Tuesday, March 30, 2010

ब्लाग जगत में ऐसे लोग भी हैं - स्नेही राज भाटिया

राज भाई  !
१५ -३० मई  में  एक मित्र के साथ विएंना में, उनके बेटे के घर रहूँगा ! इन १५ दिनों यूरोप घूमने  का प्लान है , जिन जगह जाने का मन है वे प्राग , बुडापेस्ट , स्वित्ज़रलैंड , और इटली हैं  यूरेल टिकेट लेने की सोच रहे हैं ! 
क्या यह कम समय में संभव और ठीक रहेगा ?? 
मार्गदर्शन चाहिए !
सतीश सक्सेना 

नमस्कार सतीश जी,
 आप का स्वागत है युरोप मै, मै Wien से करीब ६०० कि मी दुर रहता हुं जर्मनी मै , मेरे नजदीक का शहर है Munchen (मुनिख), अगर समय हो तो मुझे भी दर्शन जरुरे देवे........

.............मेने आप के हिसाब से एक रुट बनाया है..... सब से पहले आप  Wien मै उतरे दो दिन वहां घुमे, रात को घर पर आराम करे, तीसरे दिन सुबह सवेरे चार पांच बजे वहा से रेल पकडे पराग के लिये( वियाना से पराग की दुरी सडक दुवारा २५५ कि मी) करीब ३ घंटे मै आप पराग पहुच जायेगे दो दिन यहां घुमे, दुसरे दिन शाम को यहां से रेल पकडे जर्मनी  के शहर मुनिख की, रात मेरे यहां ठहरे, दुसरे दिन मुनिख शहर की खास खास जगह मै आप को दिखा दुंगा,( पराग से मुनिख की दुरी सडक दुवारा करीब ३०० कि मी) फ़िर ५० कि मी मेरा घर))अगर आप चाहे तो  कुछ दिन मेरे यहां भी रुक सकते है, इसी दिन रात को मै आप को स्विट्रजर लेंड की रेल मै बिठा दुंगा, ......... यहां रुकना चाहे तो ठीक नही तो यहा से आगे आप बुडापेस्ट जाये, यहां भी दो से तीन दिन, फ़िर वापिस आप वियाना आ जाये...... आगे आप लिखे कि.... ओर क्या इस टिकट मै इंटर सिटी भी शामिल है या नही....अगर कुछ ज्यादा जानना हो तो मुझे फ़ोन कर ले या फ़िर गुगल पर बात कर ले, मै कल शनि वार को भारतीया समय के अनुसार रात सात बजे के बाद गुगल पर मोजूद होऊगां या मुझे मेरे मोबईल पर आप काल कर ले--- 0049-१५२५*******  या फ़िर मेल कर ले मै पुरी मदद करुंगा.
धन्यवाद सहित
राज भाटिया 


उपरोक्त बड़े पत्र  के कुछ अंश छापने का मकसद एक शानदार ,दिलदार, घर से बहुत दूर जर्मनी में बसे एक वास्तविक भारतीय का परिचय, हिन्दी ब्लाग जगत को करवाना है जिसको हम सिर्फ एक ब्लागर के रूप में पहचानते हैं ! मुझे नहीं पता कि मेरी यह "  नीरस "   पोस्ट कितने ब्लागर पसंद करेंगे , मैंने ब्लाग जगत पर बहुत कम लोग एक दूसरे का सम्मान करते देखे है और यह सम्मान भी बदले में दी गयी टिप्पणी के रूप में होता है ! आज " अतिथि कब जाओगे ""  के समय में  मुझे राज भाटिया  भारतीय संस्कृति के सही प्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं !

मेरा राज भाटिया से सिर्फ एक बार की मुलाकात है जब अजय झा ने उनके स्वागत में  ब्लागर सम्मलेन बुलाया था , और उस मीटिंग में हम दोनों ने शायद चंद शब्द प्रयोग किये होंगे आपस में  ! मेरे यूरोप प्रवास में जर्मनी जाना शामिल ही नहीं है फिर भी जिस आत्मीयता का परिचय देते हुए उन्होंने अपनी मेजवानी पेश की है उससे उन्होंने वाकई मिसाल छोड़ी है हम भारतीयों के लिए !

