Wednesday, July 17, 2013

मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी -सतीश सक्सेना

मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !  
हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !

हैरान हुए, हर बार मिली,जब भी देखी, गागर खाली ! 
उसने ही,छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी  की थी !

लगता है तुम्हारे आने पर , हर  घर में दीवाली  होगी !
कलरात,तुम्हारी गलियों में,लोगों ने खरीदारी की थी !

जाने  अनजाने, वे  भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं, उसने तो, वफादारी की थी !

अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी  की थी !



70 comments:

  1. अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
    कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !

    समय के बलवान होने की सच्चाई बयान करता शेर. बेहतरीन ग़ज़ल बनी है.

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  2. मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
    हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !

    ..वाह! क्या बात है!!!

    अच्छी ग़ज़ल कही भले ही, सब कुछ बारी-बारी की थी। :)

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  3. जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
    हमने ही , नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !

    वाह ... बहुत खूबसूरत गज़ल

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  4. अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
    कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !

    उन दिनों नशे,में इतराते ,हम शहनशाह कहलाते थे !
    जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !

    बहुत खूब सतीश जी ,दुनियां का तेवर समय के साथ ऐसा ही बदलता है
    latest post सुख -दुःख

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  5. उन दिनों नशे,में इतराते ,हम शहनशाह कहलाते थे !
    जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !

    बेहद खुबसूरत अंदाज़ दिल की बातों को बयान करने का गीतों के माध्यम से गजब

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  6. बढ़िया है आदरणीय-

    पल्लेदारी खुब करी, बोरा ढोया ढेर ।

    शब्द-अर्थ बोरा किया, रहा आज तक हेर ।

    रहा आज तक हेर, फेर नहिं अब तक समझा।

    छ जाए अंधेर, काफिया मिसरा उलझा ।

    उड़ा रहे उस्ताद, बना हुक्के से छल्ले ।

    पाते दिन भर दाद, इधर ना पड़ती पल्ले ॥

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    1. हा...हा...हा...हा...हा...हा...

      हंसा दिया यार रविकर उस्ताद ने , सफल हो गयीं पल्लेदारी :)
      खूब हँसे बार बार हँसे ...

      आभार रविकर भाई, इस सम्मान के लिए और आपके आगमन के लिए !

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    2. @ पाते दिन भर दाद इधर न पड़ती पल्ले

      काहे बनाओ मूर्ख जमाओ, खूबै सिक्का
      ब्लॉग जगत कब से मानै रविकर को कक्का

      हा..हा..हा..हा... जय हो कविवर रविकर !!

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  7. बेहतरीन ....बहुत ही बढ़िया पंक्तियाँ

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  8. आभार भाई जी ..

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  9. वाह बेहद उम्दा क्या खूब कायदे का रदीफ़ मीटर और काफिया :)

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  10. वाह, बहुत खूबसूरत, सर जी!

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  11. वाह बहुत ही बढ़िया...

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  12. बहुत सुंदर गजल, ढेरो शुभकामनाये

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  13. बहुत खुबसूरत ग़ज़ल औरअभिव्यक्ति .....!!

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  14. सुंदर प्रस्तुति,आपकी यह रचना कल गुरुवार (18-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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    Replies
    1. आभार राजेंद्र भाई आपका ..

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  15. अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
    कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !

    बहुत खूबसूरत गज़ल

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  16. वाह वाह , ग़ज़ब !
    यह हुनर अब तक कहाँ छुपा रखा था भाई ?

    बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है।
    मक्ता कुछ इस तरह शुद्ध हो जायेगा --

    तब नशे,में इतराते,'सतीश' शहनशाह कहलाते थे !
    जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !

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    1. चलिए वह भी पूरा किये देते हैं ..
      सुझाव के लिए आभार !

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  17. सतीश भैया ने अभी ओर भी हुनर छिपे हुए हैं जो बाहर आने बाकि है :)

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    1. हुनर ही तो नहीं है अनु ..

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  18. अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
    कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !..

    बहुत खूब ... येअही तो समय की चाल का असर है ... समय बीत जाता है कोई पहचानता नहीं ... हर शेर लाजवाब है सतीश जी ...

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  19. अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
    कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !

    ला-जवाब!!

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  20. मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया को मौजूद रखते हुये सशक्त गजल कही है आपने, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  21. हैरान हुए, हर बार मिली, जब भी देखी , गागर खाली !
    उसने ही, छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !

    बहुत सुंदर
    बहुत सुंदर

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  22. उम्दा ग़ज़ल ... सतीश जी इस नयी विधा की पहली रचना के लिए बहुत बहुत बधाई .

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  23. बहुत उम्दा गजल..शब्दों का चयन और लय काबिले तारीफ है..

