करते , निर्ममता से अपनी छबि निर्माण के लिए कमजोरों  को सिर्फ धोखा देते हैं और शक्तिशालियों से धोखा खाते हैं ! पूरा देश बेईमानों का गढ़ बन गया है अब यहाँ जीने के लिए और धनवान बनने के लिए राष्ट्रप्रेम के नारे के झंडे के साथ अपनी पीठ पर और गले में मालिक (राजनीतिक दल  ) की पट्टी आवश्यक है !  लोग आपको देख भयभीत होकर आदर देते दुम हिलाएंगे ही ! 

             इस बेहद खराब माहौल में  " चला गांवां कडे " का नारा दिया है आचार्य विवेक ने , इस नारे को सार्थक बनाने के लिए एक ऑफिस खोला गया है जिसका कार्य गाँव की समस्याओं का अध्ययन करना है ! विदर्भ के विभिन्न गांवों से वर्तमान व्यवस्था से व्यथित युवाओं और स्वयं सेवकों ने ग्राम प्रतिनिधि का कार्य करने को अपना नाम दिया है ! मैनेजमेंट के बेहतरीन जानकार, विवेक ने अपना कार्य बड़ी सादगी और शालीनता से किया है, पूरी यात्रा में इस नवयुवक आचार्य के चेहरे पर थकान, विषाद  का एक भाव नज़र नहीं आया हर वक्त एक आत्मविश्वास से सराबोर प्रभावशाली स्नेही प्रभामंडल नज़र आता था जिसे उसके प्रशंसक एवं शिष्य हर समय घेरे रहते ! उनके कई मजबूत समर्पित शिष्य उनके हर आदेश को मानने को तत्पर रहते थे !


             विवेक जहाँ जहाँ जा रहे थे , महिलाओं और पुरुषों ने ,घर से निकल निकल उनका तिलक लगाकर अभिनन्दन किया ! मेरा विश्वास है कि मध्य भारत क्षेत्र में, आने वाले समय में तेजी से बढ़ती उनकी लोकप्रियता निश्चित ही स्वयंभू नेताओं और मठाधीशों को चौंकाने के लिए काफी होगी ! 

              इन पांच दिनों में आनंद ही आनंद  की ओर से, बिना किसी भाषण बाजी के केवल अपना और आचार्य विवेक का संक्षिप्त परिचय देकर किसानों से अपनी बात कहने का अनुरोध किया जाता था ! इन धुआंधार मीटिंगों से जो बातें सामने आयीं वे निम्न थीं !

