Sunday, December 7, 2014

दुखद संक्रमण काल, तुम मुझे क्या दोगे - सतीश सक्सेना

समय प्रदूषित, लेकर आये,  क्या दोगे ?
कालचक्र विकराल,तुम मुझे क्या दोगे ?

दैत्य , शेर , सम्राट 
ऐंठ कर , चले गए !
शक्तिपुरुष बलवान

गर्व कर  चले गए ! 
मैं हूँ प्रकृति प्रवाह, 
तुम मुझे क्या दोगे ?  
हँसता काल विशाल, तुम मुझे क्या दोगे ?

मैं था ललित प्रवाह 
स्वच्छ जल गंगे का 
भागीरथ के समय 
बही, शिव गंगे का !
किया प्रदूषित स्वयं,
वायु, जल, वृक्षों को ?
कालिदास संतान ! तुम मुझे  क्या  दोगे ?

अपनी तुच्छ ताकतों 
का अभिमान लिए !
प्रकृति साधनों का 
समग्र अपमान किये  
करते खुद विध्वंस, 
प्रकृति संसाधन के !
धूर्त मानसिक ज्ञान, तुम मुझे क्या दोगे !

विस्तृत बुरे प्रयोग 
ज्ञान संसाधन  के  !
शिथिल मानवी अंग
बिना उपयोगों  के !
खंडित वातावरण, 
प्रभा मंडल  बिखरा ,
दुखद संक्रमण काल, तुम मुझे क्या दोगे !

यन्त्रमानवी बुद्धि , 
नष्ट कर क्षमता को,
कर देगी बर्बाद ,
मानवी प्रभुता को !
कृत्रिम मानव ज्ञान, 
धुंध मानवता पर !
अंधकार विकराल, तुम मुझे क्या दोगे !

21 comments:

  1. बहुत सुंदर प्रवाह :)

    किसे पड़ी है कौन किसे क्या और कितना देगा
    कौन किसी से लेगा और कितना कितना लेगा
    लेने देने की बातों बातों में ये अंधा युग गुजरेगा :)

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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  3. मानवी अति का आज का विकराल रूप देगा तो क्या ,पता नहीं क्या-क्या वसूल कर ले जाएगा !

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  4. गंगा कहॉ ले निर्मल होही सबो गंदगी ऊँहे जात हे ।
    कहूँ झन करौ पूजा ओकर एही एक ठन सार बात ए ।

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  5. हमारी मुलभुत आवश्यकताओं को पुरे करने की ताकत प्रकृति में है लेकिन लोभ के लिए कोई स्थान नहीं, "वीर भोगे वसुंधरा" इस सूत्र को मनुष्य ने गलत परिभाषित करने का नतीजा है सब कुछ, वीर का मतलब ताकतवर शक्तिशाली होकर प्रकृति पर कब्ज़ा करना नहीं है ! वीर वही होता है जो प्रकृति से समष्टि से प्रेम करता है और प्रेम करने वाला ही उसकी हिफाजत भी करता है ! उसपर अपनी ताकत से कब्ज़ा नहीं जमाता न ही उसका दोहन करता है बल्कि जितना उससे लेता है उतना ही लौटाता है ! लेन देन के इस सूत्र को जो जानता है वही इस प्रकृति की अमूल्य संपदाओं का उपभोग कर सकता है ! सो इस रचना के लिए साधुवाद !

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  6. प्रकृति-प्रवाह को किस खूबसूरत शब्दों में आपने बांधा --सार्थक रचना

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  7. मैं था ललित प्रवाह
    स्वच्छ जल गंगे का
    भागीरथ के समय
    बही, शिव गंगे का ...
    आज तो ये पवन, नदिया, पर्वत, मिटटी आकाश सभी कोइ पूछता है की क्या डोज ... इन्सान जो छीनना जानता है वो देगा भी क्या ... गहरी चिंता का भाव लिए सुद्रिड पंक्तियाँ ...

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  8. मैं था ललित प्रवाह
    स्वच्छ जल गंगे का
    भागीरथ के समय
    बही, शिव गंगे का !
    किया प्रदूषित स्वयं,वायु, जल, वृक्षों को ?
    कालिदास संतान ! तुम मुझे क्या दोगे ?

    बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ..

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  9. बहुत सुंदर एवं प्रभावी रचना.

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  10. We are all tools in the mighty hands of Time. Basically man is very tiny player for very short time so there is no scope for any kind of ceit or any other ill-inclinations. O Man, know your limits, and remain within !

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  11. कुछ देने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती,अंधाधुंध विनाशकारी दोहन न किया जाय इतना ही बहुत है।

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  12. सच है। कालिदास की तरह जिस डाली पर बैठे उसी को काट रहे हैं हम।

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  13. जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें!

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  14. प्रभावशाली प्रस्तुति !!

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  15. मैं हूँ प्रकृति प्रवाह, तुम मुझे क्या दोगे ?
    हँसता काल विशाल,तुम मुझे क्या दोगे ?.....sunder panktiya.....prakrati hume deti h use kuch dena insaan k bs m nahi ha..jo usne hume anmol dharohar di h use he hum samajh paye to maa prakrati ka bojh kuch km ho....bahut he sunder srijan h sir ..waah ! antarman ko jhanjhodti h aapki rachna

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  16. सुंदर और सार्थक

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  17. बहुत सुन्दर ...!!!

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  18. समसायिक रचना के लिए बहुत साधुवाद, आज बहुत जरूरत है इस क्षेत्र में काम करने की, शुभकामनाएं।
    रामराम।

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एक निवेदन !
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- सतीश सक्सेना

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