Friday, May 15, 2020

सदियों बादल थके बरसते ,सागर का जल खारा क्यों है -सतीश सक्सेना

अनुत्तरित हैं प्रश्न तुम्हारे
कैसे तुमसे नजर मिलाऊं
असहज कष्ट उठाए तुमने

कैसे हंसकर उन्हें भुलाऊं
युगों युगों की पीड़ा लेेेकर
पूछ रही है नजर तुम्हारी
मैं तो अबला रही शुरू से
तुम सबने, चूड़ी पहनाईं !
हर दरवाजा जीतने वाला , इस दरवाजे हारा क्यों है।

बचपन तेरी गोद में बीता
कितनी जल्दी विदा हो गई !
मेरा घर क्यों बना मायका,
कैसे घर से जुदा हो गई !
अम्मा बाबा खुश क्यों हैं ?
ये आंसू भर के नजरें पूछें !
आज विदाई है, आँचल से
कैसे दुनियाँ को समझाए !
हिचकी ले ले रोये लाड़ली, उसको ये घर प्यारा क्यों है ?

जिस हक़ से अपने घर रहती
जिस हक़ से लड़ती थी सबसे
जिस दिन से इस घर में आयी
उस हक़ से, वंचित हूँ तब से
भाई बहिन बुआ और रिश्ते 
माँ और पिता यहाँ भी हैं पर
नेह, दुलार, प्यार इस घर में
मृग मरीचिका सा बन जाये !
सदियों बादल थके बरसते ,सागर का जल खारा क्यों है !


जबसे आयी हूँ इस घर में
प्रश्न चिन्ह ही पाए सबसे !
मधुर भाव,विश्वास,आसरा
रोज सवेरे, बिखरे पाए !
कबतक धैर्य सहारा देता
जलते सपनों के जंगल में
किसे मिला,अधिकार जो
मेरे आंसू को नीलाम कराए
अपनापन बह गया फूट, अब उनका चेहरा काला क्यों है !

20 comments:

  1. वाह ... हर बार की तरह बहुत ही कमाल की रचना ...

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    1. स्वागत एवं आभार नासवा जी

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  2. वाह हमेशा की तरह लाजवाब अभिव्यक्ति।

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    1. स्वागत है प्रोफ़ेसर

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  3. बहुत सुन्दर

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  4. लाजवाब अभिव्यक्ति अंतस को स्पर्शी करती
    सादर

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    1. स्वागत एवं आभार आपका

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  5. बहुत सुंदर,हर चीज़ प्रश्नवाची है लेकिन जीवन उत्तर के लिए रुकता नहीं
    रुकना भी नहीं चाहिए !

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  6. बहुत सुंदर।

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    1. स्वागत नीलेश जी ...

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  7. अबला तेरी यही कहानी .. मर्म तक भेदती हुई ।

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  8. वाह लाजवाब सृजन.

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    1. शुक्रिया अनीता जी

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  9. आदरणीय सतीश जी , नारी जीवन के बढ़ते मर्मान्तक प्रश्नों को कितनी सहजता और सरलता से शब्दांकित कर दिया आपने | निशब्द हूँ ! अत्यंत उत्कृष्ट रचना -हमेशा की तरह | हर नारी इन्ही प्रश्नों से दो चार होती हुई , जीवन भर इन प्रश्नों के हल तलाशती रहती है | जिस घर में जन्मी वो भी पराया और जिस घर में आई वो भी बेगाना |

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    1. स्वागत एवं आभार

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- सतीश सक्सेना

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