क्या खोया , क्या पाया मैंने ,
परम पिता का वंदन करते !
वृन्दाबन से, मन मंदिर में, मुझको भी घनश्याम चाहिए !
परम पिता का वंदन करते !
वृन्दाबन से, मन मंदिर में, मुझको भी घनश्याम चाहिए !
बचपन में ही छिने खिलौने
और छिनी माता की गोदी ,
निपट अकेले शिशु, के आंसू
ढूंढ रहे, बचपन से गोदी !
बिना किसी की उंगली पकडे ,
जैसे तैसे चलना सीखा !
ह्रदय विदारक उन यादों से, मुझको भी अब मुक्ति चाहिए !
ढूंढ रहे, बचपन से गोदी !
बिना किसी की उंगली पकडे ,
जैसे तैसे चलना सीखा !
ह्रदय विदारक उन यादों से, मुझको भी अब मुक्ति चाहिए !
रात बिताई , जगते जगते
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,
जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी गोपाल चाहिए !
बरसों बीते ,चलते चलते !
भूखे प्यासे , दर्द छिपाते !
तुम सबको मज़बूत बनाते
मैं हूँ ना, अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको
अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में, मुझको भी एक हाथ चाहिए !
जब जब थक कर चूर हुए थे ,
खुद ही झाड़ बिछौना सोये
सारे दिन, कट गए भागते ,
तुमको गुरुकुल में पहुंचाए
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !
सोचो मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक नया अध्याय चाहिए !
सारा जीवन कटा भागते
तुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से,
मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
( इस रचना पर अली सय्यद साहब द्वारा दिए गए कमेन्ट के जरिये , मेरे गीत पर पाठकों के १०००० कमेन्ट पूरे हुए ! आभार आप सबका ! )
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,
जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी गोपाल चाहिए !
बरसों बीते ,चलते चलते !
भूखे प्यासे , दर्द छिपाते !
तुम सबको मज़बूत बनाते
मैं हूँ ना, अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको
अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में, मुझको भी एक हाथ चाहिए !
जब जब थक कर चूर हुए थे ,
खुद ही झाड़ बिछौना सोये
सारे दिन, कट गए भागते ,
तुमको गुरुकुल में पहुंचाए
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !
सोचो मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक नया अध्याय चाहिए !
सारा जीवन कटा भागते
तुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से,
मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
( इस रचना पर अली सय्यद साहब द्वारा दिए गए कमेन्ट के जरिये , मेरे गीत पर पाठकों के १०००० कमेन्ट पूरे हुए ! आभार आप सबका ! )
भाई जी ! निशब्द !
ReplyDeleteसच ! अब ...पापा को भी ....प्यार चाहिए !!!
शुभकामनाएँ!
सारा जीवन कटा भागते
ReplyDeleteतुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कुछ वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
jai baba banaras....
वाह सतीश जी...
ReplyDeleteबड़े दिनों बाद कलम चली मगर दिल के गहरे उतर गयी...
बहुत बहुत प्यारी भावपूर्ण कविता.
सादर.
पूज्य पिताजी हेतु समर्पित अंतर के हैं भाव आपके'
ReplyDeleteउनकी नसीहतें,उनकी चिंता,याद हमेशा आती हैं.
उनकी निंदिया रोज़ चुराई ,उसकी क्या भरपाई होगी,
उनके कामों को करके ही ,मुक्ति आपको पानी होगी !
.....आपने अपने बहाने हर किसी को उसके पिता की याद दिला दी !
मैं कुछ कह पाने की स्तिथि में नहीं हूँ सतीश जी .. आपकी कविता सिर्फ कविता नही , एक कटु सत्य है .. शब्द नहीं है कि कुछ लिखू..
ReplyDeleteसुंदर चिंतन काव्य है सतीश भाई
ReplyDeleteआभार
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
निःशब्द कर देने वाली पंक्तियाँ..
behad umda sir...katu stya ko samete huye...
