साजिश है, आग लगाने की
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
कुछ पत्थर हम पर फेंक गए
हम समझ नही पाए, हमको
क्यों मारा ? इस बेदर्दी से ,
बेदर्दों को तकलीफ नहीं,
कैसी कठोर क्षमताएँ हैं !
हम चोटें लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
फिर जाएँगे , उनके दर पर,
हम हाथ जोड़ अपने पन से,
इक बाल हृदय को क्यूँ ऐसे
भेदा अपने , तीखेपन से !
शब्दों में शक्ति तुम्हीं से हैं,
सब तेरी ही प्रतिमाएँ हैं !
हम घायल होकर भी सजनी कुछ आस जगाये बैठे हैं !
हम जी न सकेंगे दुनिया में
माँ जन्में कोख तुम्हारी से
जो कुछ भी ताकत आयी है
पाये हैं, शक्ति तुम्हारी से !
इस घर में रहने वाले सब,
गंगा ,गौरी,दुर्गा,लक्ष्मी ,
सब तेरी ही आभाएँ हैं !
हम अब भी आंसू भरे तुझे, टकटकी लगाए बैठे हैं !
जन्मे दोनों इस घर में हम
और साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
भाई बहना का प्यार सदा
जीवन की अभिलाषाएँ हैं !
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हें
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
कहने सुनने से होगा क्या
फिर भी मन में आशाएँ हैं !
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
जब भी कुछ फूटा अधरों से
तब तब ही उंगली उठी यहाँ
जो भाव शब्द के परे रहे
वे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह वाद नहीं प्रतिवाद नहीं,
मन की उठती धारायें हैं,
ले जाये नाव दूसरे तट, हम पाल चढ़ाये बैठे हैं ! (यह खंड श्री राकेश खंडेलवाल ने लिखा है )
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
चाहें कितना भी रंज रखो
फिर भी तुमसे आशाएँ हैं !
हम आशा भरी नज़र लेकर, उम्मीद लगाए बैठे हैं !फिर भी तुमसे आशाएँ हैं !
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
कुछ पत्थर हम पर फेंक गए
हम समझ नही पाए, हमको
क्यों मारा ? इस बेदर्दी से ,
बेदर्दों को तकलीफ नहीं,
कैसी कठोर क्षमताएँ हैं !
हम चोटें लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
फिर जाएँगे , उनके दर पर,
हम हाथ जोड़ अपने पन से,
इक बाल हृदय को क्यूँ ऐसे
भेदा अपने , तीखेपन से !
शब्दों में शक्ति तुम्हीं से हैं,
सब तेरी ही प्रतिमाएँ हैं !
हम घायल होकर भी सजनी कुछ आस जगाये बैठे हैं !
हम जी न सकेंगे दुनिया में
माँ जन्में कोख तुम्हारी से
जो कुछ भी ताकत आयी है
पाये हैं, शक्ति तुम्हारी से !
इस घर में रहने वाले सब,
गंगा ,गौरी,दुर्गा,लक्ष्मी ,
सब तेरी ही आभाएँ हैं !
हम अब भी आंसू भरे तुझे, टकटकी लगाए बैठे हैं !
जन्मे दोनों इस घर में हम
और साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
भाई बहना का प्यार सदा
जीवन की अभिलाषाएँ हैं !
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हें
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
कहने सुनने से होगा क्या
फिर भी मन में आशाएँ हैं !
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
जब भी कुछ फूटा अधरों से
तब तब ही उंगली उठी यहाँ
जो भाव शब्द के परे रहे
वे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह वाद नहीं प्रतिवाद नहीं,
मन की उठती धारायें हैं,
ले जाये नाव दूसरे तट, हम पाल चढ़ाये बैठे हैं ! (यह खंड श्री राकेश खंडेलवाल ने लिखा है )
बहुत ही सुंदर, बेहतरीन।
ReplyDeleteक्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
ReplyDeleteक्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
अपने जख्मों को दिखलाते , वेदना अन्य की क्या समझें !