ईश्वर राज भाटिया जैसे भारत पुत्रों  को  हर जगह सम्मान बख्शे  !

Monday, March 29, 2010

आपके १८ वर्षीय बच्चे का आत्म विश्वास - सतीश सक्सेना

१८ वर्ष होने के अपने मायने हैं , वयस्क होते ही कानून से कुछ अधिकार, अपने आप मिल जाते हैं ! इस उम्र तक आते आते बच्चों की अपेक्षाएं भी बढ़ी होती हैं  ! माँ बाप के उचित सहयोग से बच्चों में आत्मविश्वास और अपने बड़ों के प्रति आदर भावना विकसित होनी, स्वाभाविक होती है !


वयस्क होने से पहले बच्चों को गाड़ी चलाना सिखलाना और अपनी हैसियत से अधिक पैसे वाले परिवारों में दोस्ती के कारण ,फिजूलखर्च की आदत डलवाना, अक्सर घातक सिद्ध होता है ! घर का माहौल ऐसा रखें कि बच्चे को माँ की या पिता की अवज्ञा की आदत न पड़े !  आप बच्चे को कभी भी यह अहसास न होने दें कि आप उस पर विश्वास नहीं करते हैं  ! विश्वास करने का नतीजा आपको यह मिलेगा कि जेब में पैसे होने के बावजूद, बच्चा गलत रास्ते पर नहीं जायेगा  और पैसे बर्वाद भी नहीं करेगा  क्योंकि यह धन उसका अपना होगा !
  • वयस्क होते ही बच्चों का, पर्याप्त पैसे के साथ बैंक खाता खुलवाएं और पासबुक ,चेक बुक और डेबिट कार्ड इस उम्र में, बिना किसी रोकटोक के उसे दें ! साथ ही  हर मांह एक निश्चित जेब खर्च देते रहे जिसे वह बैंक में, जब चाहे निकालने  के अधिकार के साथ , बैंक में खुद जमा किया करे ! इस पैसे का उपयोग पर कोई बंदिश न हो !
  • गाड़ी चलाना सीखने के बाद, ड्रायविंग लायसेंस बनवा कर उसे दें यह ध्यान रहे कि आवश्यकता और तफरीह के बीच का फर्क उसे आना चाहिए ! 
  • घर की आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी की जिम्मेवारी उसे भी शेयर  करने दें !
  • आप उसके सामने,अपने बड़ों का हमेशा सम्मान करें 1
आपके इस कदम के साथ यकीन करें आप अपने और बच्चे के मध्य एक बेहद मज़बूत रिश्ता बना पायेंगे  जिसको आज की ,तेज तूफानी हवा हिला भी न पायेगी ! 

