एक राजकुमारी रहती थी
घर राजमहल सा लगता था
हर रोज दिवाली होती थी !
तेरे जाने के साथ साथ,चिड़ियों ने भी आना छोड़ा !
मैंने इस गीत द्वारा, घर से बेटी की विदाई के बाद, भाई और पिता की स्थिति का, एक शब्द चित्र खींचने का प्रयास किया था ! इस मार्मिक गीत को, लिखने के बाद, छलछलाती आँखों के कारण , मैं आज तक पूरा नहीं पढ़ नहीं पाया ! विवाह योग्य पुत्री की विदाई की कल्पना भी, दारुण दुःख देती है , पता नहीं उसकी विदाई कैसे झेल पाऊंगा !
इस रचना को पढ़कर , एक और प्यारी बेटी के पिता दिनेश राय द्विवेदी , के आँखों में आंसू छलछला उठे ! डबडबाई आँखों से, उनके द्वारा मेरे लेख पर लिखी गयी एक लाइन की यह टिप्पणी, मुझे भाव विह्वल करने को काफी है ! अपनी पुत्री की विदाई की याद करके ही दिनेश राय द्विवेदी जैसे प्रख्यात एडवोकेट तक रो पड़ते हैं ....
पूर्वा राय द्विवेदी |
"बहुत बहुत रुलाते हैं, तेरे ये गीत ! सच में बहुत रुलाते हैं"
उनकी इस टिप्पणी के साथ, इस गीत को लिखने का उद्देश्य पूरा हुआ ! पुत्री को अपना घर छोड़ना ही होता है और एक नए माहौल , नए लोगों के साथ मिलकर , नए घोसले का निर्माण करना होता है ! ऐसे विषद संक्रमण काल में, उसे अक्सर भारी मानसिक तनाव और कष्ट से गुजरना होता है !इस समय में, अक्सर इस लड़की को,अपने पिता और भाई से, हर समय जुड़े महसूस रहने का अहसास ही , इसकी राह आसान बनाने को, काफी होता हैं !
इस पोस्ट का शीर्षक, दिनेश राय द्विवेदी की मेधावी पुत्री पूर्वा राय द्विवेदी , द्वारा लिखी एक पोस्ट "लड़कियों का घर कहाँ है ? " की देन है, जिसमें पूर्वा के कहे शब्दों ने, मुझे इस पोस्ट को लिखने को प्रेरित किया ! मैथमैटिकल साइंस में एम् एस सी, कुमारी पूर्वा, जनस्वास्थ्य से जुडी एक परियोजना में शोध अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं !
कहते हैं लड़की ही, घर में सबसे कमजोर होती है और मगर यह समाज, सुरक्षा देने की जगह ,उससे उसका "घर "छीन कर उसे मायका और ससुराल उपहार में दे देते हैं ! और यह काम दोनों ही पक्ष के लोग धूमधाम से करते हैं !
पुत्री को हमें यह अहसास दिलाना होगा कि वह इस परिवार में बेटे की हैसियत रखती है और अपने भाई के समान अधिकार और सम्मान की हकदार है और हमेशा रहेगी ! यही बात, वह बहू बनकर नए घर में भी याद रखे कि उस घर की पुत्री का भी घर में समान अधिकार है और हमेशा रहेगा !
नए घर के निर्माण में, जो थकान होती है, उसे दूर करने को, अपने परिवार द्वारा बोले स्नेह के दो शब्द काफी हैं ! अपने मज़बूत पिता और भाई की समीपता का अहसास ही, हमारे परिवार वृक्ष की इस खुबसूरत डाली को, हमेशा तरोताजा रखने के लिए काफी होता है !
भाई सतीश जी बहुत ही बहुक करती हुई आपकी पोस्ट लेकिन बेटी का घर बसाने की भी एक अद्भुत खुशी होती है |
ReplyDeleteभाई सतीश जी बहुत ही बहुक करती हुई आपकी पोस्ट लेकिन बेटी का घर बसाने की भी एक अद्भुत खुशी होती है |
ReplyDeleteभावपूर्ण
ReplyDeleteमैं तो खुद बेटी का बाप हूँ.. बस अनुभव कर सकता हूँ!!
ReplyDeleteनए घर के निर्माण में, जो थकान होती है, उसे दूर करने को, अपने परिवार द्वारा बोले स्नेह के दो शब्द काफी हैं !
ReplyDeleteऔर यही दो बोल तो परिवार की नींव हैं.
भावविह्वल कर देने वाला आलेख
आप की पोस्ट (कविता) ने आँखों में आंसू तो ला दिये । अपनी ही शादी पर मां द्वारा कही बात याद आ गई ," राजी खुशी आओगी तो हमारा द्वार खुला है वरना बंद "। यह सुन कर पांव तले की जमीन खिसक गई थी । बहुत जरूरी है कि घरवाले बेटी को उसके अपने घरमें अच्छे व्यवहार की शिक्षा के साथ उसे आश्वस्त भी करें कि वह किसी तरह अपने को अकेली ना समझे और दुख तकलीफ में अपने मायके से सहायता अवश्य पायेगी ।
ReplyDeleteहम भी इस बात को शादी के बाद ही समझ पाये और महसूस कर पाये, क्योंकि हम तो केवल भाई ही हैं ।
ReplyDeleteयह तो मेरा भी सवाल है....पर शायद अब मुझे भी इसका जवाब देना होगा....क्यों कि मेरी भी बेटी भी इसी दहलीज पर आती दिख रही है.....पर मुझे इसका हल औरतों की मानसिकता पर ही निर्भर होता दिखता है.....