ReplyDelete"आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !"
पिता की पीडा का सुन्दर चित्रण!
वाह!
सारा जीवन कटा भागते
ReplyDeleteतुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए
....बुजुर्गों के दिल का दर्द बहुत गहनता से चित्रित किया है..एक उत्कृष्ट सशक्त प्रस्तुति...आपकी रचना आँखें नम कर गयी...आभार
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति...शानदार!!!
ReplyDeleteबड़े भाई!
ReplyDeleteकमेन्ट करना एक औपचारिकता है इसलिए कर रहा हूँ.. वरना इस रचना पर कोइ भी टिप्पणी नहीं की जा सकती है.. इसे ह्रदय से अनुभव कर अंतर्मन में स्थापित किया जा सकता है!!
साधुवाद!
मार्मिक किन्तु सत्य है.........सुन्दर शब्दों में वर्णित किया है आपने |
ReplyDeleteजब जब थक कर चूर हुए थे ,
ReplyDeleteखुद ही झाड बिछौना सोये
सारे दिन, कट गए भागते
तुमको गुरुकुल में पंहुचाते
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !सोंचों मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक नया अध्याय चाहिए ......sabdon ki kami hai mere pass tarif me ....bahut sundar aur usase bhi sundar
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
सतीश जी ,
आपने कटु सत्य को लिख दिया है ..बहुत संवेदनशील रचना .. सीधे मन में उतरती हुई .
Adareeya satishji,
ReplyDeletekoti koti pranaam!
"पापा को भी प्यार चाहिए "
Bas ek line hi .... dil ko chuugayi !
aapki kavita ko कमेंट्स dene yogya nahi manta hun. Maaf kegiyega.
Aapka Follower.
सतीश जी , बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक के सफ़र की सारी व्यथा कह डाली .
ReplyDeleteअति संवेधानशील रचना .
जिनको सारी उम्र पालते रहें , वही साथ छोड़ जाएँ जब उनकी ज़रुरत सबसे ज्यादा होती है --यह संसार की सबसे बड़ी विडंबना है .
मार्मिक चित्रण!!
ReplyDeleteबेहद कोमल वेदना
बहुत मार्मिक चित्रण !
ReplyDeleteकहने के लिये कुछ नहीं रहता ,बस एक गहरी अनुभूति मन को छा लेती है .
बहुत तन्मय-क्षणों में लिखा होगा आपने, बधाई !
आपकी काव्यमय भाव लहरी हृदय को झंकृत कर देती है....
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण ....
सलूजा जी सही कहा कि
निःशब्द कर दिया आपकी प्रस्तुति ने....
बरसों बीते ,चलते चलते !
ReplyDeleteभूखे प्यासे , दर्द छिपाते !
तुम सबको मज़बूत बनाते
"मैं हूँ ना "अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में,मुझको भी एक हाथ चाहिए !
बहुत अच्छी लगी यह पंक्तिया !
सुंदर रचना बधाई !
गहरी संवेदनाएं उकेरते हैं आपके गीत.
ReplyDeleteवाह ...आपने तो निःशब्द कर दिया ,महसूस ही किया जा सकता है .
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति ..
क्या लिखूं कुछ समझ में नहीं आ रहा... बस नम आखों के साथ वापस जा रहा हूँ... :(
ReplyDeleteसारा जीवन कटा भागते
ReplyDeleteतुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
...is rachna ke madhyam se aapne jaane kitne ki pitaon ke ankahe dard ko bayan kar diya...
.. ...
samvedansheel aur saarthak prastuti ke liye aabhar..
navvarsh kee aapko spariwar haardik shubhkamnayen..
आज भावुक कर गए आप..
ReplyDeleteसारा जीवन कटा भागते
ReplyDeleteतुमको नर्म बिछौना लाते
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते थे , सिरहाने
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
dukhad vartmaan
आज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
....मार्मिक गीत। इन पंक्तियों का दर्द तो छीलता है अंतर्मन को। पुत्र के कटु वचन पिता को सबसे ज्यादा आघात पहुंचाते हैं। अपने भोजपुरी गीत में मैने ऐसा ही कुछ महसूस किया था। ये पंक्तियाँ याद आ गईं..