    Thursday, March 25, 2010

    हिजड़े(Eunuch) - क्या आपने कभी इनके बारे में सोचा है ? -सतीश सक्सेना

    सवाल रोटी के इंतजाम का ...??
                      शादी विवाहों और ख़ुशी के अवसरों पर,  अकसर मनचाहे पैसे न मिलने पर जबान  चलाते किन्नर (हिजड़े - एक गाली ) आपको अवश्य याद होंगे ! हर ५-१० वर्षों में इन अवसरों पर अक्सर इनके द्वारा की गयी बेहूदगियों से  आपका मन भी अवश्य खराब हुआ होगा ! मगर क्या आपने कभी इनके बारे में सोचने के लिए अपना वक्त दिया है ?
                      अक्सर मैं भिखारियों को पैसा नहीं देता , हमारे देश में यह अब संगठित व्यवसाय बन चुका है , अतः मैं इस उद्योग की कोई मदद नहीं करता और चिल्लर गाड़ी में नहीं रखता ! मगर यदि मुझे कोई हिजड़ा, चौराहे पर भीख मांगता दिख जाये तो मैं उसे भीख न देकर, १०-५० रुपये तक की मदद हमेशा करने की कोशिश करता हूँ !
                        परमपिता परमात्मा से भी उपेक्षित, शारीरिक विकलांगता से ग्रसित यह इंसान ,पुरुष और  महिला वर्ग में न होने के कारण, जानवरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर है  ! शायद यही एक वर्ग ऐसा है जिसे परिवार से लेकर, बाज़ार तक भी कहीं कार्य नहीं दिया जाता  ! पूरा समाज  इन इंसानों की जो मज़ाक उड़ाता है  वैसा जानवरों  के साथ भी नहीं होता  ! क्या आपने कभी सोचा हैं कि .....
    • इन्हें हम  घर में नहीं घुसने देते और इनसे बिना दोष,सिर्फ शारीरिक विकलांगता के कारण नफरत करते हैं ! भिखारियों को खाना देते समय तक , हम इन्हें खिलाने की कल्पना तक नहीं करते ! समाज में गरीबों और भूखों को खाना खिलाने  में , पुण्य मिलने की बात कही गयी है ! मगर हिजड़ों को खाना खिलाते, आपने किसी को नहीं देखा होगा !
    • इन्हें व्यावसायिक प्रतिष्ठानों , दुकानों आदि में मजदूरी का कार्य भी नहीं मिलता अतः आपने किसी दुकान , माल में भी इन अभागे इंसानों को काम करते नहीं देखा होगा  ! 
    • शरीर के अस्वस्थ होने की स्थिति में, इनका इलाज़ कौन करेगा  ? समाज में हिकारत की द्रष्टि से देखे जाते यह लोग , बीमारी की स्थिति में, अच्छे प्राइवेट डाक्टर की सुविधा से लगभग वंचित हैं  ?
    • मानसिक अवसाद में जीते इन बच्चों के लिए, किसी इंस्टीटयूशन में पढाई हेतु दाखिला, एक दिवा स्वप्न ही है ? अच्छे परिवार के बच्चों के मध्य यह मानसिक विकलांग बच्चे, किसी कालेज में शिक्षा ले सकें, आधुनिक भारत में  अभी यह केवल एक कल्पना मात्र ही है !  
    • किसी मंदिर में इनके लिए विधिवत पूजा का कोई प्रावधान नहीं है ! अतः अक्सर इनकी  ईश आराधना एवं पूजा कार्य, अपने घर में ही सीमित होती है शायद इसीलिए इनकी प्रथाएं एवं अनुष्ठान लगभग गोपनीय होते हैं ! 
    • अपने खुद के परिवार में इनका स्थान बेहद दयनीय है  ! अक्सर परिवार के लोग, यह बताते हुए शर्मिंदा महसूस करते हैं कि यह उनके परिवार में पैदा हुए हैं ! अतः जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने परिवार , एवं  समाज से लगभग कटे रहने के लिए विवश हैं !  
    • सामाजिक स्थल जैसे पार्क,रेस्टोरेंट, कम्यूनिटी सेंटर, स्टेडियम, आदि में, आम व्यक्तियों  के साथ इन्हें हिस्सा नहीं लेने दिया जाता  ? सामान्य जन के लिए बनाए पब्लिक स्वीमिंग पूल में कोई हिजड़ा स्नान करने की सोंच ही नहीं सकता !
                  इन अभागों का पूरा जीवन, अपने लिए रोटी और बुढ़ापे की बीमारियों के इंतजाम करने में बर्बाद हो जाता है ! पहले किसी जमाने में नवाबों,सुल्तानों ने इन्हें सिर्फ हरम की चौकीदारी के लिए ही योग्य पाया था या फिर ये लोग सिर्फ नाच गाने कर अपना पेट पालते थे ! आज समय के साथ, इनके यह दोनों काम भी ख़त्म हो गए ! अब जब दूसरों की खुशियों , शादी विवाह जैसे मौकों पर, अपना पारंपरिक कार्य नाच गाने का आयोजन करने का प्रयत्न करते हैं तो हम लोगों को लगता है कि  धन उगाहने के लिए, यह अनचाहे मनहूस मेहमान यहाँ क्यों कर आ गये !
                 अधिकतर ऐसे मौकों पर यह लोग धन की मांग करने के लिए घेरा बंदी करते हैं ! इनकी दलील रहती है कि और किसी मौकों पर, उन्हें किसी प्रकार का धन नहीं दिया जाता अतः शादी अथवा बच्चा पैदा होने की ख़ुशी  में ही दानस्वरूप उचित पैसा मिलना ही चाहिए जिससे कि वे अंत समय तक के लिए, कुछ आवश्यक धन बचा सकें ! और अक्सर इसी कारण लोग इन्हें और भी हिकारत की  नज़र से देखते हैं !
                अफ़सोस है कि सरकार ने भी इनके पुनर्वासन के लिए अभी तक समुचित ध्यान नहीं दिया है !
    कृपया बताएं , यह रोटी कहाँ से खाएं  ??