ReplyDeleteअगर वह बहु को अहसास दिलायें की यह घर आज से तुम्हारा भी है तो यह समस्या ,समस्या नहीं रह जाएगी......
कुछ कहने से शब्द नम हो जायेंगे।
ReplyDeleteवाकई आपकी पोस्ट दिल के तारों को झनझना देती है। कई बार तो पोस्ट प्रेरक का भी काम करती है। कुछ लिखने का मन करता है। आदरणीय द्विवेदी जी के ब्लॉग में पूर्वा राय की पोस्ट पढ़ी। शोध परक आलेख है। पढ़वाने के लिए धन्यवाद। वहां यह कमेंट कर आया हूँ...
ReplyDeleteभारत में जितना लिंगभेद दिखता है उतना कहीं नहीं। क्या मनुष्य क्या जानवर सभी में वह भेद करता है। इसका एक और एकमात्र कारण उसका लोभी होना है।
बिटिया मारे पेट में, पड़वा मारे खेत
नैतिकता की आँख में, भौतितकता की रेत।
इस पोस्ट को पढ़कर मुझे अपनी एक कविता याद आ गई। लिंक दे रहा हूँ मन हो तो पढ़ सकते हैं...
http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2011/03/blog-post_08.html
...वैसे याद हो तो लिंक की कविता आपकी पढ़ी हुई है।
लडकियां होती हैं तभी घर बनता और संवरता है।
ReplyDeletemarmik prastuti per kya kar sakte hai beti ko to jana hi hota hai.............
ReplyDeleteसतीश जी , पुत्री कमज़ोर नहीं होती , लेकिन पिता की कमजोरी ज़रूर होती है । इसका इलाज यही है कि पुत्री को सक्षम बनाया जाये ताकि वह स्वावलंबी बन सके ।
ReplyDeleteयदि बेटी अपने नए घर में खुश रह सके तो मात पिता के लिए इससे बड़ा सुख और कोई नहीं हो सकता ।
बेटी घर में रहे या न रहे , लेकिन दिल में हमेशा रहती है ।
क्या कहूं सतीश जी? मैं खुद बेटी और बहू हूं. अपना घर छोड़ने का दुख और नये घर में सहर्ष अपनाये जाने का सुख दोनों ही भावों से अनुभूत हूं.
ReplyDeleteआपने तो आज बहुत ही भावुक कर दिया. सुंदर आलेख के लिए बहुत बधाई.
ReplyDeleteअद्भुत अहसासों भरी सुन्दर पोस्ट....
ReplyDeleteहमारे समाज में बेटियों को पाला ही जाता है 'पराया धन' कहकर. उसे माता-पिता के घर अपार स्नेह मिला होता है, उसे छोड़कर जाना अत्यधिक कष्टकारी होता है और इससे भी ज्यादा कष्टकर होता है यह दुःख कि अब उसके लिए वही घर पराया है, जहाँ उसका जन्म हुआ. मुझे लगता है कि बेटियों को ये विश्वास दिलाना चाहिए कि उनका एक नहीं होता, बल्कि दो-दो घर होते हैं. उनकी शादी के बाद भी उनका मायके में वही स्थान होना चाहिए, जो अविवाहित होने पर था. लड़कियों को ऐसा विश्वास दिलाकर ही हम उन्हें आश्वस्त और सशक्त कर सकते हैं.
ReplyDeleteअपने घर को , अपनों को छोड पाना दुनिया का सबसे दुष्कर कार्य है , हम लडकियां (जिन्हे आज समाज कमजोर समझता है ), ही इसे कर सकतीं है ऐसा हमारे समाज के व्यवस्थापक समझते थे , तभी विवाह में लडकियों की विदाई का प्रावधान बनाया गया । विदाई का कष्ट तो होता ही है मगर उससे भी ज्यादा कष्ट तब होता है जब ससुराल में मायके वालों को या माता पिता को लेकर ताने सुनाये जाते है , अपने जन्मदाता के लिये अपशब्द सुनना सबसे ज्यादा दुखकारी होता है, काश की लोगों में सोच का थोडा सा विस्तार हो जाता , तो शायद विदाई की टीस कुछ हद तक कम हो जाती ...
ReplyDeleteआभार! कविता तो मैं भी पूरी पढ नहीं सका था मगर वे दिन अवश्य याद आ गये थे जब बहन की शादी तय हो चुकी थी और एक दिन कहीं जाते हुए बस में "साडा चिड़ियाँ दा चम्बा वे, बाबुल असाँ उड़ जाना" कान में पड़ा। खैर, छोड़िये ये बातें भी ...
ReplyDeleteSatish ji,
ReplyDeleteman ko gahrayi tak andolit kar gayi apki yah post....mai bhi akhir do betion ki ma hoon....
Poonam
प्रिय सक्सेना जी ,साधुवाद इस मार्मिक प्रसंग को उकेरने के लिए , त्रासदी है ,कृत्रिम ,छल, को विस्वास और परंपरा का आवरण दे प्रबुद्धता सावित करना ,शायद यही नियति बन गयी है ..../ समझ और सुधार की अत्यंत आवश्यकता है .
ReplyDeleteमेरा तो मानना है कि बेटियों के ही दो घर होते हैं। बेटे तो अक्सर अपना घर भी भूल जाते हैं।
ReplyDeleteto phir do betiyon ke mujh-jaise pita ko kaisaa lagaa hogaa,aap hi sochiye ...philhal to dravit hun...baaki baaten baad men...
