बाद में रोती, रोटी और मकानों को !
रामलीला मैदान में, भारी भीड़ जुटी,
आस लगाए सुनती, महिमावानों को !
काली दाढ़ी , आँख दबाये , मुस्कायें ,
अब तो जल्दी पंख लगें, अरमानों को !
रक्तबीज शुक्राचार्यों के , पनप रहे
रक्तबीज शुक्राचार्यों के , पनप रहे
निंदा, नहीं सुनायी देती , कानों को !
दद्दा , ताऊ कितने, गुमसुम रहते हैं !
दद्दा , ताऊ कितने, गुमसुम रहते हैं !
जाने कैसी नज़र लगी, खलिहानों को !
नोट : यह रचना आज जयपुर में छपी , बताने के लिए संतोष त्रिवेदी का आभार
http://dailynewsnetwork.epapr.in/283149/Daily-news/04-06-2014#page/8/2