और झुकी नज़रों से उसने दामन भी फैलाया होगा !
भूल गए तुम जब अम्मा की नज़र से सहमा करते थे
आज डांटकर तुमने उनको कैसे चुप करवाया होगा !
यह लड़की थी,जो भाई के लिए,हमेशा लडती थी !
यह लड़की थी,जो भाई के लिए,हमेशा लडती थी !
तुमने उसको,फूट फूट कर,सारी रात रुलाया होगा !
वे खुद सबके बीच बैठकर, बेटे के गुण गाते रहते
अब उनको परिवारजनों में, शर्मिंदा करवाया होगा !
वे भी दिन थे उनके चलते, धरती कांपा करती थी,
ताकतवर आसन्न बुढ़ापे से ही, उन्हें डराया होगा !
वे खुद सबके बीच बैठकर, बेटे के गुण गाते रहते
अब उनको परिवारजनों में, शर्मिंदा करवाया होगा !
वे भी दिन थे उनके चलते, धरती कांपा करती थी,
ताकतवर आसन्न बुढ़ापे से ही, उन्हें डराया होगा !
वे भी दिन थे जब अम्मा की,नज़र से सहमा करते थे
ReplyDeleteसबके बीच डांट के कैसे उनको चुप करवाया होगा !
यही बहिन थी,जो भाई के लिए,सभी से लडती थी !
तुमने उसको,फूट फूट कर,सारी रात रुलाया होगा !...HE SUNDER ABHIVYKTI .YU LGA JESE KUCH APNI HE BAAT HO
लेखन सफल हुआ , आपका आभार !!
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteएक बार नहीं होता है कई बार होता है
ReplyDeleteकहते रहिये जनाब अब बार बार होता है
समय बदल रहा है बहुत कुछ बदलना भी होता है
अपने रोने धोने की कहने की बात भी है
समय की कौन कहे वो भी जार जार रोता है
आपकी रचनाऐं मजबूर कर देती हैं कुछ ना कुछ कह देने के लिये :)
आपके शब्द मेरे लिए हमेशा बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं , आपके स्नेह का आभारी हूँ, डॉ जोशी !!
Deleteवे भी दिन थे उनके चलते, धरती कांपा करती थी
ReplyDeleteताकतवर आसन्न बुढ़ापे ने ही, उन्हें डराया होगा !
..वक़्त की मार सब पर एक न एक दिन पड़ती ही है .. एक जैसा कभी नहीं रहता ..
बहुत बढ़िया
वे भी दिन थे उनके चलते, धरती कांपा करती थी
ReplyDeleteताकतवर आसन्न बुढ़ापे ने ही, उन्हें डराया होगा !
..वक़्त की मार सब पर एक न एक दिन पड़ती ही है .. एक जैसा कभी नहीं रहता ..
बहुत बढ़िया
समय के साथ दीमक के सुपुर्द होते रिश्तों की मार्मिक दास्तान!!
ReplyDeleteहाँ , मगर हमें लड़ना होगा भाई !!
Deleteआपका आभार यशोदा जी !!
ReplyDeleteवे भी दिन थे उनके चलते, धरती कांपा करती थी
ReplyDeleteताकतवर आसन्न बुढ़ापे ने ही, उन्हें डराया होगा---कितनी सार्थक अभिव्यक्ति--बदलते वक़्त को आपने खूबसूरत शब्द दिए हैं।
सुन्दर और सटीक रचना |
ReplyDeleteसार्थक,लाजवाब अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteआईना !
यही है दिनों का फेर - सामर्थ्य क्षीण होते ही सब-कुछ कैसा बदल जाता है - बहुत मार्मिक चित्रण किया है आपने .
ReplyDeleteवे भी दिन थे उनके चलते, धरती कांपा करती थी
ReplyDeleteताकतवर आसन्न बुढ़ापे ने ही, उन्हें डराया होगा !
पिता तुम्हारे अक्सर अपने, बेटे के गुण गाते रहते,
उनको भी परिवारजनों ने, शर्मिंदा करवाया होगा !
सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteहमीशा की तरह सटीक रचना !
ReplyDeleteवाह सतीश जी सुंदर.
ReplyDeleteवक़्त की लाठी। बहुत सुंदर रचना!
ReplyDeleteसच कभी कभी बहुत अधिक मार्मिक हो उठता है ,,,सच मे,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सतीश जी. आपकी कविता पढ़कर एक शेर याद आ गया -
ReplyDelete'वक़्त-ए-पीरी, दोस्तों की बेरुख़ी का गिला,
बचके चलते हैं सभी, गिरती हुई दीवार से.'
अब साहबज़ादे को अगर बूढ़ी माँ, कोई गिरती हुई दीवार जैसी लगे तो फिर वो उस से बचकर तो निकलेंगे ही. और बहन भी उसी दीवार का एक हिस्सा ही तो होगी तो उस से भी उनको दूर-दूर ही रहना चाहिए.