ReplyDeleteपहले इस नंदन कानन में एक राजकुमारी रहती थी घर राजमहल सा लगता था हर रोज दिवाली होती थी ! तेरे जाने के साथ साथ , चिड़ियों ने भी आना छोड़ा ! चुग्गा पानी को लिए हुए , उम्मीद लगाए बैठे हैं !...gala rundh gaya
ReplyDeleteBhaavpurna rachna, mahsoos kiya ja sakta hai....
ReplyDelete@ पलाश ,
ReplyDeleteसंक्रमण काल में थोडा कष्ट होना लाजमी है , एक साथ विपरीत और बदला हुआ वातावरण अनुभवी क़दमों को भी डगमगाने में समर्थ होता है ! मासूम पैरों से क्या उम्मीद रखनी, मगर नए घर से जुड़ने का विश्वास लेकर लिए गए कदम कमजोर कभी नहीं पड़ते !
हाँ, ताने और अपनों के लिए कहे गए कटु शब्द अवश्य कोमल मन को दुखाने में समर्थ हैं ! कोशिश करें कि शुरुआत के कुछ साल कडवाहट न हो ...समय के साथ एक दूसरे के गुणों का सम्मान अवश्य होगा ! !
Ladakiya hamesh se ghar ghar kheltee hai....
ReplyDeletejai baba banaras......
@ डॉ दराल,
ReplyDeleteउच्च शिक्षा के बावजूद नए घर में नए लोगों के बीच जाकर रहना एक चुनौती है ! पारिवारिक स्नेह एवं सहयोग से यही बेहद आसान लगने लगता है !
इसमें कोई शक नहीं की पुत्री पिता की कमजोरी है , कम से कम मेरे लिए तो यह सही ही है :-)
@ देवेन्द्र पाण्डेय,
ReplyDeleteआपका स्नेह और समान विचार है जो आप मेरा लिखा पसंद करते हैं !
यह लिंक मेरा पहले ही देखा हुआ है, बेहतरीन है बारबार पढने का दिल करता है ! आपके स्नेही दिल के लिए शुभकामनायें !
एक लड़की ही किसी मकान को घर बना सकती है
ReplyDeleteआभार
@ डॉ आराधना मुक्ति,
ReplyDeleteआपसे पूरी तरह सहमत हूँ, हमें खुद भी समझना होगा कि बेटी के जन्मस्थान पर उसका इतना ही अधिकार है जितना कि पुत्र का ! विवाह का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि उसका घर नहीं रहा !
आभार अच्छे सुझाव के लिए !
लड़की का घर कौन सा होता है, यही सबसे अधिक पीड़ा देने वाला प्रश्न है. माता-पिता का घर और फिर ससुराल वास्तव में लड़कियों से ही चहकते हैं. :)) बेटे तो अहमक होते हैं :((
ReplyDeleteआपका लिखा गीत किसी भी पुत्री के पिता को रुला सकता है.
सामाजिकता,मर्यादा,परम्परा और संस्कृति की बुनियाद हैं बेटियां। मानवता में उन्होंने जो योगदान दिया है,प्रतिदान में उसका अल्पांश ही उन्हें मिल पाया है। नतीज़ा हम देख रहे हैं और आगे भी भुगतेंगे।
ReplyDeleteपारिवारिक माहौल बहुत सहायक होता है बेटियों का
ReplyDeleteफिर चाहे वह 'इधर' का हो या 'उधर' का
wow Uncle...
ReplyDeleteफ़िर से बेटियों के लिए इतना सारा प्यार... :) Thank you so much...
आपको पता है मुझे ऐसी पोस्ट्स में एक चीज़ हमेशा बहुत अच्छी लगती है, वो ये कि, एक ऐसी पोस्ट और लड़कियों के लिए इतना सारा प्यार... हर कमेन्ट के साथ ढेर सारा प्यार... भला लड़कों को इतनी privilege कब मिली है??? नहीं न... तो बस... और इससे ज़्यादा क्या दे सकता है कोई... इतनी फिक्र, इतना प्यार...
पोस्ट तो बहुत ही प्यारी है... बस एक बात से मुझे ज़रा-सी प्रॉब्लम है... एकदम ज़रा-सी... वो ये, कि लड़कियों को लड़कों जैसा बताने की क्या आवश्यकता है??? और वो कमज़ोर भी नहीं है...
कमज़ोर इसलिए नहीं, क्योंकि {मेरे हिसाब से} इतनी सहनशक्ति, और खुशकिस्मती ख़ुदा ने सिर्फ हमें बक्शी है, कि हम दो घरों को संभाल सकें, दोनों जगह हमारा बराबरी का हक, और दो घरों का प्यार, सम्मान और फैसलों में राय... ये सब रहमत सिर्फ हमें ही तो मिली है...
और इसलिए हमें लड़कों जैसा नहीं बनना... :)
जब भी मेरे भई कि शादी होगी, वो अपने ससुराल के लिए उतने हक से नहीं बोल पायेगा, जितने हक से मैं अपने ससुराल और मायके के लिए बोल लूंगी... :)
तो हुई न फायदे में... :)
यदि कभी मुझे किसी चीज़ से प्रॉब्लम थी भी, तो वो था सरनेम का प्रॉब्लम... मैं हमेशा उसी सरनेम के साथ रहना चाहती थी जो मेरे जन्म के साथ मुझसे जुड़ा... फ़िर लगा कि लड़ाईयाँ के पीछे भी बहुत कुछ इसी सरनेम का हाँथ है... तो सरनेम ही हटा दिया... और फैसला भी यही किया है, कि मुझे वही अपनाएगा जिसे ये एकलौती शर्त मंज़ूर होगी... :)
सतीश जी,
ReplyDeleteमै भी एक प्यारी बेटी की माँ होने के नाते
इस मार्मिक आलेख की भावनाओं को गहराई से
महसूस कर रही हूँ ! आभार इस लेख के लिये !