  • आज तक गाँव में कोई सरकारी मदद नहीं मिली , जो घोषणाएं हुई भी हैं वे बरसों से दसियों इंस्पेक्टरों की जांच होते होते नगण्य रह जाती हैं ! 
  • पहले किसान अपनी फसल  उगाने के लिए बिना एक पैसा खर्च किये, अपने खुद के द्वारा जमा किये गए बीज ,खाद और कीटनाशकों पर निर्भर था वहीँ अब उसे हाइब्रिड बीज , विशिष्ट कीटनाशक और खाद बाहर से खरीदने पड़ते हैं जिसमें उसकी जमा पूँजी अथवा कर्ज का एक भारी हिस्सा खर्च हो जाता है , सूखा या अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट होने की हालत में यह कर्जा और अगले साल की भोजन की समस्या , शादी व्याह और सामाजिक दवाब उसके आगे भयावह स्वप्न जैसे खड़े नज़र आते हैं और उसकी स्थिति बदतर करने के लिए भरी रोल अदा करते हैं !  
  • बैंक का पैसा हर हालत में वर्ष के अंत में बापस करना पड़ता है चाहे फसल से भारी लागत लगाने के बावजूद एक रूपये का भी मुनाफ़ा न हुआ हो या सारी फसल असमय वर्षा या सूखा से खराब क्यों हुई हो !
  • सरकार द्वारा निर्धारित कपास का समर्थन मूल्य, लागत से भी काम पड़ता है , यह वर्तमान में 4000 /= है जो किसानों के हिसाब से कम से कम 6000 /= पर क्विंटल होना चाहिए !
  • यह विडम्बना है कि किसान अपना धन और श्रम लगाकर फसल उगाता है और उसका मूल्य निर्धारण शहरों में बैठे सरकारी दफ्तर के बाबू करते हैं , छोटे किसान जिसको लागत अधिक पड़ती है और बड़े किसान दोनों को एक सा मूल्य दिया  जाता है , सरकारी व्यवस्था को, विभिन्न कारणों से फसल खराब होने अथवा जानवरों व मौसम  द्वारा बर्वादी से कोई मतलब व जानकारी नहीं अतः लगभग हर किसान ने एक मत से अपनी फसल का मूल्य निर्धारण स्वयं करने की मांग की ! वे चाहते हैं कि बाजार की डिमांड के हिसाब से वे अपनी फसल को बेंचें तभी गांवों में खुशहाली आ सकती है !
  • आज किसानों के बच्चे किसी हाल में किसान नहीं बनना चाहते उनका कहना था कि शहरों से सम्मन देने वाला चपरासी गाँव में टू व्हीलर से आता है जबकि हमारे पास साईकल भी नहीं होती हम कुछ भी कर लेंगे पर किसान नहीं बनना चाहते , स्वतंत्र भारत में , अपनों के द्वारा अपनों के शोषण की यह जीती जागती तस्वीर किसी का दिल दहलाने को काफी है !अनपढ़  किसानों और गृहणियों के मध्य जमकर नोट कूटता चालाक टेलीविजन मिडिया आजकल धनपतियों को सुबह शाम दो बार सलाम करता है और फिर जो माई बाप कहते हैं वही करता है ! किसानों के बारे में नीरस जानकारी देने के लिए
  • मशहूर दूरदर्शन के दिखावटी  कृषि चैनल खोलकर सरकार मस्त है लोकल खद्दरधारी दीमकों ने शेतकारी कमिटी , किसान यूनियन व अन्य किसान नामधारी संगठन बनाकर अपने शराबी चमचों को वहां अध्यक्ष और सेक्रटरी बना दिया है यह राष्ट्रप्रेमी शिष्य गण अपने दफ्तरों में भगत सिंह,चंद्रशेखर आज़ाद की तस्वीर लगाकर शाम को दारु सम्मेलनों में किसानों की समस्याओं पर चर्चा कर अपना कर्तव्य पालन कर मस्त रहते हैं ! 
बड़ी क्रूरता के साथ, अपनी सीधी साधी गाय मारकर, उसे परोसकर हम सिर्फ धनवानों को  और ताकतवर और हृष्ट पुष्ट बना रहे हैं  !पहली बार जीवन में मुझे कोई लेख लिखते समय अपने दिल में कम्युनिस्टों के प्रति आदर सम्मान की भावना जाग्रत हो रही है , मगर उन बेचारों के, मार्क्स लेनिन को अनपढ़ किसान समझे कैसे ? 
                                           *********************************************


उपरोक्त लेख नवसंचार समाचार ने सम्पादकीय पृष्ठ पर छापा है , इस सम्मान के लिए उनका आभार !
http://navsancharsamachar.com/%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B2-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%A8-%E0%A4%9B%E0%A5%8B%E0%A5%9C%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A5%87/

ग्राम विधवाएं, जिनके पति चले गए  

55 comments:

  1. बढ़िया काम । साधुवाद ।

    ReplyDelete
  2. फसलों की बर्बादी और कर्ज के बोझ तले किसानों के खुदखुशी करने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है । आशा है आप सभी के प्रयास इन धरती पुत्रों की स्थिति को बेहतर बनाने में सहायक होंगे...

    ReplyDelete
  3. आचार्य विवेक जैसे लोग ही देश में बदलाव की बयार चला सकते हैं जो स्वार्थहीन कार्य करना चाहते हैं देश के लिए ...

    ReplyDelete
  4. प्रभावशाली आलेख..किसानों के जीवन स्तर को सुधारने और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए विवेक जी की संस्था द्वारा किये जा रहे प्रयास सराहनीय हैं. बधाई !

    ReplyDelete
  5. वास्तव में इस समय सबसे सोचनीय स्थिति किसानों की ही है और जिस सरकार को इसके लिए कदम उठाने चाहिए, वही अन्यायी बनी हुई है। ऐसे में आचार्य विवेक जी का यह प्रयास स्तुत्य है, साथ ही उनके इस अभियान में सक्रिय रूप से सहयोग देने वाले भी बधाई के पात्र हैं।