    ( उपरोक्त यू वीडियो - आभार यथार्थ पिक्चर )

    Monday, March 22, 2010

    आस्था पर प्रश्न क्यों ? सतीश सक्सेना

    आज कल कुछ जगह, हमारे कुछ शास्त्रार्थ पंडित ,एक दूसरे की हजारों वर्षों पुरानी आस्थाओं को अपनी  आधुनिक निगाह से देखते हुए,जम कर प्रहार कर रहे हैं ! चूंकि दोनों पक्ष विद्वान् हैं अतः शालीनता भी भरसक दिखा कर अपने अपने जनमत की वाहवाही  लूट रहें हैं  ! 
    पुराने धार्मिक ग्रंथों में समय समय पर लेखकों अनुवादकों की बुद्धि के हिसाब से कितने बदलाव हुए होंगे फिर भी पूर्वजों और पंडित मौलवियों के द्वारा पारिभाषित ज्ञान को बिना विज्ञान की कसौटी पर कसे, हम इज्ज़त देते हैं और उसमें ही ईश्वर को ढूँढ़ते रहते हैं और निस्संदेह हमें फल भी मिलता है ! 
    ईश्वर चाहें उसके कितने ही नाम क्यों न हो अपने विभिन्न रूपों में हमारी आस्था का केंद्र रहा है और हमें शक्ति देता रहा है ! मगर यह कौन सी भावना और ज्ञान है जिसमें हम दूसरे घर की पूजा पद्धति को गालियाँ दें जिससे हमारा कुछ भी लेना देना नहीं  ! 
    यह विशुद्ध द्वेष और मूर्खता परोस कर हम अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं  ?? 

    Sunday, March 21, 2010

    यमुना मैय्या मैली सी !

    दिल्ली में यमुना एक नाले के रूप में बहती है , आर्ट ऑफ़ लिविंग  के द्वारा १७ मार्च से एक सामूहिक  प्रयास शुरू किया गया है , बहुत प्रसंशनीय कार्य मानते हुए लोगों ने इसमें योगदान किया है  ! "मेरी दिल्ली मेरी यमुना " अभियान में बिसिनेस स्कूल और अन्य कालेज के विद्यार्थी बढ़ चढ़ के हिस्सा लेते देखे गए यह एक अच्छा शकुन है !
    अगर यमुना के आस पास रहने वाले लोग ही, कमर कस कर निकल पड़ें तो मुझे विश्वास है कि हमारे माथे लगा यह गन्दा टीका साफ़ होते देर नहीं लगेगी !    