मार्मिक सन्दर्भ ,विचार भूमि और हमारा नज़रिया बदलाव की मांग कर रहा है .परिश्तिथियाँ संक्रमण के दौर में हैं लड़कों को लेकर भी समाज का मोह भंग अब होने लगा है .कौन से लड़के माँ -बाप को आज निहाल कर रहें हैं .कहाँ पाए जातें हैं ऐसे लड़के .नाम लेने गिनाने के लिए पद बतलाने के लिए बहुत अच्छे हैं ,मेरा लडका ये है ,वो है ,यथार्थ में क्या है ?क्या आप नहीं जानते ?
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण...शब्दों की सीमा से परे....
ReplyDeleteआप लोग इतना डराईयेगा तो मेरे पास एक ही विकल्प शेष रह जाएगा !
ReplyDeleteजी , मैं शिद्दत से घर जमाई अफोर्ड करने की सोच रहा हूं !
आपने तो भावुक कर दिया ....प्यारी पोस्ट
ReplyDeleteदोनो घर की लाज है बेटी....भावपूर्ण
ReplyDeleteतेरे जाने के साथ साथ,चिड़ियों ने भी आना छोड़ा !
ReplyDeleteAdbhut evam Hridaysparshi....
Mere blog par aane ke liye tatha kavita pasand karne ke liye bahut bahut sukriya
Prakash
www.poeticprakash.com
अजित गुप्ता जी का कथन आशा जगाता है। संस्कारवान परिवारों में लड़कियों के दोनों ही घर हैं, मायका भी और ससुराल भी।
ReplyDeleteअनुभव में आप सबसे बहुत छोटा हूँ लेकिन मेरा यह मानना है कि कम से कम आज के समय में लड़कियों का मायके से कैसा रिश्ता रहेगा, यह परिवार की बहू पर ज्यादा निर्भर करता है। वही बहू जो खुद अपने मायके में अभी भी अपना आधिपत्य जमाना चाहती है, ससुराल में अपनी ननद को बर्दाश्त नहीं कर सकती।
कैसे व्यक्त करूँ ,सारे रोल निभाना सिर्फ़ नारी के वश का है -बेटी ,बहू , फिर बेटी की माँ, और उसे बिदा करने के बाद की स्थिति भी -और सचमुच बेटी का सफल होना माँ के लिये बहुत बड़ी उपलब्धि है !
ReplyDeleteबस ,बिदा के समय हर बेटी यह विश्वास ले कर जाये कि इस घर में उसका सदा स्नेहमय स्वागत होगा.
छोड बाबुल का घर, मोहे पी के नगर, आज जाना पडा :(
ReplyDeletemere papa kahte hain jis ghar me beti nahi hoti wo adhoora hotaa hai sabse chhoti bahan ki vidaaI ke baad hame pataa chalaa ki wo kitna sahi hain
ReplyDeleteआपकी पोस्ट ने वो दिन याद दिला दिए ....
ReplyDeleteजब यही प्रश्न आँखों से आंसू बन छलकता रहा था .....
शादी के बाद मायके जाओ तो pita यही समझाते हैं ...'बेटी अब तुम्हारा वही घर है , सुख या दुःख तुम्हारा नसीब .... '
और ससुराल में .....?
शायद ही कोई किस्मत वाली लड़की हो जिसे ससुराल में .apna समझा जाये .....
purvaa ने सही कहा बेटी तो बेघर होती है ....
हमारे सामाजिक रीति रिवाजों के अनुसार बेटियों को अपना घर छोड़ना ही पड़ता है , वे जीवन भर बनती रहती है दो हिस्सों में , भावुक कर दिया रचना ने !
ReplyDeleteलड़कियों का दर्द वही समझ सकता है जिससे अचानक उससे उसका खेलने का आँगन,दुवार सब एक झटके में छुड़ा लिया जाता है ! संवेदना को झिंझोड़ता अहसास !
ReplyDeleteemotional but reality based.
ReplyDeleteभावमय करते शब्दों के साथ बहुत ही उम्दा प्रस्तुति ।
ReplyDeleteहाँ, बेटी विदाई ही सबसे दुखदाई समय होता है एक पिता की ज़िन्दगी का..
ReplyDeleteपर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है.. अगर यह दस्तूर नहीं निभाएंगे तो दुनिया नहीं चलेगी ना..
स्त्री ही इस श्रृष्टि का निर्माण करती है और जो अग्रणी होते हैं उन्हें ही सबसे ज्यादा दुःख और सबसे ज्यादा तारीफ़ भी मिलती है..
हर सिक्के के दो पहलू हैं और इसके भी...
सतीश जी आपने बिलकुल सही लिखा आपके एक -एक शब्द दिल में उतर गए , सही है पर विदा करने की ख़ुशी भी बहुत अनमोल है .