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बहुत नर्म भाव जो ठेठ मर्म को छूतें है .................... पर कहीं कहीं सम्मान सहित समझाने को भी अपमान समझ लिया जाता है .
गुरुदेव सुना था प्यार बांतने से बढता है..
ReplyDeleteपर अब तो प्यार का टोटा ही पड़ा हुआ है.
गर्वित मन को रोकें कैसे,जो व्यथा दूसरों की समझे हम आशा भरी नज़र लेकर, उम्मीद लगाए बैठे हैं !
ReplyDelete...........एक एक शब्द संवेदनाओं से भरा है, बेहद मार्मिक रचना...बेहतरीन लेखन...
....आपकी कविताओं में काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविक दर्द अभिव्यक्त होता है !
ReplyDeleteवाह! वेदना की अनुपम अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteफिर जायेंगे, उनके दर पर,
हम हाथ जोड़ अपनेपन से,
इस बालह्रदय, को क्यों तुमने
इस तीखे पन से भेद दिया ?
कडवी जिह्वा रखने वाले, संयम की भाषा क्या समझें
हम घायल होकर भी, कबसे उम्मीद लगाये बैठे हैं !
अपनापन, नम्रता और उम्मीद यही
तो है वेदना को सहने का सही तरीका.
आपकी सुन्दर प्रस्तुति से वेदना को
सहने की नई दिशा मिली
बहुत बहुत आभार.
मेरा ब्लॉग आपके शुभ दर्शन को बेताब है,सतीश भाई.
सतीश जी,
ReplyDeleteपहले भी आपके कई गीत बहुत पसन्द आये हैं, लेकिन आज की बात ही निराली है, मनन करने योग्य ... कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: ...
सतीश जी,
ReplyDeleteपहले भी आपके कई गीत बहुत पसन्द आये हैं, लेकिन आज की बात ही निराली है, मनन करने योग्य ... कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: ...
अनुभूति से निस्सृत गीत. बहुत सुंदर है.
ReplyDeletebehtreen laajabab kavita.
ReplyDeletesatish
ReplyDeletegood to see u writing back
अपने जख्मों को दिखलाते , वेदना अन्य की क्या समझें !
ReplyDeleteहम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
वाह, बहुत सुन्दर !
तीन क्षणिकाएं ... विभीषण !
भाई जी ,नमस्कार !
ReplyDeleteआप की वेदना में मेरी भी साझेदारी है ..
शुभकामनाएँ!
मन के भावों को बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है ...
ReplyDeleteनि:शब्द कर दिया..|
ReplyDeleteजब भी कुछ फ़ूटा अधरों से
ReplyDeleteतब तब ही उंगली उठी यहाँ
जो भाव शब्द के परे रहे
वे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह वाद नहीं प्रतिवाद नहीं,मन की उठती धारायें हैं,
ले जाये नाव दूसरे तट, हम पाल चढ़ाये बैठे हैं !
खंड प्रति -खंड दोनों अंग प्रत्यंग सुन्दर !
gahan vedna abhivyakti ...
ReplyDeletesunder rachna ..shubhkamnayen...
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
ReplyDeleteक्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
अपने जख्मों को दिखलाते , वेदना अन्य की क्या समझें !
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
....लाज़वाब ! अद्भूत भावों का प्रवाह जो अंत तक बांधे रखता है...बहुत सुन्दर
गर्वित मन को रोकें कैसे,जो व्यथा दूसरों की समझे
ReplyDeleteहम आशा भरी नज़र लेकर, उम्मीद लगाए बैठे हैं !
जबर्दस्त्त कविता है.
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवाह सतीश भाई . ऐसा अंदाज़ तो पत्थर को भी पिघला सकता है .
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से सारी बात कह दी .
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
ब्लॉग जगत में इससे बड़ा सवाल और कोई नहीं हो सकता .
