जैसे कल की बात रही
गेहूं चुरा के घर से लड्डू
बर्फी, खाया करते थे !
बड़े सवेरे दौड़ बाग़ में
आम ढूंढते रहते थे !
कहाँ गए वे संगी साथी
कहाँ गए वे संगी साथी
बचपन जाने कहाँ गया !
कस के मुट्ठी बाँधी फिर भी, रेत फिसलती जाती है !
इतनी जल्दी क्या सूरज को ?
रोज शाम गहराती है !
बचपन ही भोलाभाला था
सब अपने जैसे लगते थे !
जिस घर जाते हँसते हँसते
सारे बलिहारी होते थे !
जब से बड़े हुए बस्ती में
हमने भी चालाकी सीखी
औरों के वैभव को देखा
हमने भी ,ऐयारी सीखी !
धीरे धीरे रंजिश की, कुछ बातें खुलती जाती हैं !
बचपन की निर्मल मन धारा
मैली होती जाती है !
रोज शाम गहराती है !
बचपन ही भोलाभाला था
सब अपने जैसे लगते थे !
जिस घर जाते हँसते हँसते
सारे बलिहारी होते थे !
जब से बड़े हुए बस्ती में
हमने भी चालाकी सीखी
औरों के वैभव को देखा
हमने भी ,ऐयारी सीखी !
धीरे धीरे रंजिश की, कुछ बातें खुलती जाती हैं !
बचपन की निर्मल मन धारा
मैली होती जाती है !
अपने चन्दा से, अभाव में
सपने कुछ पाले थे उसने !
और पिता के जाने पर भी
आंसू बाँध रखे थे अपने !
अब न जाने सन्नाटे में,
अम्मा कैसे रहतीं होंगी !
सपने कुछ पाले थे उसने !
और पिता के जाने पर भी
आंसू बाँध रखे थे अपने !
अब न जाने सन्नाटे में,
अम्मा कैसे रहतीं होंगी !
अपनी बीमारी से लड़ते,
कदम कदम पर गिरती होंगीं !
जाने कितने बरसों से, यह बात सालती जाती है !
धीरे धीरे ही साहस की परतें
खुलती जाती हैं !