ReplyDeleteआप मेरी "बेटिया " कविता चाहे तो पढ़े , आपको पसंद आएगी , मै आपको अपनी कविता की लिंक देती हूँ .
http://sapne-shashi.blogspot.com/2011/09/blog-post_29.html
वाकई ! विवाह के वक्त बेटी की बिदाई बहुत रुलाती है और बेटी भी घर के साथ माँ-पिता, भाई-बहन का साथ छूटने के कारण दुःखों के महासागर में गोते लगाते ही दिखती है किन्तु इस चरण के बाद ही पिता के रुप में जिम्मेदारी कुशलतापूर्वक निभा पाने का सुख और पत्नि के रुप में किसी से प्राप्त कन्यादान का जो कर्ज पिता पर रहता है उस कर्ज के भुगतान का भी सांसरिक कर्तव्य कन्या-दान के कर पाने पर पूरा होने का सुख महसूसता है वहीं पुत्री भी अपने नये घर में पति व उसके परिवार के साथ जुडकर जीवन के अनिवार्य अगले चरण की शुरुआत कर पाने का सुख महसूस कर पाती है ।
ReplyDeleteअहसासों की बात है बेटी को विदा करने का दर्द, उसके घर बसने की खुशी....सब मिश्रित...
ReplyDelete--बहुत भावुक करनें वाली पोस्ट है आपकी.
ReplyDeleteभाई साहब,बिटिया की विदाई भी समाज की अज़ब रीति है .
वह ठुमरी आपनें सुनी ही होगी --भइया को दीन्हों महला-दू- महला ,हमें दीन्हों परदेश- रे बाबुल -काहे को ब्याही बिदेश.
सतीश जी, बेटियां बेटियां ही होती हैं, बेटे भला उनकी बराबरी कैसे कर सकते हैं... बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ है...
ReplyDeleteआँखें नम हो गयीं...!
ReplyDeletebhawbhini........
ReplyDeleteभावुक करता हुआ लेख ... पर यह दर्द स्त्री ही झेल सकती है ... नए सिरे से घर और रिश्ते बनाने और निबाहना बेटियाँ ही कर पाती हैं ...
ReplyDeleteप्रकृति ने युवतीओं को जितना कोमल, सौम्य, और गुणी बनाया है उतना ही उनकी चेहचाहट को जानदार और समझदार बनाया है ताकि वह नए और पुराने परिवेश में सामंजस्य पैदा कर, ख़ूबसूरती से सृष्टि की रचना में भागीदार बनसके| हम बेटियाँ तो खुशकिस्मत होतीं हैं जिन्हें दो-दो घर मिलते हैं|
ReplyDeleteवह रोती इसलिए हैं की उन्हें पुराने परिवेश को छोड़ने का गम होता है परन्तु नए परिवेश की ख़ुशी को चाहते न चाहते हुए भी स्वीकार करना होता है| उस छोटी उम्र में हमें यह समझ और विश्वास नहीं होता की नयी दुनिया कैसी होगी, और उसी अनदेखी दुनिया को परफेक्ट बनाने का सामाजिक दबाव भी होता है| पर सच कहूं तो बिदाई के उन क्षणों में सिर्फ और सिर्फ अपना परिवार रेत की भांति फिसलता हुआ सा लगता है, डर लगता है की इनसब अपने चेहरों को मैं कल से रोज़-रोज़ नहीं देख पाऊंगी... और न जाने क्या क्या :]
जहां तक बात संक्रमण काल की है तो वह तो सदा ही बना रहता है, ज़ुकाम के वायरस की तरह :], हाँ यदि शुरू-शुरू के सालों में यदि रोगप्रतिरोधक क्षमता विकसित करली जाये तो संक्रमण कम होता है!!!
पूर्वाजी से परिचय करने क लिए शुक्रिया| आपकी पोस्ट ने बीते दिनों को जीवंत कर दिया...
आभार!!!
सक्सेना साहब,
ReplyDeleteमैं इसी साल 12-03-2011 को अपनी पुत्री का विवाह किया है । उसके जाने के बाद आज भी उसकी याद जब भी आती है मन भर जाता है एवं अपने अशांत मन को शांत करने के लिए शादी का केसेट देख कर ही संतोष कर लेता हूँ । इस पेस्ट को पढ़ कर मेरी भी आंखे अश्रुपूरित हो गयी हैं । बहुत भी भावुक पोस्ट । .मेरे पोस्ट पर आकर मेरा भी मनोबल बढ़ाएं ।
धन्यवाद ।
साडा चिड़िया दा चंबा वे,
ReplyDeleteबाबुल असा टुर जाणा,
साडी लंबी उडारी वे,
असा केड़े देस जाणा....
हमारा चिड़ियों का चंबा है, बाबुल हमने चले जाना है, हमारी लंबी उड़ान है, हमने कौन से देश जाना है...
जय हिंद...
