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संकीर्ण सोच" श्रीकांत पराशर के उन लेखों में से एक है जो मुझे बहुत पसंद है और बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है ! अफ़सोस है कि हर समाज का नुकसान करने वाले अधिकतर यही संकुचित सोच वाले "बुद्धिमान" व्यक्ति ही रहे हैं !यह सच है कि संकीर्ण विचारधारा को बदलना अगर असंभव नही तो बेहद मुश्किल कार्य अवश्य है
आज भी ऐसे लोगों की कमी नही है जो हर समय नफरत पालते हैं और नफरत में ही सोना पसंद करते हैं, इन लोगों को प्यार और स्नेह का आनंद ही मालुम नही ! अधिकतर ऐसे लोगों की प्रारिवारिक प्रष्ठभूमि में सहोदर भाई बहनों में भी प्यार की जगह एक दूसरे को नीचा दिखाना तथा पूरे जीवन एक दूसरे के साथ दिखावा करना ही रहा है !
घर में माता-पिता की भूमिका को नकारते समय, हमें यह याद क्यों नही रहता कि भविष्य में यही भूमिका हमारी भी होगी, और हमारी संतान हमें उतना ही महत्व देगी !