Saturday, December 26, 2015

कौन गुस्ताख़ छेड़ता है हमें - सतीश सक्सेना

कौन छिप छिप के देखता है हमें ,
जैसे जनमों से , जानता है हमें !

जिसने आवाज दी, यहाँ आये 
कौन ग़ुस्ताख़ , छेड़ता है हमें ?

वह बे मिसाल हौसला, लेकर  
गहरी मांदों में खोजता है हमें ! 

नासमझ आशिक़ी सलामत है 
इतनी शिद्दत, से चाहता है हमें !

इश्क़ ने दर्द , बेहिसाब  दिया ,
कौन सपनों में , हंसाता है हमें ! 

11 comments:

  1. बहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें
    बहुत प्रभावशाली और सुन्दर रचना....

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  2. वाह वाह....कयामत ढा दी आज तो आपने.

    रामराम

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  3. बहुत खूब..मोदियापा तो छा रहा है आजकल

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  4. क्या बात है वीसा पर मीसा के लिये भी तैयार रहियेगा :)

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  5. बहुत बढ़िया और सटीक

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  6. बहुत सुंदर रचना, खासकर इन्हे कोट करना अच्छा लगा !
    कोई हर वक्त देखता है हमें ,
    जैसे जनमों से जानता है हमें
    वह बे मिसाल हौसला लेकर
    नदी, मांदों में खोजता है हमें !

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  7. सुन्दर कविता है । कल्पना बेमिसाल है ।

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एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

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