Wednesday, December 24, 2014

सनम सुलाने तुम्हें, हमारे गीत ढूंढते आएंगे - सतीश सक्सेना

आदरणीय ध्रुव गुप्त की दो पंक्तियाँ इस रचना के लिए प्रेरणा बनी हैं , उनको प्रणाम करते हुए ……  

यदि रूठोगे कहीं तुम्हें हम , रोज मनाने आएंगे,
चाहा सिर्फ तुम्हीं को हमने, ये बतलाने आएंगे !

भूल न जाना मुझको वरना, हौले हौले रातों के 
अनचाहे सपनों में, अक्सर खूब सताने आएंगे !

सुना, चाँदनी रातों में तुम भूखे ही सो जाते हो 
थाली मीठी यादों की ले संग खिलाने आएंगे !

खूब सताएं दुनियाँ वाले, वादे छीन न पाएंगे
जितना काटें बांस, हरे हो, नए सामने आएंगे !

कैसे निंदिया खो बैठे हो, अवसादों के घेरों में
सनम सुलाने  तुम्हें , हमारे गीत  ढूंढते आएंगे !

11 comments:

  1. ऐसे कैसे तड़प उठे हो,इतनी सी तकलीफों में
    अभी तो रोने के कितने ही और बहाने आयेंगे !बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति! आदरणीय सतीश जी! साभार!
    धरती की गोद

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  2. कैसे जीतें,जलने वाले,दिल में पंहुच न पायेंगे,
    जितना काटो बांस, नए हो हरे सामने आएंगे !

    बहुत खूब ! यह आखिरी दो पंक्तियाँ सोने पर सुहागा !

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  3. बहुत सुन्दर...

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  4. बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण रचना.

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  5. कैसे निंदिया खो बैठे हो, यादों के उजियारे में
    सनम सुलाने तुम्हें, हमारे गीत ढूंढते आएंगे --क्या खूब अभिव्यक्ति दिये हैं --वाह

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  6. याद न करना मुझको,वरना हौले हौले रातों के
    अनचाहे सपनों में,अक्सर खूब सताने आएंगे ..
    बहुत सुन्दर ... हर शेर भावपूर्ण ... मन को छू के गुज़रता हवा ...

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  7. याद न करना मुझको,वरना हौले हौले रातों के
    अनचाहे सपनों में,अक्सर खूब सताने आएंगे !
    बहुत सुन्दर रचना , सतीशजी

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  8. प्यारे उद्गार हैं ,प्यारी सी चाहत--उम्दा

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  9. बहुत प्यारी लगी यह रचना कुछ कुछ रूमानी लोरी सी :)

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- सतीश सक्सेना

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