सतीश भाई, इन दिनों व्यवसायगत व्यस्तता बहुत रही। उस के साथ ही अनवरत पर एक श्रंखला भी चला रखी है। उस के संदर्भ में बहुत कुछ पढ़ना भी पड़ा। इस बीच आप की यह पोस्ट पढ़ कर पहले इस पर अन्य पाठकों की राय की प्रतीक्षा करता रहा।
ReplyDeleteस्त्री से हमारा रिश्ता माँ, पत्नी और बेटी के रूप में है। लेकिन स्त्री के यही रूप नहीं हैं। इन तीन रूपों के अतिरिक्त भी अन्य अनेक रूपों उस से हमारी भेंट होती है। यदि हम उन्हें भी देखें तो कहीं सुबह वह सड़क की सफाई करती दिखाई पड़ती है तो कहीं उस का प्रवेश घर में काम वाली बाई के रूप में होता है। सब्जीमंडी में वह सब्जी बेचते दिखाई पड़ती है। किसी मंदिर के आगे माला और प्रसाद बेचती दिखाई पड़ती है। आप तो इंजिनियर हैं, आप को तो वह निर्माण कार्यों में तगारी ढोते और फावड़ा चलाते भी दिखाई पड़ती होगी। खेतों में फसलों की निराई-गुड़ाई करते और कटाई के दिनों में फसलें काटते दिखाई देती है। दफ्तरों में बाबू और अफसर के रूप में, चौराहे पर ट्रेफिक सिपाही के रूप में, अस्पतालों में नर्स, डाक्टर और तकनीशियन के रूप में दिखाई पड़ती है तो स्कूल में एक शिक्षिका के रूप में। राजनीति में भी वह शीर्ष पदों पर हम ने उसे काम करते देखा है। जीवन का कोई हिस्सा नहीं है जिस में वह दिखाई न पड़ती हो। स्त्रियों को जो लोग केवल घर की सीमा में बंधे देखना चाहते हैं उन के लिए स्त्रियों ने बहुत उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। यदि स्त्री बिना पुरुष के संतान पैदा करने में सक्षम होती तो शायद नहीं, आवश्यक रूप से मानव समाज का सारा कारोबार वह अकेले ही चला सकती थी।
हम ने, हम मनुष्यों ने ही उसे व्यक्ति से माल में बदल डाला। ठीक उसी तरह जैसे पहले पहल शत्रु कबीलों के सदस्यों को अनिवार्य रूप से मार डालने के स्थान पर जीवनदान दे कर उसे दास बना कर माल में परिवर्तित कर दिया था। हम ने ही सामुहिक संपत्ति को व्यक्तिगत संपत्तियों में परिवर्तित कर उस पर पितृवंश के अनुसार उत्तराधिकार में देने का नियम बनाया और बेटियों को अपने परिवार से ही नहीं, गोत्र तक से अलग मान कर उसे पराया धन मान लिया।
हमारी ये करनियाँ ही हमारे दुःख का कारण हैं। बेटियाँ घर बसाती हैं, फिर भी उन का घर उन का नहीं होता। यह केवल बेटियों के दुःख का कारण नहीं रह गया है बल्कि सारे समाज के दुःख का कारण हो गया है।
हम अक्सर कहते तो हैं कि घर तो गृहणी का होता है। लेकिन क्या सच में? यदि यथार्थ में यह सच हो जाए तो न तो यह किसी के भी दुःख का कारण न रहेगा। लेकिन यह तभी संभव है जब हम बेटियों को वह क्षमता प्रदान करें जिस के बूते पर वे अपना घर बसा लें। हमे चाहिए कि हम माता-पिता इस कर्तव्य को पुरी शिद्दत के साथ निभाएँ। फिर देखिए दुनिया और समाज कितनी तेजी से बदलता है।
bahut sundar aalekh...
ReplyDeleteबाबुल के हृदय-प्रशाल में,
ReplyDeleteराजकुमारी इक रहती
राजमहल सा घर लगता था,
रोज दिवाली सम रहती
उसके जाते से ही उसकी,
चिड़ियों ने आना छोड़ा
चुग्गा पड़ा रहा, माता की,
उम्मीदों ने दिल तोड़ा
बहुत मार्मिक सतीश जी, रुलाई आ गई सर।
सृजन के लिए ध्वंस आवश्यक है क्या ...हाय रे ! सामाजिक नियम ...एक घर से उजड़ो ..दूसरा बसाओ..
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
नए घर के निर्माण में, जो थकान होती है, उसे दूर करने को, अपने परिवार द्वारा बोले स्नेह के दो शब्द काफी हैं ! अपने मज़बूत पिता और भाई की समीपता का अहसास ही, हमारे परिवार वृक्ष की इस खुबसूरत डाली को, हमेशा तरोताजा रखने के लिए काफी होता है !
सही व भावपूर्ण उद्गार सर जी... यह खूबसूरत डाली हमेशा तरोताजा ही बनी रहे, इसका विशेष ध्यान रखा जायेगा...
...
सच सतीश जी , बहुत याद आती है बिटिया ...
ReplyDeleteत्याग बेटियों को ही करना पड़ता है ...बहुत भावपूर्ण
ReplyDeleteShandar Prastuti
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत पोस्ट...मेरी बहन की शादी भी हुई है..मैं भी अच्छे से अनुभव सकता हूँ..
ReplyDeleteAchchi prastuti hai!
ReplyDeletergds.
भावपूर्ण, ajit gupta जी से सहमत
ReplyDeletebahut hi bhawok karti hai aapki ye post,,,
ReplyDeletejai hind jai bharat
हमारी पुत्री की शादी भी होगी ... पर अभी से सोच कर मन भारी हो जाता है ... दिल को छू गई ...
ReplyDeleteaadarniy sateesh bhai ji
ReplyDeleteaaj aapki post ne barbas hi rone par majboor kar diya.
shayad isliye ki main bhi do pyaari si betiyon ki maa hun.phil haal unki shaadi me abhi bahut waqt hai par aapki rachna se ek dard ki sihran si mahsus kar rahi hun main.
par janti hun ki ek din to ye hona hi hai par fir bhi apne man ko bhatkati rahti hun. sochnematr se hi ghabrahat hone lagti hai.
ab jyadaa nhai likh pa rahi hun xhama kijiyega man me ajeeb sa lag raha hai.
bahut hi bhav vihwal kar gai hai aapki yah post.
sneh sahit
poonam
aapka ye geet mene bhi padha tha bahut bahut achchha laga tha aaj ki aapki baat ekdam sahi hai aapki soch sada hi bahut pavan rahi hai.
ReplyDeletebadhai
rachana
वह बहू बनकर नए घर में भी याद रखे कि उस घर की पुत्री का भी घर में समान अधिकार है और हमेशा रहेगा !