    ReplyDelete
  6. यवतमाल की इस पदयात्रा के विषय में गिरीश पंकज जी से चर्चा हुई थी। पहली किसान आत्महत्या अनंतपुर (आंध्र प्रदेश) से प्रारंभ हुई थी फ़िर उसकी काली छाया ने विदर्भ के किसानों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया। प्रकृति की मार, बाजार का कर्ज, बैंकों का कर्ज एवं जीवन संचालन के लिए आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते हुए मुल्य से विदर्भ का किसान अत्यधिक परेशान हुआ है और उसकी सहनशीलता चरम सीमा को पार कर चुकी है। अगर एक दृष्टि हम सम्पूर्ण भारत पर डाले तो किसानों की कमोबेश यही स्थिति है, पर कुछ प्रदेशों (यथा बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओड़िसा) के किसान खेती नहीं होती तो जीवन यापन करने अन्य प्रदेशों को पलायन कर जाते हैं और मजदूरी करके आवश्यकता की वस्तु जुटा लेते हैं। इन प्रदेशों से किसानों द्वारा आत्महत्या करने के समाचार नहीं आते। विदर्भ के किसान जमीन से ही जुड़ा रहना चाहते हैं और कैश क्राप का उत्पादन नहीं कर पाते। अन्य कारण भी हो सकते हैं, इस क्षेत्र में आत्महत्या जैसे प्रकरण न हों इसके लिए सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को मिल कर किसानों के मनोबल में वृद्धि करने के कार्यक्रम चलाने चाहिए और उन्हें आवश्यक सहायता मुहैया करवानी चाहिए।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया ललित भाई !

      Delete
  7. सतीश जी मैंने कई बार आपसे चर्चा की है पहले भी कि यह देश बहुत बड़ा है और जहाँ तक देश का विस्तार वहां तक सरकार की पहुंच नहीं है या पहुचना नहीं चाहती है। किसान आज न राजनीती की प्राथमिकता में है न साहित्य में। देश में ऐसी पद्यात्राओं की घोर जरुरत है। लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि जनता से प्रधानमंत्री तक को अमेरिका , कनाडा ऑस्ट्रेलिया और आईपीएल की चिंता है। क्रिकेट के मैच की जीत हार पर राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री तक ट्वीट करते हैं लेकिन किसान की दशा पर कोई पसीजता नहीं।
    लेख में बस एक तथ्यात्मक भूल है कि देश में हर साल लगभग सत्तर किसान आत्महत्य करते हैं। 2012 के नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक देश में चौदह हजार किसानो ने आत्महत्या की थी। और यह आंकड़ा अनुमान से बेहद कम है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आंकड़ों के लिए शुक्रिया अरुण जी , कृपया पोस्ट देख लीजियेगा

      Delete
  8. हम जब भी अखबारों में, न्यूज़ चैनल पर किसानों के विषय में पढ़ते सुनते हैं तो दिल बहुत दुखी होता है . हर व्यक्ति जब मेहनत करता है तो उसी वक़्त या महीने भर बाद अपना मेहनताना पा जाता है .पर किसान जो पूरे 6 महीने जी तोड़ मेहनत करता है ..रोज़ एक अच्छी फसल का ख़याल दिल में रखकर सोता है ...अगले पिछले क़र्ज़ उतारने के सपने देखकर उठता है ....उसे जब क्रूर निर्मम मौसम के रहमों करम पर जीना पड़ता है तो दिल खून के आँसू रोता है ... क्यों निष्ठुर हो जाता है हर कोई इस सबसे मेहनती प्राणी के साथ ...कभी नहीं समझ आयी यह बात ....बे मौसम बारिश हो या सूखा पड़े ..उसकी महीनों की मेहनत पलभर में धराशायी हो जाती है ..ऐसे में क़र्ज़ में डूबे किसानको, सिर्फ एक ही विकल्प नज़र आता है...उजड़ी फसल को जब सीने से लगाकर दहाड़ता है तो आसमान का सीना क्यों नहीं छलनी होता ..ताज्जुब होता है ...बचपन में पढ़ा करते थे भारत एक कृषि प्रधान देश है ..यहाँ 70 % लोंग किसान हैं ..गर्व से सीना चौड़ा हो जाता था ......आज सर शर्म से झुक जाता है ...मार्स पर यान भेजने वाले देश में आज भी देश का सबसे मेहनतकश इंसान भूखा मर रहा है ...ज़लालत की ज़िन्दगी से मौत को बेहतर समझ रहा है ...उसी की आगोश में पनाह पा रहा है ...वाह रे Incredible India...