कल कह देहलन बड़कू हमसे, का देहला तू हमका ?
खाली आपन सुख की खातिर, पइदा कइला तू हमका !
सुन के भी ई माहुर बतिया, काहे अटकल प्रान बा!
उठल डंड़ौकी, चलल हौ बुढ़वा, दिल में बड़ा मलाल बा।
जब यह सब पढ़के बच्चो के भी आंशु आ जाते हैं तो इसका मतलब बच्चे लायक हैं.
ReplyDeleteबहूत सच्च लिखा सतीश भाई - पापा की याद आया गयी.
शुभकामनाएँ!
love you a lot
Did you see alternate transltion ::
ReplyDelete"DAD ALSO SHOULD LOVE"
gr8
ये अपने बड़ों की उपेक्षा करने वाले भूल क्यों जाते हें कि इस स्थिति में उन्हें खुद भी आना है. हमारी आने वाली पीढ़ी वही सीखती है जो हम उनको सिखाते हें और हर बात हर पकड़ कर नहीं सिखाई जाती है. वे खुद ग्रहण कर लेते हें और जब हमारी बात हमारे सामने ही दुहराने लगते हें तो अपनी गलती का अहसास होता है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. इसलिए वक़्त से पहले ही संभाल जन सही है.
ReplyDeleteरात बिताई , जगते जगते
ReplyDeleteबिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी वसुदेव चाहिए !
आप के इस गीत में बुज़ुर्गों की व्यथा का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया गया है
मन को छूता हुआ गीत
इसमें कुछ ऐसी बाते हैं जो हमने भी निजी ज़िन्दगी में महसूस की है। हमें और हमारे लिए नएम बिछौना लगाते, खुशियां और आराम जुटाते ये लोग खुद के लिए प्यार की आस जोहते ही रह गए।
ReplyDeleteएक मन को भिंगो देने वाली रचना।
वाह सतीश जी बेहतरीन शब्द दिए है अंतरध्वनि को. अश्रुपूरित कर दिया सभी घायल हृदयों को .आपकी लेखनी को सलाम.
ReplyDeleteमन भिगोती रचना..
ReplyDeleteआप की रचनाएँ इतनी पीड़ा क्यों देती हैं?
ReplyDeleteअंदर कहीं गहरे , वंचित होने का अहसास जगा रही है आपकी कविता ! अपनेपन के कड़वे शब्दों से आहत बड़प्पन ! नये तेवर ,सोग वाले तेवर , पीड़ा की गहन अनुभूति वाले तेवर ,अपेक्षाओं के अधूरा रह जाने वाले तेवर ! जीवन यथार्थ को कुरेदती , अभिव्यक्त करती हुई कविता !
ReplyDeleteदुखी हुआ हूं कहूं तो कविता को सफल जानिये !
गहरी संवेदनाओं से भरी.... बहुत ही मार्मिक रचना
ReplyDeletegehre bhavo se saji rachna...........
ReplyDeleteमेरी भी शुभकामनायेंस्वीकार करें।
ReplyDeletesampoorn jeewan vratant aur jiwan sandhya me nipat akelapan yahi to kahta hai.
ReplyDeletemarmik chitran.
कोमल भावों की प्रौढ़ अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबिन अपनों के जीना कैसा ?waah bahut achchi abhivaykti.satish jee.
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण, गहरी संवेदनाओं को समेटे हुए एक बहुत ही बेहतरीन रचना है!
ReplyDeleteआज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
बहुत ही कोमल भावों को पिरोया है आपने तो ..
बहुत सुन्दर
..........
ReplyDelete..........
pranam.
aapki is rachna ne nihshabd kar diya.
