Friday, March 25, 2011

हम क्या लिख रहे हैं - सतीश सक्सेना

        अगर किसी लेख़क के व्यवहार और व्यक्तित्व के बारे में जानना हो तो उनके  कुछ लेख ध्यान पूर्वक पढ़ लें  , उस व्यक्तित्व की  मानसिकता और व्यवहार आपको उसके लेखन में से साफ़ साफ़ दिखाई देगा !

        ब्लॉग जगत में एक से एक विद्वजन और सामाजिक विकास के प्रति समर्पित व्यक्तित्व कार्य रत हैं  जिनको पढ़कर अपने आप पर गर्व होता है कि हमने भी इन्हें पढ़ा है वहीँ दूसरी और हिंदी ब्लॉग जगत से वित्रष्णा पैदा करने की क्षमता रखने वालों की भी कमी नहीं है ! कई बार इन्हें पढ़कर लगता है कि यही पढना बाकी था  ?


        लोगों को प्रभावित करने के लिए, लिखे लेखों पर चढ़ा कवर, थोडा ध्यान से पढने पर ही उतरने लग जाता है  ! अपना चेहरा चमकाने की कोशिश में लगे ये लोग, खुशकिस्मत हैं  कि ब्लाग जगत में ध्यान से पढने की, लोगों को आदत ही नहीं है , अतः समाज और  सद्भावी माहौल को बर्वाद करने वाले, इन लोगों की पहचान, काफी समय बाद हो पाती है ! 

         इन  स्वयंभू लेखकों को शायद यह अंदाजा नहीं है कि लेखन के जरिये जो कुछ यहाँ बो रहे हैं यह अमर है ! लेखन और बोले शब्द समाप्त नहीं होते हैं बल्कि परिवार , समाज पर गहरा असर डालते हैं ! यह कभी न भूलें कि आप जो कुछ भी लिख रहे हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि आपके बच्चे , और परिवार के अन्य सदस्य देर सवेर उसे नहीं पढेंगे , उस समय आपको पढ़कर और जानकर वही इज्ज़त और सम्मान आपको देंगे जिसको आपका लेखन इंगित करता है !
  
             मेरा यह विश्वास है कि आने वाला समय बेहतर होगा , हमारी नयी पीढी यकीनन प्यार ,सद्भाव में हमसे अधिक अच्छी होगी अतः आज जो हम ब्लाग के जरिये दे रहे हैं, उसे एक बार दुबारा पढ़ के ही प्रकाशित करें ! कहीं ऐसा न हो कि आपको कुछ सालों के बाद पछताना पड़े कि यह मैंने क्या लिखा था  ?

Tuesday, March 22, 2011

आइये ठहाका लगाएं - सतीश सक्सेना

जनजीवन में हास्य की उपयोगिता, लगता है कम होती जा रही है  ! घर में खुशिया और मुस्कान बिखेरने के लिए, पूर्वजों  द्वारा व्यवस्थित उत्सव आते हैं और चले जाते हैं !  मगर हम लोग ,अपना बनाया गया  अहम्  प्रभामंडल, तोड़ने को तैयार नहीं !

कितने  वर्षों से , शीशे  के ,
सम्मुख आकर मुग्ध हुए हैं 
कितनी बार मस्त होकर के 
अपनी पीठ ,थपथपाई  है  ,
इस होली पर अहम् छोड़ कर, गुरु चरणों में शीश झुकालें !
प्यार और मस्ती  में  डूबें   , आओ  अहंकार   जला दें  !


अक्सर इस मानव जनित अहम् को तोड़ने में , बचपन का प्यार, स्नेह और ममता भी कमजोर पड़ने  लगती  है, कठोर ह्रदय को भी जीत लेने में समर्थ स्नेह और प्यार , इस मानव जनित, जटिल अहम् को कमजोर नहीं कर पाता  और जीत अक्सर अहम् की ही होती है !

ऐसे  ख़राब माहौल में , अपने कालरों को ऊंचा उठाये ब्लोग्स के मध्य, कुछ लोग हास्य बिखेरने का प्रयत्न कर रहे हैं , यह स्वागत योग्य है ..काश लोग हँसना सीखें तो कितने घरों में, मासूमों के चेहरों  पर रौनक  आ जाएगी !

ब्लॉग जगत में इस हास्य रौनक की शुरुआत  वंदना अवस्थी दुबे  ने  "अपनी बेवकूफियां बताइये " के आवाहन के साथ किया था  जो बहुत  कामयाब रहा  ! लोगों ने ऐसी ऐसी बेवकूफ़ियाँ बतायीं कि पाठकों को यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसी भी बेवकूफी की जा सकती है ! मजेदारी यह कि वंदना ने खुद अपनी कोई बेवकूफी नहीं  बताई .... 

