कुछ शब्दों में हेरफेर कर
चौर्य कलाओं के छपने से
अधिपतियों के समर युद्ध में
चौर्य कलाओं के छपने से
अधिपतियों के समर युद्ध में
खूब पुरस्कृत सेवक होते ,
शिष्यों की गिनती बढ़वाते
मंच गवैयों , के इस युग में ,
कविता की बंजर धरती पर,
कविता की बंजर धरती पर,
करने इक प्रयास आया हूँ !
मानवता को अर्ध्य चढ़ाने , निश्छल जलधारा लाया हूँ !
सरस्वती की धार, न जाने
कब से धरती छोड़ गयी थी !
माँ शारदा, ऋचाएँ देकर
हिंदी जर्जर, भूखी प्यासी
निर्बल गर्दन में फंदा है !
कोई नहीं पालता इसको
कचरा खा खाकर ज़िंदा है !
कर्णधार हिंदी के, कब से
मदिरा की मस्ती में भूले !
साक़ी औ स्कॉच संग ले
शुभ्र सुभाषित माँ को भूले
इन डगमग चरणों के सम्मुख,
राजनीति के पैर दबाकर
बड़े बड़े पदभार मिल गए !
मानवता को अर्ध्य चढ़ाने , निश्छल जलधारा लाया हूँ !
सरस्वती की धार, न जाने
कब से धरती छोड़ गयी थी !
माँ शारदा, ऋचाएँ देकर
कब से, रिश्ते तोड़ गयी थीं !
ध्यान,ज्ञान,गुरु मर्यादा का
शिष्यों ने रिश्ता ही तोड़ा !
कलियुग सर पे नाच नाच के
तोड़ रहा, हर युग का जोड़ा !
कविता के संक्रमण काल में ,
ध्यान,ज्ञान,गुरु मर्यादा का
शिष्यों ने रिश्ता ही तोड़ा !
कलियुग सर पे नाच नाच के
तोड़ रहा, हर युग का जोड़ा !
कविता के संक्रमण काल में ,
चेतन ध्रुवतारा लाया हूँ !
जनमानस को झंकृत करने अभिनव इकतारा लाया हूँ !
हिंदी जर्जर, भूखी प्यासी
निर्बल गर्दन में फंदा है !
कोई नहीं पालता इसको
कचरा खा खाकर ज़िंदा है !
कर्णधार हिंदी के, कब से
मदिरा की मस्ती में भूले !
साक़ी औ स्कॉच संग ले
शुभ्र सुभाषित माँ को भूले
इन डगमग चरणों के सम्मुख,
विद्रोही नारा लाया हूँ !
भूखी प्यासी सिसक रही, अभिव्यक्ति को चारा लाया हूँ !
भूखी प्यासी सिसक रही, अभिव्यक्ति को चारा लाया हूँ !
राजनीति के पैर दबाकर
बड़े बड़े पदभार मिल गए !
गा बिरुदावलि महाबली की
हिंदी के,सरदार बन गए !
लालकिले से भांड गवैय्ये
भी भाषा की शान बन गए
श्रीफल, अंगवस्त्र, धन से
सम्मान विदेशों में करवाते,
धूर्त शिष्य, मक्कार गुरू के
धूर्त शिष्य, मक्कार गुरू के
द्वारे, नक्कारा लाया हूँ !
दम तोड़ते काव्य सागर में, जल सहस्त्र धारा लाया हूँ !
जाते जाते, काव्यजगत में
जाते जाते, काव्यजगत में
कुछ तो रस बरसा जाऊंगा
संवेदना ,प्रीति से भरकर
निर्मल मधुघट, दे जाऊंगा !
कविता झरती रहे निरन्तर
चेतन,मानवयुग कहलाये
कला,संस्कृति,त्याग धूर्तता
मानव मन श्रृंगार बनाएं !
सुप्त ह्रदय स्पंदित करने,
संवेदना ,प्रीति से भरकर
निर्मल मधुघट, दे जाऊंगा !
कविता झरती रहे निरन्तर
चेतन,मानवयुग कहलाये
कला,संस्कृति,त्याग धूर्तता
मानव मन श्रृंगार बनाएं !
सुप्त ह्रदय स्पंदित करने,
काव्यसुधा प्याला लाया हूँ !
पीकर नफरत त्याग , हँसे मन , वह अमृतधारा लाया हूँ !
पीकर नफरत त्याग , हँसे मन , वह अमृतधारा लाया हूँ !
मुझे पता है शक्की युग में
चोरों का सरदार कहोगे !