क्या कहें वेदना-गीत को हम,
ReplyDeleteमन भर आया,दिल व्यथित हुआ
यह ह्रदय तुम्हारा इक सागर,
दुःख पार नहीं पा सकता है,
दुनिया चाहे उपहास करे दुःख होता है मन रोता है,
दूजे के दुखों को अपने सीने से लगाए बैठे हैं!
वाह .....बहुत सुन्दर गीत
ReplyDeleteहम तो बस यही कह सकते हैं कि:
ReplyDeleteगीत कितने गा चुके हैं इस दुखी जग के लिए,
वेदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो!
यही उम्मीद तो वेदना की नदी पार करा देती है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया बेहतरीन ....कभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
सतीश भाई समझदारों के लिए इशारा काफी होता है। पर यह इशारा कितनी बार किया जाएगा।
ReplyDelete*
आपकी वेदना अपनी भी है। अमित जी ने ठीक ही लिखा है कि कहीं कहीं सम्मान सहित समझाने को भी अपमान समझ लिया जाता है।
जो भाव शब्द के परे रहे
ReplyDeleteवे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह भाव भी आपके ही है ...
मन को बेंधती अभिव्यक्ति ....
सतीश जी नमस्कार। सुन्दर अभिव्यक्त- गर्वित मन को रोकें कैसे,जो व्यथा दूसरों की समझे हम आशा भरी नज़र लेकर, उम्मीद लगाए बैठे हैं। ये लाइनें मुझे अच्छी लगी।
ReplyDeleteआज की रचना अपने आप में बेजोड है, वर्तमान माहोल के लिये भी इससे सर्वोत्तम कोई रचना नही हो सकती. हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
कडवी जिह्वा रखने वाले, संयम की भाषा क्या समझें
ReplyDeleteहम घायल होकर भी, कबसे उम्मीद लगाये बैठे हैं
खुबसूरत अहसासों को लफ़्ज दे दिए बहुत खूब ..
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
ReplyDeleteकुछ पत्थर हम पर फ़ेंक गए
हम समझ नही पाए, हमको
क्यों मारा ? इस बेदर्दी से ,
यह शब्द तो मेरे मन के हैं, बहुत मनन किया है, ऐसा क्या हुआ?
सतीश भाई ,
ReplyDeleteइस भाव पर आपके लिए आशीष जाग उट्ठे हैं !
उम्मीद अक्षत ही रहें
अरमान भी !
संवाद की यह पेशकश कायम रहे !
वो क्या कहे , चिंता नहीं
तुम तुम रहो ये फ़िक्र है !
दुआगो
अली
हम प्यार, बांटने निकले हैं! आहा, कितने सुन्दर भाव. वारि वारि जाऊं .
ReplyDeleteati sunder. Aap ki abhibyakti man ko dravit kar gai
ReplyDeleteRavindra Bajpai
बहुत प्यारी प्रस्तुति। नेक भावनायें तारीफ़ की मोहताज नहीं होतीं। ऐसी भावनायें लॉंग टर्म इन्वैस्टमेंट की तरह लगती हैं मुझे, श्योर एंड गारंटीड रिटर्न वाली, बशर्ते धैर्य रखने का हौंसला हो।
ReplyDeleteआपके इस गीत की भावनाओं के लिये आमीन।
वाह सुंदर व संवेदनशील
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद आपके मुख से निकली धार,
ReplyDeleteहमारे लिए अमिय है ये,लिए फिरते हैं वे तलवार !!
एकठो शेर भी अर्ज़ है:
हमें भरम था कि उसके साथ हैं हम,
पर हाय,दुश्मनों में भी शुमार न हुआ !!
आपका प्रयास सराहनीय है !
लगता है...
ReplyDeleteवेदना की कोई दबी नस फूट पड़ी
दर्द शब्दों में ढल गया
गीत ब्लॉग पर आ गया
जिसने पढ़ा
दिल छलनी-छलनी हो गया।
..इस कालजयी गीत के लिए मेरी भी बधाई स्वीकार करे।
bahut sunder bhav pravan rachna.
