कहाँ पे जाके कलम चलाई धत्त तेरे की,
किसके ऊपर लिखी रुबाई, धत्त तेरे की !
पूरे जीवन जिए शान से, नज़र उठा कर,
और कहाँ पे नज़र झुकाई, धत्त तेरे की !
सबसे पहले किससे हमने आँख मिलाई,
और किसे आवाज लगाई, धत्त तेरे की !
आँख न लगने दी, चौकन्ने थे, ड्यूटी पर
और कहाँ जाकर झपकाई, धत्त तेरे की !
किसके ऊपर लिखी रुबाई, धत्त तेरे की !
पूरे जीवन जिए शान से, नज़र उठा कर,
और कहाँ पे नज़र झुकाई, धत्त तेरे की !
सबसे पहले किससे हमने आँख मिलाई,
और किसे आवाज लगाई, धत्त तेरे की !
आँख न लगने दी, चौकन्ने थे, ड्यूटी पर
और कहाँ जाकर झपकाई, धत्त तेरे की !
ताल ठोक कर बड़े भयंकर शेर सुनाये
और कभी ना हुई धुनाई, धत्त तेरे की !
कवि बन के हिन्दी की करते ऎसी तैसी
पुरस्कार की हाथा पाई , धत्त तेरे की !
बने मसखरे उपाध्यक्ष अब अकादमी के !
कैसी समझ आप को आई,धत्त तेरे की !
और कभी ना हुई धुनाई, धत्त तेरे की !
कवि बन के हिन्दी की करते ऎसी तैसी
पुरस्कार की हाथा पाई , धत्त तेरे की !
बने मसखरे उपाध्यक्ष अब अकादमी के !
कैसी समझ आप को आई,धत्त तेरे की !
सुन्दर रचना । मज़ा आ गया । बधाई ।
ReplyDeleteगजब की शिकायत और सीख जीवन की कड़ियाँ खोलती और जोड़ती
ReplyDeleteबेहतरीन गीत बधाई
कमी आपके लेखन में बतलायें कैसे,
ReplyDeleteहमको कमी नज़र ना आयी, धत्त तेरे की!
अनुज आपके हैं, सीखा है आपसे कितना,
कमी बताकर करें ढ़िठाई, धत्त तेरे की!
यह सही रहा :)
Deleteरुशवाईओ का दौर है धत तेरे की .....
ReplyDeleteहा हा, सच में, धता तेरे की ही हो गयी जिन्दगी।
ReplyDeleteकुछ कहना चाहता था पर अब नहीं कह सकता जब आप ने कह दिया ज्ञानी कमी बताएं आकर ,धत तेरे की !
ReplyDeleteअपना फ़लसफ़ा बहुत रोचक तरीके से पाठकों तक पंहुचाया...अब कोई ज्ञान देने कि कोशिश नहीं करेगा...
ReplyDeleteलेखन भी हिन्दी में,आये हैं लिखने को !
ReplyDeleteज्ञानी कमी बताएं आकर ,धत तेरे की !
हमारे प्रशंसक वही कहते है जो हमें अच्छा लगता है
वो नहीं जो सच है,कही मैंने गलत तो नहीं कह दिया धत तेरे की :)
सुंदर रचना.
ReplyDelete☆★☆★☆
धत तेरे की !
वाह…!
आदरणीय सतीश जी भाईसाहब
मस्त लिखा
:)
लेखन भी हिन्दी में,आये हैं लिखने को !
ज्ञानी कमी बताएं आकर ,धत तेरे की !
बधाई और शुभकामनाएं !
मंगलकामनाओं सहित...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
एकदम मस्त।
ReplyDeleteवाह सतीश जी ... लाजवाब में कमी कोई कैसे बताए ...
ReplyDeleteधत तेरे की ... जय हो ...
पूरे जीवन जिए शान से,नज़र उठा कर,
ReplyDeleteऔर मरे थे कहाँ पंहुचकर,धत तेरे की !
गैरों के शक पर अब करें शिकायत कैसी
तुम भी कौन समझ पाए थे, धत तेरे की !
सुन्दर प्रस्तुति
क्या क्या कब कब हो गया पता चला नहीं धत तेरे की.
बहुत ही उम्दा,प्रस्तुति केलिए बधाई सतीश जी !
ReplyDeleteRECENT POST -: एक बूँद ओस की.
धत्त तेरों की जिन्होंने ऐसी स्थिति लाई
ReplyDeleteबहुत बढिया..आभार
ReplyDeleteकितनी प्यारी रचना,,पढ़ने में मज़ा आया ,कहाँ जाके अंत होता है--धत तेरे की।
ReplyDeleteइतनी दौड़ धूप और फिर ऐसी कविताई
ReplyDeleteअद्भुत कला आपने पाई . . . .
सादर