वैसे  आम तौर पर लड़कियां कोई बेवकूफी करती भी नहीं  ... ;-) 

धूमधाम और नगाड़ों के मध्य, ब्लॉग जगत के सबसे बड़े चालबाज   ताऊ रामपुरिया ने,  शरीफ और सीधे साधे  चच्चा पिटलिए  को  पिटवाने के लिए ब्लॉग जगत के मशहूर पहलवानों  कनाडा से  समीर लाल जी, पिट्सबर्ग वाले अनुराग शर्मा , हैदराबाद से विजय कुमार सप्पति  एवं  बड़ी मूंछ वाले ललित शर्मा  को बुलवाकर , जर्मनी वाले राज भाटिया  के नेतृत्व  में पिटवाने का प्लान बनाया गया  ! बेचारे चच्चा इन भयंकर  और ताकतवर लोगों के सामने क्या बच पाते,  सो पिटे और बुरी तरह, निर्दयता से पिटे,  और जर्मनी वाली  रजिया भौजी गुलाबी चुन्नी में  मुस्कराती रही  :-)    

इस बार  ब्लॉग जगत के वकील साहब भाई द्विवेदी जी भी पीछे नहीं रहे ...ताऊ रामपुरिया के बारे में उनके विचार पढ़ कर हंसी छुट गयी ! एक बानगी देखिये....
"मारे कवि महोदय पिट-लिए उर्फ श्रीमान सतीश सक्सेना जी ही एक मात्र सीधे-सादे प्राणी निकले जो उधर ताऊ के गरही कवि सम्मेलन में सब के लट्ठ खा कर, वहाँ से किसी तरह जान बचा कर भागे थे। जल्दी में उन की अक्ल की पोटली ताऊ के घर ही छूट गई थी या फिर रास्ते में छोड़ आए थे। (रास्ते में छूटी होगी तो भी ताऊ के किसी बंदे ने ताऊ के पास पहुँचा दी होगी, इसी तरह दूसरों की अक्ल की पोटलियाँ समेट कर आज कल ताऊ अक्ल का जागीरदार बना बैठा है ...."   

परस्पर शिकायते और वैमनस्य  पालते हम लोग अगर इन प्रयासों के फलस्वरूप , भवें चढाने की जगह, मुस्करा सकें तो देखने में साधारण लगता यह कार्य, अपना महत्व बताने में कामयाब हो जायेगा !    

Wednesday, March 16, 2011

इस होली पर क्यों न साथियो,आओ रंग गुलाल लगा लें ? -सतीश सक्सेना

इस उत्सव में ,रंगों में डूब कर, वसंत का स्वागत करते हैं हम लोग ! पूरा परिवार ही रंगों में सराबोर होकर कुछ समय के लिए जैसे मस्ती में डूब जाता है  ! इस ख़ूबसूरत मौसम में  लगभग हर इंसान की,गैरों से भी गले मिलने की इच्छा पैदा हो जाती है ! एक बार अपने अन्दर झांक कर देखने से ,एक आवाज आती है ...


अपने घर में ही आँखों पर 
कैसी पट्टी , बाँध रखी है  ! 
इन  लोगों ने जाने कब से ,
मन में रंजिश पाल रखी है !
इस होली पर क्यों न सुलगते,
दिल के ये अंगार बुझा दें !
मुट्ठी भर कुछ रंग,फागुन में, अपने घर में भी, बिखरा दें 

मानव जीवन पाकर कैसे , 
बुद्धि गयी है,बिलकुल मारी ! 
खनक चूड़ियों की सुनते ही 
शंख ध्वनि से, लगन हटायी !
अपनों की वाणी सुनने की,
क्यों न आज से चाह जगा लें !
इस होली पर माँ पापा की ,चरण धूल को शीश लगा लें !

बरसों मन में गुस्सा बोई
ईर्ष्या  ने ,फैलाये  बाजू ,
रोते  गाते,हम लोगों ने 
घर बबूल के वृक्ष उगाये 
इस होली पर क्यों न साथियों,
आओ रंग गुलाल लगा लें ?
भूलें उन कडवी बातों को, आओ  अब  घर द्वार सजा लें !!

कितना दर्द दिया अपनों को 
जिनसे हमने चलना सीखा  !
कितनी चोट लगाई उनको 
जिनसे हमने,हँसना सीखा  !
स्नेहिल आँखों  के  आंसू , 
कभी नहीं जग को दिख पायें !
इस होली पर,घर में आकर,कुछ गुलाब के फूल चढ़ा लें !

जब से घर से दूर  गए हो ,
ढोल नगाड़े , बेसुर लगते !
बिन प्यारों के,मीठी गुझिया,
उड़ते रंग, सब फीके लगते !
मुट्ठी भर गुलाल फागुन में, 
फीके चेहरों को महका  दें !
सबके संग ठहाका लेकर,अपने घर को स्वर्ग  बना लें !