    ReplyDelete
  9. pranam sir.... sachmuch adbhut aur divy tha.... aapke blog ko padhte hue laga pure chitr samne aa rahe hain.... mere pas koi shabd nahi hain is yatra ko vyakt karne ke liye... man mein bhav itni tej umad rahe hain lekin unhe sambhal pana meri mamooli pratibha ke bute ke bahar hai... pranam naman.... aur ummeed karta hoon thodi thakan ke alawa aap puri tarah swasth sanand honge... aap to chir-yuva hain...

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया दीपक ,
      इस यात्रा में बहुत चला हूँ मगर थकान महसूस ही नहीं हुई, एक अत्तएव शांति लग रही थी कि शायद पहली बार कोई महत्वपूर्ण कार्य कर रहा हूँ , हाँ किसानों का दर्द कई बार आँखों में छलका अवश्य !
      आभार भाई

      Delete
  10. आचार्य विवेक जी द्वारा इस यात्रा का आयोजन और आपसबका इसमें शामिल होना , बहुत ही सराहनीय कदम है .
    किसान की दुर्दशा सोच कर तो सचमुच रोना आता है. गर्मी सर्दी बरसात में हाड-तोड़ मेहनत करनेवाला इंसान की मेहनत का इतना कम मूल्य और फसल बर्बाद होने पर कोई राहत नहीं. इतना साधारण जीवन जीने वाले को भी जीवन से हार मान लेना पड़ रहा है. बहुत ही दुखद स्थिति है.
    कोई भी सरकार किसी काम की नहीं.सरकार तो आंकड़े भी झुठलाना चाहती है .महाराष्ट्र में 600 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं और सरकार कह रही है कि फसल बर्बाद होने की वजह से सिर्फ तीन किसान ने आत्महत्या की है .बाकि किसानों के पास दुसरे कारण थे.शर्मनाक बयान है यह.
    सरकार से तो कोई उम्मीद नहीं. नागरिक ही उनकी मदद को आगे आयें. आखिर थाली में जो रोटी है, इन्हीं हों किसानों की देन है.उसका तो कुछ कर्ज चुकाएं .

    ReplyDelete
    Replies
    1. हमारी नींद टूटनी ही चाहिए , आभार आपका !

      Delete
  11. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  12. काफी कुछ सोचने पर मजबूर करती हूँ ये पोस्ट इसे पोस्ट करना ठीक नहीं ,दिल का दर्द है जो शब्दों में उतारा है ,इतने लोग इतना कुछ कर रहे है किसानो के लिए पर कोई उचित राह क्यों नहीं निकल पाती ,इनके दर्द पर मरहम लगे ऐसा क्या किया जा सकता है ???

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया अवंती जी , आभार आपका !

      Delete
  13. आपका लेख बहुत अच्छा है सतीश जी। पदयात्रा का आपका कार्य भी प्रशंसनीय है। किसान की समस्या है कि उत्पाद का मूल्य तो बढ़ा है पर शेष बाजार के सापेक्ष नही बढ़ा। इससे किसान की क्रय-शक्ति निरन्तर होती जा रही है। अगर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य ना तय करे तो बाजार में उसे वह कीमत भी नहीं मिलने वाली जो अभी मिल रही है। किसान की फसल perishable है तथा उसकी फसल रोक कर रखने की क्षमता नहीं है। दुर्भाग्य है कि आज वह राजनीति के हाशिय पर है और उसकी बात करने वाला कोई नहीं है। दुनिया के हर देश में किसान कमोबेश यही हालत है। आपके लेख और यात्रा के लिए सधुवाद।

    ReplyDelete
  14. जो देखा-समझा उसका अच्छा विवरण है। यात्रा का follow-up क्या होगा,यह भी महत्वपूर्ण है।

    ReplyDelete
  15. नेक इरादे से की गई यात्रा के लिए अव्वल तो दिली मुबारकबाद। कृषि प्रधान देश में किसानों की बदहाली इस कॉरपोरेट सरकार में और बढ़ेगी। आशंका फिज़ूल नहीं। लेकिन आप जैसे सुधी जन अगर उनके लिए कुछ भी सार्थक कर सके, तो किसानों के चेहरे पर ज़रूर कुछ मुस्कान की लकीरें सूरज सी चमक सकें। किसानों की दुर्दशा पर आपके भाव-विचार ईमानदार हैं। लेकिन पूरे राइट अप में किसानों से अधिक विवेक जी पर फोकस, नाचीज़ को ज़रा अतिरंजना लगा। गुस्ताख़ी मुआफ़ हो। वहीं अंतिम इन पंक्तियों का आशय स्पष्ट नहीं हो सका।

    "पहली बार जीवन में मुझे कोई लेख लिखते समय अपने दिल में कम्युनिस्टों के प्रति आदर सम्मान की भावना जाग्रत हो रही है , मगर उन बेचारों के, मार्क्स लेनिन को अनपढ़ किसान समझे कैसे ?"