    Saturday, March 20, 2010

    जवान कैसे रहें -१ - सतीश सक्सेना

    जीवन का हर क्षण अमूल्य है, जीवन में हर क्षण का मज़ा लें ,ख़ास तौर पर उस समय और भी जब कोई अन्य आपको कष्ट देना चाह रहा हो ! मैंने अपने जीवन का कमाया धन 7० % अपने बच्चों पर, 2० % अपनों की अथवा जरूरत मंदों की मदद पर और १० % सिर्फ अपने ऊपर खर्च किया जिससे मैं अपने आपको खुश रख सकूं ! मुझे पूरा विश्वास है कि अगर मैं सानन्द हूँ तो मेरे आश्रित भी सुखी रह पायेंगे !
    बचपन से मेरे पसंद का एक शेर नज़र है ...

    "उम्रेदराज़ मांग के लाये थे चार दिन 
    दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में "

    आप अपनी जिन्दगी ऐसे  न कटने दें. वाकई में हम लोग दो चार दिन ही मांग के लाये हैं , हर दिन के, हर क्षण को, हँसते हुए और मस्ती में निकालें ,चाहे कितना ही अभाव ही क्यों न हो , रोते  समय भी हंसने का बहाना ढूँढ लें  !

    बचपन से याद, गोपालदास नीरज की  यह पंक्तियाँ मेरी पसंदीदा लाइनें रहीं हैं  !
    "जिन मुश्किलों में मुस्कराना हो मना
    उन मुश्किलों  में  मुस्कराना,  धर्म है !
    जब हाथ से टूटे न,  अपनी हथकड़ी 
    तब मांग लो ताकत स्वयं जंजीर से 
    जिस दम न थमती हो नयन सावन झड़ी 
    उस दम  हंसी ले लो किसी तस्वीर से 
    जब गीत गाना गुनगुनाना जुर्म हो 
    तब गीत गाना गुनगुनाना धर्म है !"

    उपरोक्त रचना मैंने हमेशा  गुरु मंत्र मान कर कंठस्थ किया और उसका पालन किया  ! आज भी मेरे मित्र मुझ ( सही उम्र नहीं बताऊंगा ) ३० साल के जवान को देख कर आश्चर्य चकित होते हैं !
    और हाँ मैं वाकई जवान हूँ ....

    Tuesday, March 16, 2010

    बेटियों का प्यार !


    मेर्रे गीत पर,  आदरणीय बृजमोहन श्रीवास्तव  के कमेंट्स पढ़कर की बोर्ड  से, उँगलियाँ हटाकर, निढाल सा हो गया ,
    बेटी शायद मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है  !

    "प्रिय सतीश -यह अनुभव ले पूरी तरह सिद्ध है कि बेटियां माँ बाप को ज्यादा चाहती है ,पुत्र तो शादी के बाद बदल भी जाता है किन्तु बेटी को शादी के बाद भी माँ बाप की चिंता सताती रहती है | इसका कारण है बचपन से ही पुत्र का कार्यक्षेत्र बाहर और बेटी का घर के अन्दर होता है |बेटी देखती है घर कैसे चलाया जा रहा है ,माँ को क्या क्या परेशानी हो रही है ,पिता कितने कष्ट सहन कर अल्प आय में घर चला रहा है ,उनके प्रति प्रेम व् सहानुभूति उसके मानस में अंकित हो जाती है बेटा इन सब से बेखबर रहता है"
    एक एक शब्द लगता है हर घर की कहानी है , कितने भारी  मन से  विदा होकर "अपने घर" जाती है हमारी बिटिया  "अपना घर" छोड़ कर ! उसका अपना घर विवाह के दिन से ही "मायका " बन जाता है और घर के लोग, घर से बेटी को भेज अक्सर गंगा नहाने जाते हैं , एक  जिम्मेवारी से मुक्ति मिली , और नए घोंसले में यह बच्ची अपनी जगह बनाने के प्रयास में एक नयी शक्ति से लग जाती है ! 
    सारे जीवन यह बच्ची "अपने घर" की याद आते ही तड़प उठती है , त्यौहार और मायके में हुए उत्सव के अवसरों पर, अक्सर भाई या पिता के संदेशे का इंतज़ार करती रहती है , कि  शायद इस बार माँ किसी को भेज पाए ! 
    और अक्सर माँ -बाप , अपने व्यस्त बेटे -बहू के सामने, अपने आपको असहाय सा महसूस करते हैं.....