Friday, March 11, 2011

अरुणा शानबाग और हम लोग -सतीश सक्सेना

अरुणा शानबाग पर, गिरिजेश कुमार का यह लेख प्रसंशनीय है  ! शायद मेरे लेख की भी लोग तारीफ़ करेंगे मगर क्या हम लोग अरुणा के लिए कुछ भी ठोस कर पा रहे हैं ?? 

ऐसे मार्मिक मौकों पर, समाज ,पाठकों एवं तमाशबीनों की उपस्थिति  के बाद , इतिश्री हो जाती है ! इलेक्ट्रोनिक अथवा प्रिंट मीडिया की सफलता, लेख के सफल प्रदर्शन और प्रभाव पर निर्भर करती है और हम पाठक अक्सर तालियाँ बजा कर लेख का स्वागत करते हैं !

इसके बाद दर्शक गण, मदारी की तारीफ़ करते अपने घर जाते हैं और मदारी  किसी नए खेल और जमूरे के साथ  किसी और भीड़ भरी जगह की तलाश में !


क्या अरुणा को बचाने के प्रयास बंद कर देना चाहिए केवल इसीलिए कि उसका साथ  देने वाले परिवार जन न के बराबर है  ? क्या  और कुछ नहीं किया जा सकता  ? सम्मिलित शक्ति के साथ, अगर हम सब थोडा समय इस जीवंत समस्या  में लगायें तो शायद यह बदकिस्मत लड़की बच जाए !     

अरुणा का इलाज़ एलोपैथिक सिस्टम में संभव नहीं है  ....

मगर क्या आदिमकाल से मानव, पूरे विश्व में सिर्फ एलोपैथिक सिस्टम से इलाज़ करवाता आया है  ? 
क्या यह विज्ञानं व्यवस्था,  हमें एलोपैथिक सिस्टम के सामने घुटने टेकने के लिए मजबूर नहीं करती  ?? शक्तिशाली प्रचार तंत्र के होते , बंद  दिमाग लेकर चलते और जीते हम लोग, एलोपैथिक सिस्टम के आगे और कुछ सोंच ही नहीं पाते  ! 

एलोपैथी को छोड़ अगर हम वैकल्पिक चिकित्सा पर ध्यान  दें तो अरुणा को कोमा से बाहर लाया जा सकता है !  होमिओपैथी एवं विश्व की अन्य कई ऐसी विधियाँ हैं जो मृत प्राय लोगों को जिलाने की शक्ति रखती हैं ! 

अगर हो सके तो अरुणा के मित्र अथवा उसको मदद करते संगठन का पता लगा कर , उससे जुड़ने का प्रयत्न करें तो अभी भी कुछ हो सकता है !


मानव चाहे तो क्या नहीं कर सकता ......आवश्यकता सिर्फ सामूहिक ताकत का उपयोग करने का ही है , रास्ता निकल ही आएगा  !

Monday, March 7, 2011

गायब होती मान मनुहार -सतीश सक्सेना

पाश्चात्य प्रेम का अनुकरण बड़े उत्साह के साथ करते  हम लोग , आज अपने स्वाभाविक प्यार की शक्ति को, लगभग भूलते से जा रहे हैं ! अपने प्यारों को समझने और उसे अहसास करने के लिए समय ही नहीं मिलता ! 

अहंकार, जिसे अक्सर हम स्वाभिमान का नाम दे देते हैं, में डूबे हम लोग, अकसर अपनों से कड़वा बोलते, यह ध्यान नहीं कर पाते कि बरछी जैसे वाक्यों से, हम अपने प्यारों का दिल ही छलनी कर रहे हैं ! इस आहत दिल  को देख ,पास पड़ोस के परिजन भी, मलहम लगाने की जगह, अक्सर नमक छिडकते देखे जाते हैं ! और इन ईर्ष्यालु मित्रों की बदौलत, इस आग को और भड़कने का मौका मिलता है ! 

इससे बेहतर तो यह होता कि अपने दिल के ज़ख्म दिखाए ही न जाएँ , शायद समय के साथ भर जाते ! एक बार सुज्ञ जी ने यह शेर, मुझे भेजा था , आज भी भुला नहीं पाया हूँ ... 

क्यों दिखाते हो गहरे ज़ख्म,  अपने  सीने     के  ! 
लोग मुट्ठी में अक्सर , नमक लिए फिरते हैं   !   

