Monday, June 5, 2017

कितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से -सतीश सक्सेना

हमको घायल किया तार ने,कैसी रंज गिटारों से !
कितना दर्द लिखा के लाये,रंजिश पालनहारों से !

बेबाकी उन्मुक्त हंसी पर, दुनियां शंका करती है !
लोग परखते हृदय निष्कपट,कैसी कैसी चालों से !

निरे झूठ को बार बार दुहराकर , गद्दी पायी है !
कोई भी उम्मीद नहीं, इन बस्ती के सरदारों से !

किसने कहा ज़मीर न बिकते, दुनियां में खुद्दारों के
सबसे पहले बिका भरोसा,शिकवा नहीं बज़ारों से !

लोकतंत्र का चौथा खम्बा, पूंछ हिलाके लेट गया
कितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से !

8 comments:

  1. लोकतंत्र का चौथा खम्बा तिनके जैसा बिखर गया,
    कितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से ! ..... बहुत सटीक
    न खरीददार पीछे न बिकने वाले

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  2. लाजवाब सतीश जी ... हर शेर गहरा कटाक्ष ... जबरदस्त ...

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  3. वाह्ह...लाज़वाब

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  4. जी सर, सच ही है। असमंजस में जी रहे हैं लोग, दुष्यंतकुमार जी का एक शेर याद आ रहा है...
    इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछा है,
    हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है !

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  5. हमेशा की तरह बस लाजवाब।

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  6. बेबाकी उन्मुक्त हंसी पर, दुनियां शंका करती है !
    लोग परखते हृदय निष्कपट,कैसी कैसी चालों से !
    सच कहा ,मनुष्य को जांचने परखने के सबके
    अपने अपने मापदंड होते है !

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  7. बहुत बढ़िया

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  8. प्रभावशाली प्रस्तुति...
    मेरे ब्लॉग की नई प्रस्तुति पर आपके विचारों का स्वागत।

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- सतीश सक्सेना

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