    Friday, March 12, 2010

    प्रणय निवेदन - I - सतीश सक्सेना

    बरसों पूर्व लिखा गया यह एक लयबद्ध प्रेमपत्र, युवाओं को समर्पित है  !

    प्रथम प्यार का प्रथम पत्र 
    है, भेज रहा मृगनयनी को !
    उमड़ रहे जो भाव, ह्रदय में 
    अर्पित, प्रणय संगिनी को !
    इस आशा के साथ कि
    समझें तड़प हमारे प्यार की !
    प्रेयसि पहली बार लिख रहा, चिट्ठी तुमको प्यार की  !

    अक्षर बन के जनम लिया 

    है मेरे दिल के,भावों  ने !
    दबे हुए, जो बरसों से थे 
    लिखा उन्हीं  अंगारों ने !
    शब्द नहीं लिखे हैं इसमें , 
    भाषा  ह्रदयोदगार  की  !
    झुकी नज़र को इक पन्ने पर, भेंट हमारे प्यार की !

    तुम्हे दृष्टि भर  जिस दिन 
    देखा था सतरंगी रंगों में,
    भूल गया मैं , रंग पुराने
    भरे हुए थे ,  यादों  में !
    उसी समय से,पढनी सीखी , 
    गीता अपने,  प्यार की  !
    प्रियतम पहली बार गा रहा, मधुर रागिनी प्यार की !

    मुझे याद वे शब्द तुम्हारे
    ह्रदय पटल पर लिखे हुए 
    दुनिया वालों की नज़रों से
    कब के दिल में छिपे हुए 
    निज मन की बतलाऊं कैसे 
    बाते हैं , अहसास की !
    न जाने क्यों आज उठ रही, तड़प हमारे प्यार की !

    अगला भाग पढ़ने के लिए प्रणय निवेदन - II पर क्लिक करें !

    Saturday, March 6, 2010

    भारत माँ के ये मुस्लिम बच्चे - सरवत जमाल !- सतीश सक्सेना

    "मैं ने सिर्फ एक सच कहा लेकिन 
    यूं लगा जैसे इक तमाशा हूँ 

    मैं न पंडित, न राजपूत, न शेख 
    सिर्फ इन्सान हूँ मैं, सहमा हूँ "

    यह लफ्ज़ हैं ,५३ वर्षीय  सरवत एम् जमाल  के , जो उन्होंने अपने ब्लाग सरवत इंडिया पर लिखे नए लेख "होली ....ग़ज़ल " में व्यक्त किये हैं  ! यह दर्द उन्हें हमारे ही एक देश वासी  ने होली की मुबारकबाद भेजते समय अनजाने  में दे दिया ! शायद  
    • उन्हें अंदाजा ही नहीं होगा कि  उनके इन शब्दों से एक संवेदन शील दिल को कितनी तकलीफ होगी  कि वे शायद होली ही न खेल पायें !
    •  उन्हें शायद यह भी नहीं पता  होगा कि सरवत जमाल  ही नहीं इस देश में लाखो अल्पसंख्यक  अपने अन्य मित्रों के साथ ठीक वैसे ही  उत्साह से होली खेलते हैं जैसे हम .
    • उन्हें शायद यह भी नहीं पता होगा कि सरवत जमाल के घर में भी होली वैसे ही खेली जाती है जैसे उनके घर में !
    • उन्हें शायद यह भी  नहीं  पता होगा कि सरवत जमाल और उनकी धर्म पत्नी श्रीमती अलका मिश्रा  इस बार होली नहीं मना पाए  ! 
    • उन्हें शायद यह भी नहीं अंदाजा होगा कि इस परिवार की यह होली , इन शुभचिंतक के " आप भी तो भारतीय हैं ....."  जैसे शब्दवाण की भेंट चढ़ चुकी है !  
    एक मूर्ख और ह्रदयहीन व्यक्ति के द्वारा जाने अनजाने में कहे गए कडवे बोल किसी संवेदनशील  ह्रदय को छलनी कर सकते हैं , और ह्रदयहीन लोगों को इसका अहसास तक नहीं होता  अफ़सोस तब होता है जब संवेदनशीलता की दम भरते हम भारतीय  इस पर चुप्पी साध जाते हैं  !