ReplyDeleteसाहब, देखता हूँ अक्सर आप एक चुप्पी को गीत में पिरो देते हैं। ऐसी स्थिति में गीत अपने आपको जेनुइन मान लेने की मजबूरी भी रखते हैं। अदा भी कुछ यूँ कि शब्दों में निहित अर्थ में सब खुश रहें और शब्दों से परे वाले में आप हल्के भी हो लें।
ReplyDeleteपर सावधान आर्य, यह सांगीतिक चुप्पी भीतर-भीतर कचोटती भी है, उस डैमेज से भी बचने का प्रयास करते रहियेगा।
धन्यवाद। शुभकामनाएँ!
@@
ReplyDeleteसाजिश है आग लगाने की
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
गर्वित मन को रोकें कैसे,जो व्यथा दूसरों की समझे
हम आशा भरी नज़र लेकर, उम्मीद लगाए बैठे हैं !..
बहुत बढ़िया भाई साहब,अच्छी रचना,आभार.
अपने जख्मों को दिखलाते , वेदना अन्य की क्या समझें !
ReplyDeleteहम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
संवेदनशीलता का अनूठा प्रयोग सुंदर रचना के मध्यम से.
कडवी जिह्वा रखने वाले, संयम की भाषा क्या समझें
ReplyDeleteये एक अकेली पंक्ति ही बहुत कुछ कह रही है
वैसे भी आप कविता की इस विधा में तो पारंगत हैं
बहुत सुंदर !!
गजब गीत है!
ReplyDeleteसतीश जी यह कविता जब आप ने पहली बार २००८ मैं अपने इसी ब्लॉग से पेश कि थी तब भी मुझे बहुत पसंद थी और आज भी पसंद है. यह मुझे इतनी पसंद है कि मैंने इन पंक्तियों का अपने ब्लॉग कि एक पोस्ट मैंज़िक्र भी किया था.
ReplyDeleteसतीश जी,
ReplyDeleteहमेशा की तरह संवेदनशील और
सुंदर रचना !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
ReplyDeleteक्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
अपने जख्मों को दिखलाते , वेदना अन्य की क्या समझें !
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
बेहतरीन।
कडवी जिह्वा रखने वाले, संयम की भाषा क्या समझें
ReplyDeleteहम घायल होकर भी, कबसे उम्मीद लगाये बैठे हैं !
सतीश भाई इन पंक्तियों में आपने आज के हक़ीक़त का बयान किया है। इस बेहतरीन रचना के लिए आप बधाई के पात्र हैं।
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 22 -09 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में ...हर किसी के लिए ही दुआ मैं करूँ
सच्चाई को कहती सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteek baar jab dil me ranjish aa jati hai satish ji to use pyar ya dard dono se hi dhona bada kathin hota hai...
ReplyDeleteगहन संवेदना से पूर्ण रचना मन को छू गई !
ReplyDeleteगहन संवेदना से पूर्ण रचना मन को छू गई !
ReplyDeleteaise pyare geet ab parhane ko naheen milate. badhai....
ReplyDeleteफूल आहिस्ता फेंको,
ReplyDeleteफूल बड़े नाज़ुक होते हैं,
वैसे भी तो ये बदकिस्मत,
सेज पे कांटों की सोते हैं,
फूल आहिस्ता फेंको...
जय हिंद...
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
ReplyDeleteफिर जायेंगे, उनके दर पर,
ReplyDeleteहम हाथ जोड़ अपनेपन से,
इस बालह्रदय, को क्यों तुमने
इस तीखे पन से भेद दिया ?...........
कहते है न ! आह से उपजा होगा गान ...........
आभार उपरोक्त अभिव्यक्ति हेतु.....
बेहतरीन अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत खूब सतीश जी ... आज इसी प्रेम की जरूरत है ...
ReplyDeleteदीप से दीप जलाते चलो ... प्रेम की गंगा बहते चलो ...
@ गज़ब गीत है !
ReplyDeleteअजब टीप है *&^%#@ !
ओह...लाजवाब....