ReplyDeleteयह बहुत महत्वपूर्ण बात लिखा है आपने|
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार|
beTioM ki yaad dilaa dee nam aakhoM se jaa rahi hoon shubhakamanayen diwali ki badhai.
ReplyDelete...अनुभव करने की चीज है. शब्दों में क्या कहें.
ReplyDeleteबड़ी शिद्दत से लिखा है आपने..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति ..आभार!
SIR.. bahut marmsprashi lekh likha hai apne..har ladki ke man me ye jaroor aata hoga ki kyo mayka kaha jata hai.kash ghar hi kaha jaata.
ReplyDeleteaapne meri post par comment kar mera utsah badaya hai..
APKA HARDHIK DHANYAVAAD..
♥
ReplyDeleteआपकी उस मर्मस्पर्शी गीत रचना की अभी भी स्मृति है मेरे मन में भी आदरणीय सतीश जी भाईसाहब !
लड़की और लड़की के मां-बाप शायद कुछ आशंकाओं के कारण आंखें सजल करते हैं … लेकिन आप सच मानें , अपने बड़े बेटे का विवाह संपन्न होने पर बेटे-बहू को घर लाते हुए उस भोर वेला में मैं और मेरी धर्मपत्नी दोनों की आंखें भीग गई थीं बहू और उसके मम्मी-पापा को रोते देख कर …
इंसान में संवेदनाएं तो होगी ही … … …
भावपूर्ण पोस्ट के लिए नमन !
आपको सपरिवार
दीपावली की बधाइयां !
शुभकामनाएं !
मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
Very emotional expression!
ReplyDeleteबेटियों का दर्द महसूस करती हूं .. बढिया लिखा आपने !!
ReplyDeletebahut bhaavpoorn post hai.kya karen samaaj ne niyam hi yese banaaye hain ki ladki ko apna ghar chorna padta hai.vese aajkal to bete bhi paas nahi rahte.kintu ladka ladki dono ka haq barabar hona chahiye.ladki ko kabhi yeh mahsoos nahi hone dena chahiye ki is ghar par uska haq nahi.bete,bahu ko bhi yah samajhna chahiye ki shadi ke baad bhi beti ka haq maa baap aur us ghar par barabar ka haq hai.
ReplyDeleteसुन्दर सृजन , प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteसमय- समय पर मिले आपके स्नेह, शुभकामनाओं तथा समर्थन का आभारी हूँ.
प्रकाश पर्व( दीपावली ) की आप तथा आप के परिजनों को मंगल कामनाएं.
Jahan geet rach dete ho, unglee nas par rakh dete ho.geet gazlen ban jateen hain.
ReplyDeleteबहुत प्यारी और संवेदनाओं से लबरेज़ पोस्ट.
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार के सभी सदस्य को दिवाली की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
ReplyDeleteसतीश जी,
ReplyDeleteआपकी सुन्दर पोस्ट और उसपर हुई टिप्पणियों
को पढकर बहुत भावविभोर हो गया हूँ.मैंने अपनी बिटिया की शादी पिछले वर्ष ही की थी.लगता है जैसे दिल का टुकड़ा दिल से अलग हो गया हो.पर उसे खुश देखकर बहुत खुशी मिलती है.
इस हृदयस्पर्शी पोस्ट के लिए आभार.
धनतेरस और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteआपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteपञ्च दिवसीय दीपोत्सव पर आप को हार्दिक शुभकामनाएं ! ईश्वर आपको और आपके कुटुंब को संपन्न व स्वस्थ रखें !
ReplyDelete***************************************************
"आइये प्रदुषण मुक्त दिवाली मनाएं, पटाखे ना चलायें"
बेटियों की तो बात ही निराली है. आपको दीप-पर्व पर अनंत शुभकामनाएं. आप ऐसे ही ब्लागिंग में नित रचनात्मक दीये जलाते रहें !!
ReplyDeleteदीपों के पर्व की बधाई //
ReplyDeleteबिदाई गीत अद्भुत है ..मेरे भी ब्लॉग पर आये //
बेटियां बेटों से भी ज्यादा जिम्मेदार होती हैं।
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक बधाइयां एवं शुभकामनाएं।
very touching post. Congrats.
ReplyDeleteI wish you a very happy, safe, peaceful and prosperous Dewali.
very touching post. Congrats.
ReplyDeleteI wish you a very happy, safe, peaceful and prosperous Dewali.
**शुभ दीपावली **
ReplyDeleteपली बढ़ी जिस नीड़ में उसको जाती छोड़ !
ReplyDeleteये चिडियाँ हैं सैकड़ों रिश्ते जाती तोड़ !
दीपावली की हार्दिक मंगलकामनाएं !
ReplyDeleteAapko evm aapke pariwar ko deepawali ki hardik subhkamnayein.
ReplyDeleteप्रभावशाली प्रस्तुति
ReplyDeleteआपको और आपके प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें….!
संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
wish you a very happy diwali.
ReplyDeleteदीपावली के शुभ अवसर पर हार्दिक शुभ कामना के साथ |
ReplyDeleteआशा
आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी । .मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । दीपावली की शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआदरणीय सतीश जी,
ReplyDeleteदीपावली के शुभ अवसर पर आपको परिजनों और मित्रों सहित बहुत-बहुत बधाई। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपका जीवन आनंदमय करे!
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साल की सबसे अंधेरी रात में*
दीप इक जलता हुआ बस हाथ में
लेकर चलें करने धरा ज्योतिर्मयी
बन्द कर खाते बुरी बातों के हम
भूल कर के घाव उन घातों के हम
समझें सभी तकरार को बीती हुई
कड़वाहटों को छोड़ कर पीछे कहीं
अपना-पराया भूल कर झगडे सभी
प्रेम की गढ लें इमारत इक नई
इतना लम्बा सोच कर फिर कोई रूलाने वाली पोस्ट लिखने का इरादा है....?