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका स्वागत है शहरोज़ भाई !
      हाँ यह सच है कि इस पोस्ट में आचार्य विवेक पर अधिक फोकस है मगर मेरे विचार से यह आवश्यक है कि ऐसे समाज सेवियों पर हम ध्यान दें व उन्हें प्रोत्साहित करें शहरोज़ ! अब आप इस दृष्टिकोण से मेरे अनुरोध पर एक बार पोस्ट और पढ़ें विद्वान मित्र !!
      आखिरी पंक्ति कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थन मात्र है काश किसान कम्युनिज़्म समझ पाते !

      Delete
    2. कुछ भी हो कोई फर्क नहीं होता है
      परेशानी शुरु वहाँ होना शुरु होती है
      जब आगे (स्यूडो) आभासी जुड़ा होता है ।

      जैसे आभासी सेक्यूलेरिज्म, आभासी कम्यूनिज्म या और कुछ भी :)

      Delete
    3. सहमत हूँ प्रो. जोशी आपसे .....

      Delete
  16. ''संपन्न रामनगर इलाके का एक गांव बीरपुर लच्छी... कोई भी 10th पास नहीं... लोग इन्हें बुक्सा कहते हैं। यह पूछने पर कि आप लोगों की जमीन कहां गई, कुछ उम्रदराज लोगों ने बताया कि बड़े हाथ-पैरों वाले लोगों ने धारा 229 में अपने नाम करा ली। इन्हें इस धारा के बारे में ज्यादा नहीं पता है। मुझे यही पता था कि sc/st वालों की जमीन और लोग अपने नाम नहीं करा सकते हैं। मैंने कहा, आप लोगों ने शराब पीकर कागज पर अंगूठा लगा दिया। फिर भी मैं जानने की कोशिश कर रहा हूं कि जमीन के मालिक मजदूर कैसे बन गए।''

    यह लिंक ज़रूर पढ़ें।
    http://www.junputh.com/2015/04/blog-post_17.html

    ReplyDelete
    Replies
    1. हाँ वर्ग चार की भूमी कोई अपने नाम नहीं करा सकता है । 229 धारा के अंतर्गत कबजे के कागजात में नाम आदी दुरुस्त किये जाते हैं । इस देश में सबसे ज्यादा सफल शब्द फर्जी है कहीं भी प्रयोग कीजिये सफलता ही सफलता है :)

      Delete
  17. पारंपरिक खेती से जुड़े किसानों की दशा पर आप सभी का यह सम्मिलित निस्वार्थ प्रयास सराहनीय है.
    निश्चित रूप से किसानों की मुश्किलें आसान करने की पुरजोर सरकारी-सामाजिक कोशिशे होनी चाहियें

    ReplyDelete
  18. किसान सदा से ही शोषित रहे हैं। पहले महाजन किसानों को क़र्ज़ देकर उनका खून चूसते थे। उनसे तो सर चो: छोटूराम ने निजात दिलवाई। लेकिन स्वतंत्रता के बाद सरकार ने सदा ही किसानों के साथ बेइंसाफी की है। आज भी एक ओर उसकी फसल कुदरत के रहम पर रहती है , दूसरी ओर कीमत स्वयं न निर्धारित करने से आज भी मिडल मेन ही पैसा कमाते हैं उनके दम पर। शहर के लोग गांव की कठिन जिंदगी के बारे में अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते। लेकिन उनके भाग्य का फैसला ज़रूर करते हैं।
    बहुत बढ़िया बीड़ा उठाया है विवेक जी ने। उनके प्रयास को सलाम। आज के हाई टेक युग में पब्लिसिटी के लिए मीडिया पर निर्भर रहने की ज़रुरत ही नहीं है। ज्योति से ज्योति जलेगी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपके हस्ताक्षर के लिए आभार भाई जी !

      Delete
  19. इस यात्रा और पदयात्रा के लिए आपको भी बधाई और साधुवाद।

    ReplyDelete
  20. आचार्य विवेक जैसे निस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगों की जरुरत है देश में ..बस राजनीति की नज़र न लगे ....
    बहुत अच्छी प्रेरक चिंतनशील प्रस्तुति हेतु आभार!