    बेचारे सरवत जमाल इस पर और क्या कहें ....उनकी  ही ग़ज़ल की दो लाइनें  दे रहा हूँ ....

    "आपकी आंखों में नमी भर दी !
    बेगुनाहों ने मर के हद कर दी
    ...........
    और बेटी का बाप क्या करता
    अपनी पगडी तो पाँव में धर दी

    Thursday, March 4, 2010

    मेरे जीवित रहते हुए भी ......- सतीश सक्सेना

                        क्या आपने कभी यह सोचा है कि हमने अपने जीवन में कहाँ कहाँ गलतियाँ की है, अगर हम ईमानदारी से विगत जीवन का मूल्यांकन करें तो लगता है कि जीवन में कुछ भूलें बेहद बड़ी थीं , जो माफ़ करने लायक नहीं थीं और शायद इस समय भी अपनी आदतों में कोई सुधार नहीं कर पाया हूँ  !  मन  यह मानने को तैयार नहीं होता कि मेरी भयंकर भूलें, मात्र लापरवाही थी या जानबूझकर अपने आपको अन्य कार्यों में व्यस्त रखना ताकि मैं इस समस्या से बचा भी रहूँ एवं अपने आपको भविष्य में दोषी भी न ठहराऊं ! 
    मेरी इन भूलों अथवा लापरवाहियों के कारण, वे लोग असमय ही दुनिया से चले गए जिन्होंने मेरे बचपन में , सदा मेरी रक्षा की थी ,.....
    मुझे लगता है कि ...
    • मैंने अपने बड़ों की, उनके जीवनकाल में, वह सेवा नहीं की जिसके वे हकदार थे और उनके अवसान के बाद पछतावा किया कि जो सुविधाएँ मैं उन्हें आराम से दे सकता था वह सिर्फ लापरवाही के कारण नहीं दे सका !
    • मैं उनकी घातक बीमारी के समय में, अगर ठीक प्रकार उनके इलाज़ का प्रबंध करता तो वे शायद आज भी जीवित होते, ठीक अगर यही लापरवाही उन्होंने मेरे बचपन में की गयी होती तो शायद मैं आज यह लेख लिखने को जिन्दा न होता !
    • निस्संदेह वे हमसे बहुत अच्छे थे ! 

    Tuesday, March 2, 2010

    "ब्लाग जगत और सम्मान सुरक्षा" में आपकी आवाज चाहिए - सतीश सक्सेना

    अपने लिखे हुए को पढ़ पढ़ कर जो आत्म मुग्धता पिछले ५-६ वर्षों में हुई है , वह बिना भोजन १०-१५ साल जिन्दा रखने की एनर्जी ,और अपने चाटुकारों के साथ ,शरीफ लोगों का मज़ाक उड़ाने की  पर्याप्त ताकत दे सकती है ऐसा ब्लाग जगत में  आसानी से देखा और महसूस किया जा सकता है !  


    अच्छे आदमी की पहचान, उसके कार्यों से अथवा सोच  से होती है , और अक्सर रंगे सियार वक्त के साथ पहचान लिए जाते हैं और उस समय भी ये अपने कार्यप्रणाली पर पछतावा न करके, केवल अपनी पुरानी राज सत्ता और किये गए कुछ उल्लेखनीय कार्यों का हवाला देते देखे जाते हैं ! 