ReplyDeletebahut hi khoobsurat bhaav samete apni dil par chchaap chhodti rachna.nav varsh ki shubhkamnaayen.
बुजुर्गों के प्रति हमारे प्यार और स्नेह में कभी कमी न आने पाए इस अहसास की याद दिलाती बहुत मार्मिक कविता! आभार!
ReplyDeleteआज तुम्हारे कटु वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
बहुत सही कहा है ..आभार इस प्रस्तुति के लिए ।
जानबूझकर या अनजाने ही संतान के कटु वाक्य भीतर तक घायल कर देते हैं !
ReplyDeleteमार्मिक किन्तु सत्य !
भावाभिभूत करने वाली अभिव्यक्ति
ReplyDeletesamvednaon se bhara komal bhaw jhalak raha hai..:)
ReplyDeleteसतीशजी आप ब्लॉग जगत के दिलीप कुमार बनते जा रहे हैं| दर्द की इंतनी भाव पूर्ण अभिव्यक्ति हिन्दीजगत मैं मैंने अभी तक नहीं पढ़ी है...
ReplyDeleteढ़ेरों शुभकामनायें!!!
जब युवापीढी पश्चिम का अनुसरण कर रही है तब तो प्रत्येक माता-पिता को सबकुछ भूल जाना चाहिए। अपने ही साथी चयन करने में जुट जाना चाहिए। बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
क्या कहूँ ?
सेंटी कर दिया आप ने ...
...
संबंधों के उद्गाता को, संबंधी-अभिराम चाहिये।
ReplyDeleteजीवन की शाम में बस शान से शांत होकर जिएं॥
ReplyDeleteपहली बार फोटो को ध्यान से देखा नहीं था.. आज जब चैतन्य ने फोन पर बताया तब पहचान पाया कि ये तो अपने ज्ञानी जी हैं..
ReplyDeleteभाई साहब अपब तो हमारे बैंक से दोहरा रिश्ता हो गया आपका..
एक बार फिर से बधाई!!
क्या कहूँ कुछ समझ नहीं आ रहा है,
ReplyDeleteआखिर आजीवन त्याग के बाद क्यों उठते हैं ये सवाल क्यों???
आँखें भिगो गए भाव...सादर...
पापा दिल कि बात नहीं कहते...पर पापा बनने के बाद हम महसूस कर सकते हैं...पापा का दिल...वाकई पापा भी प्यार चाहते हैं...
ReplyDeleteबहुत मार्मिक ...सच्ची है आभार
ReplyDeleteekdam chahiye......
ReplyDeleteकटु सत्य बहुत बढिया प्रस्तुति,मन की भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति ......
ReplyDeleteWELCOME to--जिन्दगीं--
कविता के रूप में यह कितने बुजुर्गों का यथार्थ लिख दिया आपने । दिल को छू लेने वाली रचना ।
ReplyDeleteभाई बधायी सहस्रवीं टिप्पणी के लिए....
ReplyDeleteरचना भी बहुत भावपूर्ण है
बहुत प्यारी भावपूर्ण कविता.
ReplyDeleteपिता की पीडा का सुन्दर चित्रण
बधाई.
पापा को भी प्यार चाहिए.....कहाँ सोच पाती है अब की पीढ़ी ये ,काश कुछ लोगों की संवेदनाये तो जाग्रत हो आप की इस रचना से......अच्छी रचना ....बधाई स्वीकारें........
ReplyDeleteभाई जी ... पापा को खोने का दर्द ...हम भी बरसो से झेल रहे हैं और जीवन की इस कमी को कोई पूरा कर पायेगा ...(ऐसा कभी नहीं लगा ).....आपकी लेखनी का दर्द ...अपना सा लगता है हर बार ....बार बार ...आभार
ReplyDeleteमन के तारों को झंकृत करने में सक्षम....
ReplyDelete------
मुई दिल्ली की सर्दी..
... बुशरा अलवेरा की जुबानी।
तेरे बिन मुझको चलने का अभ्यास चाहिए!