    ReplyDelete
  21. आप सभी का जितना भी अभिनन्दन किया जाय कम ही है, आज के इस भाग दौड के समय में जब लोग पडोसी के हाल चाल लेने के लिये समय नही निकाल पाते, आप सबने देश की जीवन्त समस्या के कारणों को खोजने का सफल प्रयास किया।, मगर ये सफर आरम्भ है, अभी संघर्षो की लम्बी श्रंखला हमारा इन्तजार कर रही है। आप सभी ने जिस यज्ञ को आरम्भ किया है, मै युवा पीढी से उसमे अपने परिश्रम की आहुति देने का आह्वाहन करती हूँ। आप सभी ने जो वहाँ रह कर महसूस किया और समझा, उसे आधार बना कर, अब हम लोगो को अपनी भूमिका अदा करनी है, कभी एक दिन इन्ही समस्याओं पर विचार करते हुये कुछ पंक्तियां अपने ब्लाग पर लिखी थी।
    कृषक हमारी राह निहारे

    माना कि अकेले पथ पथ पर चलना
    थोडा मुश्किल होता है
    साथ अगर मिल जाये तो
    सफर आसां कुछ होता है
    चिंगारी मै बन जाती हूँ
    आप बस इसमें घी डालो
    सारे समाज की बुराई को
    इसमें आज जला डालो
    गर किसान ही नही रहा तो
    पेट की आग तब भडकेगी
    तेरे मेरे घर की सारी
    बुनियादें तब बिखरेंगी
    कहाँ पे लहरायेगा तब
    झंडा अपनी प्रगति का
    रुक जायेगा थम जयेगा
    पहिया जीवन की गति का
    खोखली हो गयी नींव जो अपनी
    तो कैसे बचेगी प्रतिष्ठा की इमारत
    क्या आने वाली पीढी लिखेगी
    अपनी ही बर्बादी की इबारत
    हाथों में ले कलम की शक्ती
    अपना कल हम आज संवारे
    मुड कर देखे गांव फिर अपना
    कृषक हमारी राह निहारें

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाह , आभार आपका डॉ अपर्णा !

      Delete
  22. अजीब दास्तान है ये! आपके जीवट को भी सलाम!

    ReplyDelete
  23. बहुत सार्थक एवं सराहनीय कार्य...निश्चय ही ऐसे प्रयास साधुवाद के काबिल हैं। कृषि संकट में है और किसान मौत के कगार पर हैं। कृषि और कृषकों को बचाना आज देश को बचाने के समान है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. स्वागत है आपका भाई जी !

      Delete
  24. मेरा कमेन्ट जाने कहाँ चला गया

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपने कमेंट यहाँ नहीं दिया होगा :)

      Delete
  25. किसानो का दर्द बयाँ करती एक बहुत ही संवेदनशील पोस्ट के आपका बहुत बहुत आभार.

    ReplyDelete
  26. सबसे पहले एक सार्थक पहल के लिये बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं!
    उम्मीद है कि यह चिन्तन सचमुच के गरीब किसानों के पक्ष में होगा ना कि बडे नेताओं और अभिनेताओं के लिये जो सस्ती सरकारी जमीन लेने अथवा कृषकों के लिये बनी योजनाओं का लाभ लेने के लिये किसान कहलाना चाहते हों!

    ReplyDelete
  27. बहुत ही मन से आपने लिखा है, बधाई. मै ही पीछे रह गया. आजकल में लिखूंगा