    यहाँ कुछ मदारी बढ़िया कपडे पहनकर,बिना पढ़े, किताबी संकलन के आधार पर, पहली द्रष्टि में लोगों को प्रभावित करने और पर्याप्त भीड़ इकट्ठी करने में  कामयाब हैं  ऐसे मदारियों की सख्त आवश्यकता, इन ब्लाग नायकों को हमेशा रहती है जिनको शुरू के दिनों, (कालोनी बसने के समय ) से २०-३० लोगों के मध्य वाहवाही की आदत पड़ गयी हो ! ब्लाग जगत में शांत स्वभाव से कार्य करने का अर्थ, अक्सर यह अति उत्साही ब्लागर उसकी कमजोरी मान लेते हैं और उसके कार्यों  का मखौल उड़ाकर, अपने प्रति भीड़ को आकर्षित करने का प्रयास करते रहते हैं ! नपुंसक दर्शकों के मध्य अधिकतर यह काम और भी आसान हो जाता है , प्रतिकार और प्रतिरोध न होने  के कारण सज्जनों का अपमान और दुर्जन महिमा मंडित होता देखना आम है  ! 

    अफ़सोस यह है कि यह कार्य वरिष्ठ ब्लागर अपने अनुयायियों के बल पर कर रहे हैं और प्रतिकार किये जाने पर , प्रतिकारी पर चोट करने के लिए इन चेलों के साथ साथ कई बार महागुरु को भी आकर पब्लिक में यह कहना पड़ता है कि उनके प्रिय ब्लागर ने कुछ नहीं किया केवल प्रतिकारी ही उत्पाती है और उसके महान और विद्वान् शिष्य  को बुरा बता कर, सस्ती लोकप्रियता हासिल करना चाह रहा है ! इस प्रकार के चरित्र हनन में, नवोदित और निर्दोष  ब्लागरों  की शक्ति का सफलता पूर्वक दुरूपयोग किया जा रहा है !   


    मुझे एक ऐसी ही घटना याद आ रही है जिसमें शांत स्वभावी अजीत वडनेरकर के साथ घटी थी और उसका किसी ने कोई प्रतिकार  नहीं किया था  ! अगर यह परंपरा ख़त्म नहीं की गयी तो कल आपके साथ भी यही घटना घटेगी और दोष आप भी तमाशबीनों को देंगे ! अतः हर हालत में आपको भीड़ से आगे आना  पड़ेगा ! किसी शायर की निम्नलिखित  इन अफसोसजनक पंक्तियों के दोषी हम सब समान रूप से ही हैं ...
    साहिल के तमाशाई , हर डूबने वाले पर  ,
    अफ़सोस तो करते हैं ,इमदाद नहीं करते 


    घटिया लोगों को महिमा मंडित करने का प्रयास नहीं होना चाहिए  और अगर तथाकथित अच्छे लोग भी यह प्रयास करते हैं तो यह सिर्फ  इन महानायकों द्वारा, अपनी सुरक्षा  के लिए गुंडे पालने जैसा ही है ! अगर गुरु ही असुरक्षा में जी रहे हैं तो वे लोगों को क्यां बांटेंगे ? कई बार सुवेषित बन्दर को , अनजाने में अथवा जल्दवाजी में    आदर्श मान लेने की भूल ,का प्रायश्चित्त करने में महीनो लगते हैं ! और धीर गंभीर लोगों के मध्य जग हंसाई होती है सो अलग ! मगर शरीफ अनुयायिओं को जब तक अपनी भूल का पाता चलता है तब तक यह गुरु लोग अपना उल्लू साध चुके होते हैं !

    मजेदारी यह है कि यह गुरु शिष्य , रक्षक और रक्षित दोनों ही कायर हैं , और  एक दुसरे को क्रीम पाउडर लगाकर ही, एक दुसरे का कद ऊँचा करने  में हमेशा प्रयास रत रहते हैं  ! 

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