मोटी चर्बी चढ़ी बदन पर, दूध भैंस का घी बूरा संग,
भुला दंड बैठक धन आते, भूला ग्रामाचार आदमी !
हाथ पैर को बिना हिलाये, जब से वह धनवान बना,
रोक पसीना, शीतल घर में, करता योगाचार आदमी !
शक्ति गंवायी बैठे रह कर , रोगों से बच पाने की ,
खा ढेरों गोलियां घटाता अपनी रक्षा शक्ति आदमी !
नौकर धनबल शान औ शौकत से शरीर बरबाद किया
पत्थर जैसा बदन गँवाकर करता शल्योपचार आदमी !
दवा आदत सी हो गयी जिंदगी के लिए
ReplyDeleteसटीक विचारणीय और प्रेरक रचना
शानदार गीत। आप बिलकुल अलग सोच रखते हैं और उसी अनुसार अभिव्यक्त भी करते हैं। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteवाह सटीक ।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व दूरसंचार दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ,प्रेरक ,....
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति...
अपनी सेहत अपने ही हाथ में है..सुंदर संदेश देती कविता..
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/05/20.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत महत्त्वपूर्ण संदेश है इस कविता में । विज्ञान ने इतना सुख सुविधापूर्ण बना दिया है कुछ इंसानों का जीवन कि श्रमसाध्य कामों की आदत ही नहीं रहती उन्हें... आभार आदरणीय !
ReplyDeleteखुद उठाना है इंसान को और खुद ही पार पाना है इस लाचारी, बिमारी परेशानी से ...
ReplyDeleteसुन्दर अर्ह्पूर्ण रचना ...
हाथ पैर को बिना हिलाये, कुटिल बुद्धि धनवान हुई
ReplyDeleteरोक पसीना, शीतल घर में , भूला ग्रामाचार आदमी !
वाह ! बहुत खूब पंक्तियाँ आदरणीय आभार। "एकलव्य"
आधुनिक जीवन का सत्य दर्शाती रचना बेहतरीन
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