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  24. कैसे बनती ग़ज़ल, न अपनी मन मर्जी के माफिक ,
    जाने कितने धंटों आपने लफ़्ज़ों से मगजमारी की थी :)

    अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
    कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !

    सबसे जोरदार ये वाला लगा .. लिखते रहिये ....

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  25. वाह!जी वाह! गज़ब किया जो भी किया ...आज तो नये रंग में है ..सतीश भाई जी :-))
    खुश रहें! मुबारक हो ..

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  26. बहुत सुंदर और लाजबाब गजल ,,,वाह !!! वाह, क्या बात है,सतीश जी

    RECENT POST : अभी भी आशा है,

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  27. गहन भावनाएं... सुंदर गजल ...!!

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  28. हैरान हुए, हर बार मिली, जब भी देखी , गागर खाली !
    उसने ही, छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !
    बहुत बढ़िया ! और ऊपर से ये चौकीदार अपने को दुनिया का सबसे इमानदार चौकीदार भी बताते नहीं थकता ! :)

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  29. धमाकेदार, पढ़ने में आनन्द आ गया।

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  30. आज आपको इस इश्टाइल में पहली बार पढ़ रही हूँ। बढिया।

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  31. जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
    हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !

    वाह क्या कहने लाजवाब
    साभार!

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  32. जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
    हमने ही , नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !

    वाह ... बहुत खूबसूरत गज़ल सक्सेना साहब

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  33. काफी अच्छी लगी आपकी गजल । गहरी और खूबसूरत

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  34. जब आँखें खुल जाय तभी सवेरा

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  35. जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
    हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
    बहुत सुन्दर गजल है ...लेकिन मुझे मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया
    इन सब बारीकियों की कोई समझ नहीं है लेकिन गजल पढ़ने में सुन्दर लगती है :)

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  36. वाह! बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आप ने.
    अच्छे ख्याल हैं.

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  37. क्या बात है सतीश भाई नै परवाज़ दी है गजल को नए अंदाज़ दिए हैं बयानी दी है .


    तब नशे में इतराते सतीश,और शहंशाह कहलाते थे !
    जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !

    हैरान हुए, हर बार मिली, जब भी देखी , गागर खाली !
    उसने ही, छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !

    बहुत खूब लिखा भाई सतीश सक्सेना साहब ए आज़म

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  38. बहुत सुंदर और लाजबाब गजल ,,,वाह !!!

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  39. जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
    हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
    सतीश जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल गुस्ताखी के साथ कहना कहना चाहूँगा
    बेखुदी में मै ही समझ न पाया तेरी वफ़ा को ,
    अपनी ही नजरों से गिर गया हूँ इस जहन्नुम में

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  40. जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
    हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
    सतीश जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल गुस्ताखी के साथ कहना कहना चाहूँगा
    बेखुदी में मै ही समझ न पाया तेरी वफ़ा को ,
    अपनी ही नजरों से गिर गया हूँ इस जहन्नुम में

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  41. क्या बात है..

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  42. बेहद शानदार गजल सतीश जी,मन को छूने वाली आपका आभार।

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  43. मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
    हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !

    वाह...
    लाजवाब ग़ज़ल...

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  44. अच्छी प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  45. बढ़िया ग़ज़ल... खूबसूरत अंदाज़-ए-बयाँ....!
    बहुत खूब!:)

    ~सादर!!!

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  46. वाह सतीश जी ..बहोत खूब

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  47. बहुत शानदार ग़ज़ल... दाद स्वीकारें.

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  48. सुन्दर बिम्ब भाव और व्यंजना मतले से ही गजल ऊंची उड़ान ले लेती है .ओम शान्ति

    मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
    हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !

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  49. क्या बेबाक लिखा है ... बहुत खूब ...

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  50. सबलोग बड़े भौचक्के थे,ऐसा तो कभी, देखा न सुना !
    उस रोज़,नशे के सागर में,हमने ही समझदारी की थी !

    क्या बात है सर जी नए तेवर नया अंदाज़ है क़ोइ बयानी सी बयानी है

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  51. वाह वाह क्या बात है बहोत खुब वाह वाह

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  52. तब नशे में इतराते सतीश और शहंशाह कहलाते थे !
    जिनको सर माथे, रखना था, उनसे थानेदारी की थी !

    अद्भुत प्रस्तुति...

    स्नील शेखर


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  53. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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  54. Apke shabdoon par puri pakad aur samjhane ka hunar hai :] Bahut Khoob likha hai :]

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  55. SHABDO CHAYAN LAJWAB HAI,SUNDAR GHAZAL

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- सतीश सक्सेना

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