    ReplyDelete
  28. मेरे पिताजी किसान को "शेतीचा राजा" कहते थे ! सच में वो खेती का राजा ही था, उसके छोटे से संसार का वैभव किसी राजा से कम न था ! उसके पास खुद की जमीन थी,बीज थे खाद थी उपरसे वरुण देव की कृपा वृष्टि थी ! धुप,सर्दी,गर्मी, बारिश हर मौसम में अपने परिवार के साथ सूरज निकलने से लेकर सूर्यास्त होने तक अपने कर्मभूमि में कड़ी मेहनत कर अन्न उगाने वाला किसान किसी कर्मयोगी से कम न था ! स्वयं कम में गुजारा कर समस्त संसार को अन्न, वस्त्र देनेवाला किसान और उसके त्याग पूर्ण जीवन की तुलना सच में संसार की किसी भी चीज से नहीं की जा सकती है !
    ग्रामीण किसान का यह जीवन चित्रण आज से तीस चालीस साल पुराना है !
    तब के जीवन में और आज के ग्रामीण किसान के जीवन में बहुत बड़ा फरक आ गया है ! जमींदारों के शोषण से तो वह मुक्त हुआ है लेकिन आज सरकारी तंत्र की चपेट में बुरी तरह से फंस गया है ! महंगे बीज, महंगा खाद, फसलों का उचित दाम न मिल पाना,कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि, कर्ज की गर्त में डूबा हुआ इन सभी कारणों की वजह से उसके सामने सिवाय आत्महत्या के कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा है ! उसका छोटा सा संसार हमारी शहरी दुनिया से अलग थलग पड़ गया है ! इन सब समस्याओं से अलग किसानों की घरेलु समस्याएं भी कुछ कम नहीं है ! पता नहीं उनको अभी कितना समय लगेगा अपने अभिशप्त जीवन से छुटकारा पाने में !
    यवतमाळ पदयात्रा निश्चित एक प्रशंसनीय प्रयास है,विवेक जी सहित आप सभी को बहुत बहुत बधाई ! किसानों की आत्महत्या हमारे देश के उन्नति के लिए हम सब के लिए चिंता का विषय है आज की इस ज्वलंत समस्या पर बहुत बढ़िया आलेख है !



    ReplyDelete
    Replies
    1. बेहतरीन विश्लेषण किया है आपने , आभार आपका !

      Delete
  29. धन्यवाद पोस्ट लिंक करने के लिए ।

    आप सबका सम्मिलित प्रयास न केवल सराहनीय है बल्कि अनुकरणीय भी है।

    पूरे दल को साधुवाद

    ReplyDelete
    Replies
    1. स्वागत है आपका .......

      Delete
  30. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

    ReplyDelete
  31. बहुत ही अच्‍छा काम कर रहे हैं आप। आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं। किसानों के लिए यह समय वाकई बहुत कठिन है। मैं भी इसको लेकर बहुत दुखी हूं। जब भी कोई समाचार में यह देखने को या सुनने में मिलता है कि किसी किसी किसान को मुआवजे के तौर पर दो सौ रूपए की चेक थमाई गई। तो मन गुस्‍से से भर उठता है।

    ReplyDelete
  32. सतीश भाई, आपको और विवेकजी को साधुवाद जो तपती दोपहरी में हाल में पैदल यात्रा कर महाराष्ट्र के यवतमाल में किसानों की दुर्दशा देख कर आए हैं। डिजिटल इंडिया के सब्ज़बाग दिल्ली के एयरकंडीशन्ड कमरों में बैैठ कर कितने भी दिखाएंं जाएं लेकिन जब तक किसान रूपी भारत का कल्याण नहीं होगा, हमारा देश कभी विकसित नहीं बन पाएगा। हां, कॉरपोरेट ज़रूर भारत का ख़ून चूस चूस कर अपनी तिजौरियां भरते जाएंगे। लेकिन उन्हें भी कर्मों का हिसाब तो देना ही पड़ेगा, यहां नहीं तो ऊपर वाले की अदालत में ही सही।

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  33. हर एक व्यक्ति के अन्दर एक गाँव होता है । गाँव कोई स्थान विशेष संज्ञा न होकर एक गुणवाचक शब्द है, जिसके अर्थ विस्तृतता में निहित हैं।.गाँव की मर्यादा क्षितिज के सरीखे होती है, जितने उसके पास आओ उतना ही उसका विस्तार होता जाता है और इस विस्तृतता में रस है, शहद के गंध में भीगी हवायें हैं,जल से भरे बादल हैं, ऊर्जा से भरी धूप है, उमंगयुक्त गीत है,नेह है,सम्बंध है,संरक्षण है और जीवन है।

    सारा गाँव, सारे खेत कियारी, सारे बाग़, सारे ताल, घर, दुआर, गोरू, बछरू, चकरोट, कोलिया, पुलिया, सड़क, सेंवार, बबुराही, बँसवारी, परती, नहरा, नाली, बरहा, नार, मोट, लिजुरी, बरारी, इनारा, खटिया, मचिया, लाठी, डंडा, उपरी, कंडा और बचपन जिसे छोड़कर हम शहर चले आए कि बड़ा आदमी बन जायेंगे, बड़ा आदमी बने कि नही बने ये तो नही पता लेकिन किरायेदार जरुर बन गये । शहर के किरायेदार । रहने खाने का किराया, पानी का किराया, टट्टी-पेशाब का किराया, सडक पर चलने का किराया, किराए के कपड़े, किराए के ओहदे, किराए के रिश्ते, किराये का हँसना, रोना, गाना, बजाना और किराये की जिन्दगी।

