पिछली पोस्ट में प्रवीण पाण्डेय की टिप्पणी पढ़कर देखता ही रह गया ...
"मैंने तो मन की लिख डाली,
अब शब्दों की जिम्मेदारी ! "और उनको एक पत्र लिखा ...
प्रवीण भाई,
आपकी दी हुई उपरोक्त दो लाइने अच्छी लगी हैं ! इस गीत को आगे पूरा करने का दिल है ...इजाज़त दें तो ... :-)
और जवाब तुरंत आया ....
आपको पूरा अधिकार है, निश्चय ही बहुत सुन्दर सृजन होगा, कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं मैने भी पर भाव अलग हैं। प्रतीक्षा रहेगी आपके गीत की। सादर , प्रवीण
प्रवीण पाण्डेय,मेरी नज़र में बहुत ऊंचा स्थान ही नहीं रखते अपितु उनकी रचनाओं से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ! हिंदी भाषा का यह सौम्य सपूत वास्तव में बहुत आदर योग्य है !
उनके प्रति आभार के साथ, इस रचना का आनंद लें ...अगर आप लोग आनंदित हुए तो रचना सफल मानी जायेगी !
मैंने कुछ रंग लगाये हैं
अंतर्मन से ही नज़र पड़े
ऐसे अरमान जगाये हैं !
मानवता गौरवशाली हो
तब झूम उठे, दुनिया सारी !
मैंने तो मन की लिख डाली, अब शब्दों की जिम्मेदारी !
ये शब्द ह्रदय से निकले हैं
इन पर न कोई संशय आये
वाक्यों के अर्थ बहुत से हैं,
अपने भावों से पहचानें !
मैंने तो अपनी रचना की ,
हर पंक्ति तुम्हारे नाम लिखी !
जाने क्या अर्थ निकालेगी, इन छंदों का, दुनिया सारी !
असहाय, नासमझ जीवों की
आवाज़ उठाना लाजिम है !
मानव की कुछ करतूतों से
आवरण उठाना वाजिब है !
पाशविक प्रवृत्ति का नाश करे,
मानवता हो, मंगल कारी
इच्छा है, अपनी भूलों को , स्वीकार करे दुनिया सारी !
जिस तरह प्रकृति का नाश ,
करें खुद ही मानव की संताने
फल,फूल,नदी,झरते झरने
यादें लगती, बीते कल की !
गहरा प्रभाव छोड़े अपना ,
कुछ ऐसी करें कलमकारी !
प्रकृति की अनुपम रचना का, सम्मान करे दुनिया सारी !
मृदु भावों का अहसास रहे ,
बचपन से, मांगे मुक्त हंसी
स्वागत सबका, सम्मान रहे !
दुश्मनी रंजिशें भूल अगर,
झूमेगी तब महफ़िल सारी !
यदि गैरों की भी पीड़ा का ,अहसास करे दुनिया भारी !
बच्चों को टोकें , हंसने से !
कलियों को रोकें खिलने से
हर हृदय कष्ट में आ जाता
आस्था पर प्रश्न उठाने से !
क्रोधित मन, कुंठाएँ पालें,
ये बुद्धि गयी कैसे मारी !
गुरुकुल की, शिक्षाएँ भूले , यह कैसी है पहरेदारी !
कुछ ऐसा राग रचें मिलकर
सुनकर उल्लास उठे मन से
कुछ ऐसा मृदु संगीत बजे
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
यदि गीतों में झंकार न हो,
तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी !
हर रचना के मूल्यांकन में इन शब्दों की जिम्मेदारी !