ज्ञात मुझे है, चढ़े मुखौटों
में, इक तीरंदाज़ कहोगे !
बेईमानों की दुनिया में हम
बदकिस्मत जन्म लिए हैं !
इसीलिए कर्तव्य मानकर
मरते दम तक शपथ लिए हैं
हिंदी की दयनीय दशा का,
चोरों का सरदार कहोगे !
ज्ञात मुझे है, चढ़े मुखौटों
में, इक तीरंदाज़ कहोगे !
बेईमानों की दुनिया में हम
बदकिस्मत जन्म लिए हैं !
इसीलिए कर्तव्य मानकर
मरते दम तक शपथ लिए हैं
हिंदी की दयनीय दशा का,
मातम दिखलाने आया हूँ !
जिसको तुम संभाल न पाए, अक्षयजल खारा लाया हूँ !
जिसको तुम संभाल न पाए, अक्षयजल खारा लाया हूँ !
वाह ! बहुत खूब ! बधाई इस सुंदर रचना के लिए..
ReplyDeleteबहुत सही . नमन आपके उद्गारों को .
ReplyDeleteजो सत्य है उसे समय सिद्ध करेगा -किसी के मानने ,न मानने से क्या !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर... दिल और दिमाग को झंकृत करते एक एक शब्द......
ReplyDeleteहिंदी जर्जर भूख प्यास से
ReplyDeleteप्लास्टिक खाकर भी ज़िंदा है
कोई नहीं पालता इसको
कचरा खा खाकर ज़िंदा है !
..................
जर्जर हिंदी माँ को भूले !
....
भूखी प्यासी सिसक रही, निज भाषा
का चारा लाया हूँ !
दो टूक शब्दों में खरी खरी सुनाने का अंदाज अच्छा लगा , प्रेरक है ,,,,
शिक्षक दिवस पर कविता-
Deleteकर्ज है उनका हम पर अक्षर अक्षर
मार दिया जिसने वो दानव, था कभी जो निरक्षर
बना जिससे, कोई अल्पज्ञ तो कोई सर्वज्ञ
पर छांया में इनकी रहा न कोई अज्ञ॥
अज है जिनका पद, महानता है जिनकी अगम्य
गर है इनका आशीश, होती न कोई मंजिल दुर्गम्य
कागज़ पे नहीं उभरेगा, अनिर्वचनीय है इनका स्वभाव
अलौकिक कहो या कहो ईश्वर, है इनमें तो हरइक भाव
असंख्य शब्द न कर सके वर्णन, ऎसी है अद्भूत इनकी छवि
मिलता है जिनसे ज्ञान का प्रकाश, केह दो भले ही उन्हें ज्ञान-रवि
कहे कोई शिक्षक या कहे गुरू, किन्तु इनका धर्म एक है
सत्-सत् प्रणाम करता हूँ उन्हें, जिनके परिणाम अनेक है॥
मन के भाव बाखूबी लिखे हैं आपने ...
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteशिक्षक दिवस पर कविता-
ReplyDeleteकर्ज है उनका हम पर अक्षर अक्षर
मार दिया जिसने वो दानव, था कभी जो निरक्षर
बना जिससे, कोई अल्पज्ञ तो कोई सर्वज्ञ
पर छांया में इनकी रहा न कोई अज्ञ॥
अज है जिनका पद, महानता है जिनकी अगम्य
गर है इनका आशीश, होती न कोई मंजिल दुर्गम्य
कागज़ पे नहीं उभरेगा, अनिर्वचनीय है इनका स्वभाव
अलौकिक कहो या कहो ईश्वर, है इनमें तो हरइक भाव
असंख्य शब्द न कर सके वर्णन, ऎसी है अद्भूत इनकी छवि
मिलता है जिनसे ज्ञान का प्रकाश, केह दो भले ही उन्हें ज्ञान-रवि
कहे कोई शिक्षक या कहे गुरू, किन्तु इनका धर्म एक है
सत्-सत् प्रणाम करता हूँ उन्हें, जिनके परिणाम अनेक है॥
लेखक: अश्विन गोयल
अद्भुत!मेरी शब्द शक्ति से परे! अखंड शुभकामना!!!!
ReplyDeleteवाह !!!!! आदरणीय सतीश जी नमन करती हूँ आपकी लेखनी की प्रखरता को !!!!!!!! बहुत ही अनुपम लेखन है आपका | दीपावली की पावन शाम में आपको अनंत शुभकामनायें प्रेषित करती हूँ |
ReplyDelete