    किरायेदारी के अनुबंध की शर्ते हमेशा मालिक और गुलाम का निर्माण करती हैं। चाहे रूप और नाम कुछ भी हों पर प्रकृति घोर सामंती ही है। गाँव से निकली गंगा शहरी सीवर में कब बदल जाती है और सीवर पर किराया कब लग जाता है इस पर शोध करने लायक मेरे पास किराया नही है। फिर भी जिन चीजों से अब तक रूबरू हुआ, महसूस किया, जाना समझा उसके आधार पर एक ही निष्कर्ष पर पहुंचता हूँ कि विरासत को बाज़ार का अजगर निगले जा रहा है। बाज़ार हर किसी को किरायेदार बना देना चाहता है । बाज़ार हर आदमी में शहर बो रहा है । शहर आदमी के अन्दर के गाँव को अपनी कुंडली में लपेट कर उसका दम घोंटने पर उतारू है। यह प्रक्रिया छुतहे रोग की तरह फैलता जा रही, और सारे लोगों को शहरातू रोगी बनाने पर तुली है। बड़े शातिर अंदाज में बाजार और शहर मिलकर गाँव को समेटने के कुचक्र में लगे हैं। पहले बाजारू लासा लगाओ फिर किरायेदार बनाओ और अंत में शहरातू बना कर गाँव से जड़े काट दो। आदमी सूख जाएगा। फिर बाज़ार उसे जलने के लिए शहर की मंडी में सजा देगा।


    समस्या का मूल कारण लासा ही है इसी लासा के चलते सारे कबूतर बहेलिये के जाल में फंस गये थे। इसी लासा के चलते धर्मराज अपनी पत्नी को जुए में हार गये थे यही लासा जाने कितने पतंगों को आग में जला डालती है। यही लासा बाजार है यही बाजार शहर है। लासा खींचती है, समेटती है, मारती है । अगर जीवन को तुरंत के तुरंत समाप्त करना है तो लासा लगा लो लेकिन अगर जीवन का विस्तार करना है तो अपने अन्दर के गाँव को टटोलो उसे झाड़ पोंछ कर साफ़ करो, खर पतवारों की निराई कर उसे गीतों से सींचो फिर देखो जो फसल लहलहाएगी कि आप बाजारू दरिद्र से दानवीर कर्ण बन जायेंगे गाँव का ज़िंदा रहना आपके ज़िंदा होने का सबूत है। क्या आप ज़िंदा हैं?

    ReplyDelete
  34. विवेक जी की मुहिम को हमारा समर्थन है साथ में भागीदारी भी ...

    ReplyDelete
  35. सार्थक पहल- साधुवाद!! ऐसे अनेकों प्रयास हों बस यही दरकार है....

    ReplyDelete
  36. बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य के लिए कदम बढ़ाया है आपने।
    हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं ।

    ReplyDelete
  37. आलेख के हर बिंदु से सहमत। वहां के किसानों के Life Style में क्या ऐसा परिवर्तन दिखा जो उन्हें देश के अन्य कृषकों से अलग पहचान देता हो. विवेक जी को नमन आपको तो हैइहै.

    ReplyDelete
  38. नमस्कार

    हम आनंद ही आनंद और भारत पद यात्रा टीम की तरफ से आप सब का अभिवादन करते हैं, आप सबके सहयोग से यह यात्रा और किसानों के बीच पहुंचकर उनकी समस्याओं को समाज के बीच जन जाग्रति फैलाकर एक संघटित तौर पर कुछ करने के प्रयास में चलती रहेगी।


    आनंद ही आनंद
    भारत पद यात्रा

    ReplyDelete
  39. आपका यह रप्रयास सराहनीय है। काश की सरकार का ध्यान इन अन्नदाताओं की और भी जाये।
    शोणित का पानी कर किसान अन्नों को है पैदा करते,
    वे पालन करते सब जग का , हा! कष्ट अनेकों वे सहते।
    ये बचपन की पढी कविता सहसा याद आ गई।

    ReplyDelete

एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

Related Posts Plugin for Blogger,