हमको घायल किया तार ने,कैसी रंज गिटारों से !
बेबाकी उन्मुक्त हंसी पर, दुनियां शंका करती है !
लोग परखते हृदय निष्कपट,कैसी कैसी चालों से !
निरे झूठ को बार बार दुहराकर , गद्दी पायी है !
कोई भी उम्मीद नहीं, इन बस्ती के सरदारों से !
किसने कहा ज़मीर न बिकते, दुनियां में खुद्दारों के
सबसे पहले बिका भरोसा,शिकवा नहीं बज़ारों से !
सबसे पहले बिका भरोसा,शिकवा नहीं बज़ारों से !
लोकतंत्र का चौथा खम्बा, पूंछ हिलाके लेट गया
कितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से !
लोकतंत्र का चौथा खम्बा तिनके जैसा बिखर गया,
ReplyDeleteकितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से ! ..... बहुत सटीक
न खरीददार पीछे न बिकने वाले
लाजवाब सतीश जी ... हर शेर गहरा कटाक्ष ... जबरदस्त ...
ReplyDeleteवाह्ह...लाज़वाब
ReplyDeleteजी सर, सच ही है। असमंजस में जी रहे हैं लोग, दुष्यंतकुमार जी का एक शेर याद आ रहा है...
ReplyDeleteइस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछा है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है !
आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/06/22.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
ReplyDeleteहमेशा की तरह बस लाजवाब।
ReplyDeleteबेबाकी उन्मुक्त हंसी पर, दुनियां शंका करती है !
ReplyDeleteलोग परखते हृदय निष्कपट,कैसी कैसी चालों से !
सच कहा ,मनुष्य को जांचने परखने के सबके
अपने अपने मापदंड होते है !
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteप्रभावशाली प्रस्तुति...
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई प्रस्तुति पर आपके विचारों का स्वागत।