ReplyDeleteयही अंतिम सत्य है
निशब्द हूँ. इस रचना पर कुछ कहने लायक शब्द सजोना सबके बस की बात नहीं.
ReplyDeleteआपकी रचनाएँ समाज और हर व्यथित ह्रदय के सत्य को उजागर करती हैं.
मार्मिक और प्रेरक रचना।
ReplyDeleteआज तुम्हारे कुछ वचनों से, मन कुछ डांवाडोल हुआ है !
ReplyDeleteअब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !
भावपूर्ण अभिव्यक्ति
vikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....
क्या कहें...महसूस कर पाये...बस्स!!!
ReplyDeletebahut satik......aabhar
ReplyDeletebahut satik......aabhar
ReplyDelete"रात बिताई , जगते जगते
ReplyDeleteबिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,जब जब भी, भर आये आंसू"
बहुत मार्मिक पर अत्यन्त सशक्त भावाभिव्यक्ति।
रात बिताई , जगते जगते
ReplyDeleteबिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी वसुदेव चाहिए !
निस्शब्द कर दिया इस कविता ने भाव सागर की सघनता इतनी की पढ़ते पढ़ते मन बह जाए सुध न पाए .
ReplyDeletesandhya prahar ke manobhav ko darshati achhi kavita...
ReplyDeleteपिता होने के भाव को
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली शब्दों में काव्य रूप दिया है भाई
वाह !
पढ़ते-पढ़ते, संवेदनाएं, मन में कहीं गहरे उतर रही हैं
गीत की बंदिश, शिल्प, शैली
सब लाजवाब हैं .
बधाई स्वीकारें .
बहुत सुंदर रचना बधाई !
ReplyDeleteबहुत अच्छी सुंदर प्रस्तुति,बढ़िया लाजबाब अभिव्यक्ति रचना अच्छी लगी.....
ReplyDeletenew post--काव्यान्जलि : हमदर्द.....
फालोवर बन गया हूँ आपभी फालो करे मुझे खुशी होगी,
बुजुर्गों की पीड़ा को स्वर दिया है, सभी को आत्म-मंथन करना चाहिये.
ReplyDeleteबेहतरीन.
अत्यन्त सशक्त भावाभिव्यक्ति। मकर संक्रांति की शुभकामनाएँ|
ReplyDeleteनिःशब्द कर दिया...आपने सतीश जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत है.
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा.
bhai bahut sundar prastuti .....abhar.
ReplyDeleteअच्छे संस्कारों पर जोर देती आपकी मार्मिक रचनायें बहुत अपीलिंग होती हैं, थोड़ा सा भी सबक सीख सकें तो पढ़ना सार्थक हो जाये।
ReplyDeleteअफ़सोस यह भी है संजय भाई कि लोगों को पढने की आदत कम ही हैं :-)
Deleteलिखा आपने भोगा सबने सबको एक एक व्यास चाहिए ,जीवन को एक आस चाहिए ...संध्या में अवकाश चाहिए .....दस हजारी क्लब से आगे जाइए ...
ReplyDeleteजीवन की सच्चाई से आमना-सामना होने पर सच में जीवन-संध्या ऐसे विचारों से घिरने लगती है. बहुत सुंदर तरीके से भाव उभर कर आए हैं सतीश जी.
ReplyDeleteआपकी हर रचना पारिवारिक स्पर्श की आंच लिए होती है .आप ब्लॉग पार आये अच्छा लगा .शुक्रिया .
ReplyDeleteaap bahut achha likhte hain...lekin aapke vichar aapki kavitaaaon se kahin jyada achhe lage mujhe.....sach me aap bahut achche insaan hain..uske baad ek achhe samvednsil kavi hain.
ReplyDeleteआपकी भावपूर्ण,मार्मिक और हृदयस्पर्शी प्रस्तुति पर
ReplyDeleteकहने के लिए शब्द नही हैं मेरे पास.बस चंद आँसू
हैं,स्वीकार कीजियेगा.