ReplyDeleteदीपावली में कोई नई पोस्ट नहीं...आशीर्वाद भी देने नहीं आये..कहां खो गये..?
अच्छा हमारी ही शुभकामनाएं कबूल कीजिए।
शुभ दीपावली।
आपको दिवाली की हार्दिक बधाई..आप कब सक्रिय हो रहे हैं...
ReplyDeleteघर तो लड़कियों से ही बनता है, वरना भूत का डेरा, जज्बाती कर देने वाले भाव.
ReplyDeleteआप सभी को दीपोत्सव,गोवर्धन पूजा तथा भाई-दूज की हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteसादर
सुनीता शानू
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* आप सबको दीवाली की रामराम !*
*~* भाईदूज की बधाई और मंगलकामनाएं !*~*
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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आपने तो आज बहुत ही भावुक कर दिया.
ReplyDeleteआपको तथा आपके परिवार को दिवाली की शुभ कामनाएं!!!!
Dil pe gahri chhap dali hai aapke es post ne
ReplyDeleteलड़कियां तो घर की रौनक हैं... आँखे नाम हो आती हैं उनकी बिदाई की बात सोच कर .. उनको अच्छा घर वर मिले ..यही शुभकामना
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण व संवेदनशील कविता !
ReplyDeleteआपको व आपके परिवार को ढेरों हार्दिक शुभकामनाएं !
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है,कृपया अपने अमूल्य विचारों से अवगत कराएँ !
http://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html
आपके पोस्ट पर आना सार्थक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । सादर।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteनए पोस्ट में स्वागत है.
जब नजर का नूर जाए दूर
ReplyDeleteतो जीवन लगे बेनूर.
दिल को समझाना पड़ा कह कर
रे पगले ! है यही दस्तूर.
बड़ा ही सम्वेदनशील आलेख.
नए घर के निर्माण में, जो थकान होती है, उसे दूर करने को, अपने परिवार द्वारा बोले स्नेह के दो शब्द काफी हैं ! अपने मज़बूत पिता और भाई की समीपता का अहसास ही, हमारे परिवार वृक्ष की इस खुबसूरत डाली को, हमेशा तरोताजा रखने के लिए काफी होता है ! भावपूर्ण सटीक प्रस्तुति...
ReplyDeleteकुछ माहों से ब्लागजगत से दूर रहा जिस हेतु क्षमाप्रार्थी हूँ ....
महेंद्र मिश्र
जबलपुर.
सतीश जी, आपके संवेदनशीलता का तो कायल हो गया. आप जैसे अनुभवी का मेरे ब्लॉग पर टिपण्णी आपका स्नेह हैं.
ReplyDeleteअरे, हम भी आप जैसे ही हैं, वही विद्रोही स्वभाव और अन्याय से लड़ना...लेकिन अनुभव ये भी हैं कि ये राह आसन नहीं, बहूत थपेड़े पड़ते हैं....
चलिए साथ साथ ही चलते हैं..:-)...
इसे केवल महसूस किया जा सकता है...
ReplyDeleteजी एक बार पढना शुरू किया तो पढता ही चला गया। बहुत ही भावुक कर दिया आपने..
ReplyDeleteपर सच्चाई भी तो यही है
जी एक बार पढना शुरू किया तो पढता ही चला गया। बहुत ही भावुक कर दिया आपने..
ReplyDeleteपर सच्चाई भी तो यही है
भाई जी....आपका ये लेख देर से पढ़ पाई...उसके लिए क्षमा .....आपक हर लेख सबको सोचने के लिए मजबूर कर देता है
ReplyDeleteएक घर के लिए बेटी कितनी जरुरी है ये कोई हम बेटो वाले से पूछे ...बेटी होने से घर घर लगता है ...बेटो के बडे होने के बाद घर की विरानियत को सिर्फ एक बेटी ही दूर कर सकती है ..........आभार
behtreen post....
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट आभार ! मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद।
ReplyDeleteआप को पढना एक बेहद सुखद एहसास है...
ReplyDeleteसच में भैया आप बहुत रुलाते हैं ...एक बेटी का बाप नहीं रोक सकता अपने आँसू किसी भी कीमत पर !!
ReplyDeleteएक माँ ....जिसकी बेटी की विदाई में कुल दस दिन हैं ...क्या महसूस करती है ....आपने मेरे दर्द को शब्दों में ढाल दिया ...हम भी विदा हुए थे ...पर बेटी का विदा होना एक माँ के लिए खुशी के साथ साथ .... कितना तकलीफदेह भी होता है ....सतीश जी आप ने माँ बन कर महसूस किया ....पिता तो सदा अव्यक्त ही रहता है ...किसी से कुछ नहीं कहता ....पर आप का ह्रदय ....सच आज बहुत रोई ...मेरी बेटी भी मेरे गले से लग कर ....हम लाख कह लें ...बेटी बेटा बराबर हैं ...कोई शक्क नहीं ..पर जो दर्द बेटी को होता है ....बेटे को ...शायद ही ....आज भी माँ मौजूद नहीं ...तो भी ...हाय माँ ही निकलता है ...नाभि का रिश्ता है ....कितना गुंथा हुआ ....आज सो न पाउंगी ....नमस्कार सतीश भाई !!
ReplyDeleteआपके कष्ट को आपके शब्दों से महसूस कर रहा हूँ ...
Deleteबिटिया को आशीर्वाद