ReplyDeleteसबकी बुद्धि और मन ऐसा ही हो...यही कामना करे सदा सदा सदा...
वह रंज लिए, बैठे दिल में
ReplyDeleteहम प्यार, बांटने निकले हैं!
वाह !!!! बहुत ही सशक्त और सकारात्मक रचना.
हम तो आग बुझाने वालों में से हैं जी :)
ReplyDeleteबेहतरीन ...मन को छूते शब्द
ReplyDeletesamvedansheel rachana dil kp choo gayee .
ReplyDeleteshubhkamnae .
samvedansheel rachana dil kp choo gayee .
ReplyDeleteshubhkamnae .
samvedansheel rachana dil kp choo gayee .
ReplyDeleteshubhkamnae .
बहुत खूब ... आभार
ReplyDeleteसाधु-साधु
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
वेदना की अभिव्यक्ति का आपका यह अंदाज...
कुछ हटकर है...पसन्द आया...
आभार!
...
गहन दर्द की तीक्ष्ण अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसाजिश है आग लगाने की
ReplyDeleteकोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
गर्वित मन को रोकें कैसे,जो व्यथा दूसरों की समझे
हम आशा भरी नज़र लेकर, उम्मीद लगाए बैठे हैं !
सजग प्रहरी सी रचना ..
वाह जी। क्या प्रवाह है! इतने अच्छे कवि यहाँ हैं और हम जानते भी नहीं थे। पढ़ना सुखद रहा…लेकिन चित्र कुछ अलग है इस कविता से…।
ReplyDeleteआदरणीय सतीश जी , शिकायतनुमा दर्द ... बहुत ही सादगी से बयां कर दिया आपने ..... सादर !
ReplyDeleteफिर जायेंगे, उनके दर पर,
ReplyDeleteहम हाथ जोड़ अपनेपन से,
इस बालह्रदय, को क्यों तुमने
इस तीखे पन से भेद दिया ?
कडवी जिह्वा रखने वाले, संयम की भाषा क्या समझें
हम घायल होकर भी, कबसे उम्मीद लगाये बैठे हैं !
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
Regards
wow... awesome execution Uncle...
ReplyDeletepar hamne to oyaar baatna aapse hi seekha hai, karne dijiye, kahane dijiye jise jo kahna hai karna hai... :)
aur ye "mere geet" bas nahi... hamare geet" hain... :)
आनन्द आ गया....बहुत ही सुन्दर!!
ReplyDelete.बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति......
ReplyDeleteनि:शब्द कर दिया आपकी इस कविता ने ..बंधाई स्वीकारें
ReplyDeleteयह वेदना चाहे आपने किसी भी रूप में लिखी हो पर मुझे तो भारत और उनके पडोसी दोस्तों की याद आ गई| भारत की स्थिति का सटीक वर्णन किया है आपने :]
ReplyDeleteशुक्रिया
यह कविता उत्तर छायावाद के युग में ले जा रही है.. सुन्दर कविता...
ReplyDeleteयह तो हम पहले ही पढ़ गये थे...आज फिर खिंचे चले आये...
ReplyDeleteवेदना को सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है!
ReplyDeleteबड़े ही सुन्दर भाव एवं शब्दों में अपने रचना प्रस्तुत की है .....सतीश जी
ReplyDeleteउनके आंसू सबने देखे
ReplyDeleteपर मेरी आहें मौन रहीं
उनके शिकवे तो जाहिर थे
फिर हमने अपनी कही नहीं
वे राई को पहाड़ कर लें, हम पर्वत को राई समझें
हमने अपनाया है उनको, वो रार उठाये बैठे हैं ........
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ आस लगाये बैठे हैं !
बहुत ही सुंदर कविता काश की हमारे पडोसी समझ जाये (पायें) ।
ReplyDeleteहम घायल होकर भी तुमसे उम्मीद लगाये बैठे हैं
यही है हमारा असली स्वभाव । पर इसे हमारी कायरता समझा जा रहा है ।
bahut sundar abhivykti satis bhai
ReplyDelete