याद है, एक शब्द हमारी भाषा में बहुत प्रचलित था " मनुहार  " ! अक्सर हम इस शब्द का उपयोग अपने बड़ों को या उन्हें, जिन्हें देख हमारे चेहरे खिल जाते थे, को मनाने में उपयोग करते थे  ! मान सम्मान के साथ, जब भी मनुहार की जाती थी, उस समय  कठोर वज्र समान दिल को भी, पिघलते देर नहीं लगती थी  ! मगर आज कोई मान मनुहार नहीं करता , पहले से ही, हीन ग्रंथियों से जकड़ा कमजोर मन , मान मनुहार को, दासत्व का नाम देने में, बिलकुल नहीं हिचकता ! 

और जुड़ने की इच्छा लिए, हम लोग और दूर होते चले जाते हैं !

Wednesday, March 2, 2011

ब्लॉग सरदार ?? -सतीश सक्सेना

"यह मेरी पहली पोस्ट थी वर्ष 2005 में सितम्बर माह की 18 तारीख को, जिसे संशोधित कर रहा हूँ। ब्लॉग बनाया था 17 सितम्बर को, विश्वकर्मा जयन्ती वाले दिन। कुछ पता नहीं था, ब्लॉग क्या होता है, इसकी उपयोगिता क्या है, कैसे लिखा जाए। सीखते सीखते आगे बढ़ा। उस समय यूनीकोड से भी परिचय नहीं था, तो विभिन्न अक्षरों में लिखे का snapshot लेकर यहीं चित्र के रूप में चिपका कर खुश हो लेता था। लगभग डेढ़ वर्ष में ही खुमार उतर गया क्योंकि स्वभाववश: इतनी ज़ल्दी-ज़ल्दी पोस्ट प्रकाशित करता था कि गूगल बाबा ने परेशान होकर तीन बार मुझे स्पैमर मानते हुए चेतावनी दे डाली और खाता बंद करने की धमकी भी दे डाली। इस बीच यहीं कई प्रयोग भी किए।
'और भी गम है जमाने में ब्लॉगिंग के सिवा' का भाव लिए अपन खिसक लिए और इन्डियाटाइम्स से एक सर्वर किराए पर ले, अपने शहर की वेबसाईट ही बना डाली। ब्लॉगजगत से नाता तो नहीं छूटा था। गाहे बगाहे नजर पड़ती ही रहती थी, मन मचलता ही रहता था फिर लौटने के लिए। कुच्छेक और विषय आधारित ब्लॉग बनाए। लेकिन व्यक्तिगत ब्लॉग होना ही चाहिए, ऐसा मेरी बिटिया का कहना था।

इसलिए यहाँ से पूर्व प्रकाशित (अजीबोगरीब) 953 पोस्ट हटा कर पुन: प्रवेश कर रहा हूँ।"

एक मस्तमौला सरदार द्वारा, १८ सितम्बर २००५ में लिखी गयी उपरोक्त ब्लॉग पोस्ट से, लेखक की ईमानदारी और एक विस्तृत दिल का पता चलता है ! बदकिस्मती से इतनी खूबसूरत पोस्ट किसी ने नहीं पढ़ी मगर इस सरदार ने वर्षों पहले अकेले शुरू किया सफ़र ख़त्म नहीं किया  , बल्कि आज भी जारी है !

इतने वर्षों में ब्लॉग जगत में यह सबसे विवादित लोगों के रूप में मशहूर हो गए ! अभी कुछ दिन पहले इनके द्वारा  , मेरे ब्लॉग पर आकर  गुस्से में दी गयी वह टिप्पणी "......हमें क्या पागल समझ रखा है " टाइप मुझे बिलकुल पसंद नहीं आई और डिलीट  कर दी  और काफी दिन तक इस "पागल" सरदार से कोई संबंध न रखूंगा , तय कर इनका ब्लॉग पढना बंद कर दिया !

मगर ब्लॉग जगत बहुत छोटा है ...कुछ न कुछ सरदार की हरकतों ( पोस्ट ) पर निगाह पड़ती ही रहती थी ! कुछ दिनों में यह महसूस होने लगा यह अजीब पर्सनालिटी  में ऐसा कुछ अवश्य है जो मुझे खींचता है इन्हें पढने के लिए ! जो बेहतरीन गुण लगे वे थे मददगार, गर्व रहित, ईमानदारी और निश्छलता और शायद यही गुण ब्लॉग जगत में कम से कम मिलते हैं ,  और मुझे लगा कि यह सरदार कुछ अलग है, प्यारा है !

पहचानिए कौन है ? 
अपनी पूर्व प्रकाशित अजीबोगरीब 953 पोस्ट हटाकर, दुबारा ब्लॉग जगत में प्रवेश करने वाला यह मिलनसार, बेवाक, मददगार मगर बेहद विवादित ब्लॉग सरदार......अजय कुमार झा  व हम सबके  परम मित्र, श्री बी एस पाबला हैं ! ! 
शुभकामनायें पाबला जी ! 
  
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