शरीर की शक्ति अपरिमित है यह हम सब जानते हैं मगर इस पर मनन कभी नहीं किया , कभी सोचा ही नहीं होगा कि बच्चा माँ के शरीर से निकला उसका एक अंग है , जिसके पैदा होते ही उसके शरीर के ऊतकों अवयवों ने उसके सीने में ,उसके रक्त और चर्बी को खींच कर सफ़ेद दूध बनाना शुरू कर दिया जिससे माँ को असहाय अवस्था में कहीं भटकना न पड़े और इस दूध में वह सब था जो उसके रक्त में पाया जाता था ! मानव शरीर का सारा प्रबंध मस्तिष्क देखता है , अगर कोई कोशिका बेतरतीब बढ़ने लगती है तो शरीर उस कोशिका को अपने ऊतकों / मांसपेशियों से जकड़ कर उसे गाँठ के रूप में बाँध देती है ताकि उनका अनावश्यक विकास न हो जिसे हम कैंसर कहते हैं , गाँवो कस्बों में लाखों लोग, मिल जाएंगे जिनके शरीर में यह गांठें बरसों से हैं मगर शहर में एलोपैथिक लोग उसका तुरंत ऑपरेशन कर उसे हटा देते हैं और उसकी दुआएँ मुफ्त में लेते हैं ! मुझे याद है ५० वर्ष पहले ऑपरेशन थियेटर दो चार ही होते थे और सर्जन को कोई जानता तक नहीं था मगर आज बिना ओ टी हॉस्पिटल की कल्पना मुश्किल है ! यह उस असहाय और मूर्ख रोगी से उसके पूरे जीवन की जमा पूँजी खींचने का सबसे बेहतरीन तरीका है
अगर कोई डॉक्टर आपका मित्र हो तो आप जानते होंगे कि उसके घर में एलोपथिक दवाएँ ढूंढने पर भी नहीं होंगी क्योंकि वह अपने परिवार में इन खतरनाक दवाओं का उपयोग ही नहीं करते , वे सिर्फ सामान्य दवाओं का प्रयोग करते हैं चाहें उसमें समय कितना ही लगे , मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे डॉक्टर मेरे हितैषी हैं जब भी मुझे मेडिकल व्यवसाय की याद आती है मैं उनसे बात कर खुद को हल्का ( रोग भय से ) महसूस करता हूँ !
रोगी को रोग के बारे में बताना और इस तरह बताना कि वह सब ज्ञान भूलकर सिर्फ यह सोचे कि हे डॉक्टर देवता किसी तरह इस बार बचा दे , सर्व शक्तिमान मेडिकल व्यवसाय का एक बड़ा सहारा है , सारा विश्व इसके आगे घुटने टेकने को विवश है , प्रधानमन्त्री , राष्ट्रपति या कोई अरबपति सब इस मृत्यु भय के आगे नाचने लगते हैं जबकि उन्हें इस बात का ज्ञान है कि मैं सामान्य उम्र को पार कर चुका हूँ और मृत्यु आने वाले कुछ वर्षों में होनी ही है , फिर भी आखिरी वक्त ऑपरेशन थिएटर जाने को लालायित रहते हैं कि शायद डॉक्टरों का प्रयत्न उन्हें बचा ले जबकि खुद कोई विश्व प्रसिद्ध डॉक्टर भी 90 साल न जी सका ! हम यह विचार करना ही नहीं चाहते कि बढ़ी उम्र में शारीरिक क्षरण एक सामान्य प्रक्रिया है , मेरा विश्वास है कि अढ़सठ वर्ष की आयु में मेरा शरीर का अढ़सठ प्रतिशत क्षरण हो चुका है और मेरी बची उम्र सत्तर या 85 के हिसाब से दो साल से लेकर 17 साल और है , कल भी मर सकता हूँ ! मेरा प्रयास शारीरिक क्षरण रोकने पर न होकर सिर्फ अनावश्यक रोगों के शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को नियंत्रण करना मात्र रहता है और इसमें मैं सफल हूँ , देखिये मेरा आज का फोटो !
राजकुमार सिद्धार्थ जैसे संवेदनशील लोग जिन्हें मानव कष्टों का कोई ज्ञान नहीं था , एक मृत शरीर पर रोते, बिलखते परिवार जनों को देख इतने विचलित हुए कि घर छोड़कर जंगल में अकेले निकल पड़े , और घने जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर खुद से प्रश्न करने शुरू किये , सैकड़ों नौकरों सहायकों के बिना पहली बार अकेले खाना कैसे खाया होगा , क्या खाया होगा क्या पिया होगा ?इस पर एकाग्रचित्त होकर आज पूरे दिन विचार करें आपकी आँखें और बुद्धि खुल जाएगी ऐसा मुझे विश्वास है ! असहाय सिद्धार्थ के पास कोई सहायक न था और न किसी को उनका स्थान पता था , वीरान जगह पर उन्होंने सबसे पहले सांस लेते लेते, सांसों की गति पर नियंत्रण करना सीखा क्योंकि उन्हें पता चला गया कि बिना भोजन वे महीनों , बिना पानी कुछ दिनों और बिना साँस मिनटों ही ज़िंदा रहा पाएंगे ! बीमार अवस्था में आहिस्ता आहिस्ता गहरी सांस लेना है और स्वस्थ शरीर में धौंकनी की तरह साँस लेने से, पेट की तमाम बीमारियों से मुक्ति मिली होगी ! विश्व के तमाम योगियों ने यह विधा अपने आप सीखी और वे कामयाब हुए उन्हें सिर्फ यह समझ आ गया कि शरीर में उपस्थित आंतरिक सुरक्षा शक्ति , असामयिक मृत्यु से रक्षा करने में समर्थ है !
क्षरण होते शरीर को रोग मुक्त करने हेतु मेडिकल व्यवसाय की शरण में जाना एक आत्मघाती कदम होता है , एलोपैथिक दवाओं का दुष्प्रभाव आपके शरीर को और जल्दी संसार से मुक्ति दिलाने में समर्थ है , उनका उपयोग बढ़ी अवस्था में कम से कम करना चाहिए और केवल उसी डॉक्टर के पास जाना चाहिए जिसपर आपको अपने से अधिक भरोसा हो सिर्फ तभी आप सुरक्षित हैं !