पंकज जी का अनुरोध था कि मैं राकेश जी पर कुछ और लिखूं, हिन्दी की सेवा में लगे हुए एक सम्मानित विद्वान् का अनुरोध पाकर, इस मशहूर गीतकार की रचनाओं पर नज़र डालते हुए, गीतकार की कलम पर विषय अनायास ही मिल गया ! राकेश खंडेलवाल मशहूर हैं, भाषा को झंकार प्रदान करने वाले शब्दों का उपयोग करने के लिए ! उनकी गीतमाला में हर शब्द मोती की तरह पिरोया होता है
मगर आजकल के ये दरबारी कवि अपने आप को चमकाने के लिए क्या नहीं करते ! गंभीर विषयों, पर सभ्य सुसंस्कृत भाषा के धनी, इस कवि की तकलीफ इन शब्दों में देखिये ...
"मान्य महोदय हमें बुलायें सम्मेलन में हम भी कवि हैं
हर महफ़िल में जकर कविता खुले कंठ गाया करते हैं
हमने हर छुटकुला उठा कर अक्सर उसकी टाँगें तोड़ीं
और सभ्य भाषा की जितनी थीं सीमायें, सारी छोड़ी
पहले तो द्विअर्थी शब्दों से हम काम चला लेते थे
बातें साफ़ किन्तु अब कहते , शर्म हया की पूँछ मरोड़ी
हमने सरगम सीखी है वैशाखनन्दनों के गायन से
बड़े गर्व से बात सभी को हम यह बतलाया करते हैं"
ख़ुद की भाषा से चमत्कृत ये आधुनिक कवि, और सामने भीड़ में बैठे अपने गुरु की रचनाओं पर तालियाँ बजाते उनके कुछ सर्वश्रेष्ठ शिष्य, अक्सर कविसम्मेलनों में समां बांधते हर जगह नज़र आ जायेंगे ! अच्छी टी आर पी बढ़ाने के सारे मन्त्र इन्हे पता होते हैं ! राकेश जी आगे कहते हैं ....
"हम दरबारी हैं तिकड़म से सारा काम कराते अपना
मौके पड़ते ही हर इक के आगे शीश झुकाते अपना
कुत्तों से सीखा है हमने पीछे फ़िरना पूँछ हिलाते
और गधे को भी हम अक्सर बाप बना लेते हैं अपना
भाषा की बैसाखी लेकर चलते हैं हम सीना ताने
जिस थाली में खाते हैं हम, छेद उसी में ही करते हैं !
जी हम भी कविता करते हैं"
राकेश जी की उपरोक्त व्यथा पर राजीव रंजन प्रसाद के कमेंट्स थे ....
आदरणीय राकेश जी,आपका ने हास्य लिखने का तो केवल बहाना किया है, इन शब्दों के पीछे की गहरी पीडा समझी जा सकती है। सचमुच तिलमिलाहट होती है कविता और साहित्य का सत्यानाश करने वाले विदूषकों से...
आजकल अधिकतर जगहों पर नगाडे बजाते यह लेखक दिख जाते हैं, घटिया लेखन के यह रचनाकार कोई न कोई मुखौटा ओढ़कर काम करते हैं, कोई अपने ज्ञान का ढिंढोरा पीटता है तो अन्य दूसरों पर सतत आक्रमण कर अपने आपको को विजयी घोषित किए बैठा है !मेरे अपने कुछ मित्र भी इन लोगों में से हैं जिनमे प्रतिभा की कोई कमी नही, मगर उनकी कमियां समझाने की हिम्मत कौन करे ?? और कौन सरे आम अपनी धोती खुलवाने की हिम्मत करे ?? ;-)
और अंत में नवयुग के कवियों को, भाषा और कविताओं की मिट्टी पलीद करते देख, अधिकतर शांत रहने वाले, क्रोधित संवेदनशील राकेश खंडेलवाल......
सड़े हुए अंडे की चाहत
गले टमाटर की अकुलाहट
फ़टे हुए जूते चप्पल की माला के असली अधिकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी
तूने जो लिख दी कविता वह नहीं समझ में बिलकुल आई"
खुद का लिखा खुदा ही समझे" की परंपरा के अनुयायी
तूने पढ़ी हुई हर कविता पर अपना अधिकार जताया
रश्क हुआ गर्दभराजों को, जब तूने आवाज़ उठाई
सूखे तालाबों के मेंढ़क
कीट ग्रसित ओ पीले ढेंढ़स
चला रहा है तू मंचों पर फ़ूहड़ बातों की पिचकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी
पढ़ा सुना हर एक चुटकुला, तेरी ही बन गया बपौती
समझदार श्रोताओं की खातिर तू सबसे बड़ी चुनौती
तू अंगद का पांव, न छोड़े माईक धक्के खा खा कर भी
चार चुटकुलों को गंगा कह, तूने अपनी भरी कथौती
कीचड़ के कुंडों के भैंसे
करूँ तेरी तारीफ़ें कैसे
हर संयोजन के आयोजक पर है तेरी चढ़ी उधारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी
क्या शायर, क्या गीतकार, सब तेरे आगे पानी भरते
तू रहता जब सन्मुख, कुछ भी बोल न पाते,वे चुप रहते
हूटप्रूफ़ तू, असर न तुझ पर होता कोई कुछ भी बोले
आलोचक आ तेरे आगे शीश झुकाते डरते डरते
ओ चिरकिन के अमर भतीजे
पहले, दूजे, चौथे, तीजे
तुझको सुनते पीट रही है सर अपना भाषा बेचारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी !
और ऐसे में राकेश खंडेलवाल जैसे रचनाकार का सब्र भी टूट जाता है जब भाषा और संवेदनाओं का मजाक सारे आम उडाया जाए !
डॉ अमर ज्योति के शब्दों में "शब्दों के जादूगर राकेश जी शब्दों को कठपुतलियों की तरह नचा कर जहां एक ओर दैनिक जीवन की विसँगतियों का चित्रण करते हैं वहीं दूसरी ओर जीवन की गहरी दार्शनिक व्याख्या भी करते हैं।"
और अंत में मैं एक शानदार गीतकार, प्रेरणादायी, कविश्रेष्ठ राकेश खंडेलवाल की "अँधेरी रात का सूरज" का स्वागत करता हूँ ! साथ ही पंकज सुबीर का भी धन्यवाद जिनके कारण यह रचना हिन्दी जगत को मिल सकी !