आभारी हूँ राकेश भाई ....
Deleteआप संवेदनशील हैं ...
आपने बड़ों का दर्द महसूस कर लिया , कामना है कि कम से कम माता पिता इस दर्द को झेलें !
शुभकामनायें !
आपको टिप्पणियों का दस हजारी बनने के लिए बहुत बहुत बधाई.
ReplyDeleteआपका लेखन इतना सुन्दर और प्रभावशाली है कि शीघ्र ही आप तीस हजारी
हो जाएँ तो कोई अचरज नही.
अत्यंत मार्मिक,ह्दय स्पर्शी रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति .। मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
ReplyDeletetouchy and beautiful :)
ReplyDeleteबहुत सार्थक प्रस्तुति, सुंदर रचना,बेहतरीन पोस्ट....
ReplyDeletenew post...वाह रे मंहगाई...
बहुत सुंदर प्रस्तुति .
ReplyDeleteनया हिंदी ब्लॉग
http://hindidunia.wordpress.com/
केवल इसे न कविता मानूँ,
ReplyDeleteयह अकाट्य इक कड़वा सच है।
कृपया इसे भी पढ़े
क्या यही गणतंत्र है
बरसों बीते ,चलते चलते !
ReplyDeleteभूखे प्यासे , दर्द छिपाते !
तुम सबको मजबूत बनाते
‘मैं हूँ ना ‘अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में,मुझको भी एक हाथ चाहिए।
मर्मस्पर्शी गीत।
पिता की व्यथा शब्दों में साकार हो गई है।
आपकी संवेदनशीलता स्तुत्य है।
marmsparshee abhivykti .
ReplyDeletekaash insaan mahaj vartmaan me jeena seekh pataa .
marmsparshee abhivykti .
ReplyDeleteमन की बात मन तक पहुँचा दे,
ReplyDeleteवही तो कविता होती है और
कविता लिख कर ही कवि धन्य
हो जाता है। आप अपने प्रयोजन
में सफल रहे हैं।
धन्यवाद।
आनन्द विश्वास
सुन्दर भावासिक्त उदगार....
ReplyDeleteहृदय को छू जाने वाली रचना है। जीवन का सच बयां करती रचना है। बेहतरीन कलम से निकली अद्भुत कविता है।
ReplyDeleteइस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" पर पधार कर मेरे प्रयास को भी अपने स्नेह से अभिसिंचित करें, आभारी होऊंगा.
बचपन में ही छिने खिलौने
ReplyDeleteऔर छिनी माता की लोरी ,
निपट अकेले शिशु, के आंसू
की,किस को परवाह रही थी !
बिना किसी की उंगली पकडे , जैसे तैसे चलना सीखा !
ह्रदयविदारक उन यादों से,मुझको भी अब मुक्ति चाहिए !
रात बिताई , जगते जगते
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद आ गयी,
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी वसुदेव चाहिए !
आंसू आ गए पढ़ते ही.... लगा मानो अपनी ही गाथा सुन रही हूँ.... अभी तो पैरों में जान है.... युवा हूँ....
समय का पता नहीं.... किस क्षण बदल जाये...
बहुत भावपूर्ण रचना....
तब तो लेखन सफल हो गया मीनाक्षी जी...
Deleteआपको शुभकामनायें !
koti koti dhanyebaad sri hari ji aapke kavita sayad soye hue logo ko jaga de jai jai sri hari
ReplyDeletekoti koti dhanyebaad sri hari ji aapke kavita sayad soye hue logo ko jaga de jai jai sri hari
ReplyDeletesundar prastuti,"gar jina hai to pyar chahiye,mammi ko bhi papa ko bhi,hamko bhi ayr tumko bhi,......
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना, सचमुच मन डांवाडोल हो गया. बहुत - बहुत आभार
ReplyDeleteभावों का समंदर - सादर
ReplyDelete