साजिश है आग लगाने की
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
चाहें कितना भी रंज रखो
दिखते भी नहीं संवाद नहीं,
फिर भी तुमसे आशाएं हैं !
जीवन में बड़ी अपेक्षा से , उम्मीद लगाए बैठे हैं !
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
कुछ पत्थर हम पर फ़ेंक गए
हम समझ नही पाए, हमको
क्यों मारा ? इस बेदर्दी से ,
बेदर्दों को तकलीफ नहीं,
केवल कठोर, क्षमताएं हैं !
हम चोटें लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
फिर जायेंगे, उनके दर पर,
हम हाथ जोड़ अपने पन से,
इक बालहृदय को क्यूँ ऐसे
भेदा अपने , तीखेपन से !
शब्दों में शक्ति प्रभावी है
लेकिन कठोर प्रतिभाएं हैं !
हम घायल होकर भी सजनी कुछ आस जगाये बैठे हैं !
हम जी न सकेंगे दुनिया में
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
चाहें कितना भी रंज रखो
दिखते भी नहीं संवाद नहीं,
फिर भी तुमसे आशाएं हैं !
जीवन में बड़ी अपेक्षा से , उम्मीद लगाए बैठे हैं !
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
कुछ पत्थर हम पर फ़ेंक गए
हम समझ नही पाए, हमको
क्यों मारा ? इस बेदर्दी से ,
बेदर्दों को तकलीफ नहीं,
केवल कठोर, क्षमताएं हैं !
हम चोटें लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
फिर जायेंगे, उनके दर पर,
हम हाथ जोड़ अपने पन से,
इक बालहृदय को क्यूँ ऐसे
भेदा अपने , तीखेपन से !
शब्दों में शक्ति प्रभावी है
लेकिन कठोर प्रतिभाएं हैं !
हम घायल होकर भी सजनी कुछ आस जगाये बैठे हैं !
हम जी न सकेंगे दुनिया में
माँ जन्में कोख तुम्हारी से !
जो कुछ भी ताकत आयी है
पाये हैं, शक्ति तुम्हारी से !
गंगा ,गौरी, दुर्गा, लक्ष्मी ,
सब तेरी ही आभाएँ हैं !
हम अब भी आंसू भरे तुझे , टकटकी लगाए बैठे हैं !
जन्मे दोनों इस घर में हम
और साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
भाई बहनों का प्यार सदा
जीवन की अभिलाषायें हैं !
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
कहने सुनने से होगा क्या
मन में पलतीं, आशाएं हैं !
हम पुरूष ह्रदय,सम्मान सहित,कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
श्री राकेश खंडेलवाल (http://geetkalash.blogspot.com/ मेरे अधूरे गीत को इस प्रकार पूरा किया ...उनका आभारी हूँ कि वे मेरी वेदना को अपने शब्दों में व्यक्त करने में सफल रहे !
जब भी कुछ फ़ूटा अधरों से
तब तब ही उंगली उठी यहाँ
जो भाव शब्द के परे रहे
वे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह वाद नहीं प्रतिवाद नहीं
मन की उठती धारायें हैं,
ले जाये नाव दूसरे तट, हम पाल चढ़ाये बैठे हैं !
पाये हैं, शक्ति तुम्हारी से !
गंगा ,गौरी, दुर्गा, लक्ष्मी ,
सब तेरी ही आभाएँ हैं !
हम अब भी आंसू भरे तुझे , टकटकी लगाए बैठे हैं !
जन्मे दोनों इस घर में हम
और साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
भाई बहनों का प्यार सदा
जीवन की अभिलाषायें हैं !
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
कहने सुनने से होगा क्या
मन में पलतीं, आशाएं हैं !
हम पुरूष ह्रदय,सम्मान सहित,कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
श्री राकेश खंडेलवाल (http://geetkalash.blogspot.com/ मेरे अधूरे गीत को इस प्रकार पूरा किया ...उनका आभारी हूँ कि वे मेरी वेदना को अपने शब्दों में व्यक्त करने में सफल रहे !
जब भी कुछ फ़ूटा अधरों से
तब तब ही उंगली उठी यहाँ
जो भाव शब्द के परे रहे
वे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह वाद नहीं प्रतिवाद नहीं
मन की उठती धारायें हैं,
ले जाये नाव दूसरे तट, हम पाल चढ़ाये बैठे हैं !
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
ReplyDeleteकुछ पत्थर हम पर फ़ेंक गए
हम समझ नही पाए हमको
क्यों मारा इस बेदर्दी से ,
हम चोंटे लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
bahut khoob ji...achcha laga
बहुत अच्छी कविता है. प्रेम करो सब से, नफरत न करो किसी से. ईश्वर प्रेम रूप में हमारे अन्दर बसता है. प्रेम करना ईश्वर की प्रार्थना है.
ReplyDeletebhut badhiya. sahi likha hai. jari rhe.
ReplyDeleteआप की कविता सुंदर है। लेकिन यहाँ भी पुरुष ने एक अत्यन्त दीन भाव अपना लिया है। जो केवल मातृसत्तात्मक परिवारों में ही संभव है।
ReplyDeleteआज प्रश्न मातृसत्ता या पितृसत्ता का नहीं समानता का है।
वैसे यह भाव पुरुषों में होना संभव नहीं और वास्तविकता में तभी संभव है जब समाज में पुरुषों के अनुपात में स्त्रियाँ आधी रह जाएँ। जिस गति से यह अनुपात बिगड़ रहा है उस से लगता है ऐसी अवस्था पैदा हो जाए।
साजिश है आग लगाने की
ReplyDeleteकोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
बहुत शुभकामनाएं !
साजिश है आग लगाने की
ReplyDeleteकोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
यही उम्मीद जगाये रखे ......नफरत से कुछ हासिल नही होता है ..प्यार की भाषा ही सब तरफ़ शान्ति ला सकती है ..और यह मान कर चले कि स्त्री पुरूष दोनों के समान होने से ही संतुलित रह सकता है समाज ...
सतीश जी
ReplyDeleteबहुत भाव पूर्ण और सटीक शब्दों से सजी आप की ये रचना बहुत पसंद आयी...वाह.
नीरज
"यह मान कर चले कि स्त्री पुरूष दोनों के समान होने से ही संतुलित रह सकता है समाज ..."
ReplyDeleteRanjana you have represented the sentiments of naari blog members very effectively so nothing more needs to be added
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं!
yae pankti apne aap mae bataatee haen ki aaj bhi purush samaj ko naari kaa ek hi rup pasand haen aur wo baarbaar naari ko usii rup ko yaad dilaana chahtaa haen .
naari evolve ho chuki haen aur shaayd purush wahi teeka haen jaahan thaa
varna "yaad dilane kii baat karna hee " galat haen
naari jaagir yaa bapti nahin haen ki aap usko yaad dilatey rahey ki uska vyvhaar kitana galt hota jaa rahaa haen
अच्छी रचना है...
ReplyDeleteशुक्रिया....
satishji !
ReplyDeleteVery apt and rightly written kavita. har panktiyan aap ki dil se likhi gayi hai.
bahut khoob.......
satish ji
ReplyDeletei have not commented on the poem or wheterh its good or bad because i dont feel i have competence to judge someones wtring skills so my comment as above should no tbe seen as a critisim of the poem
आहत भावुक मन की वेदना का प्रभावी चित्रण!
ReplyDeletenari blog ko dekhakar mai aisa hi likhana chahata tha, samayabhav ke karan likh n saka, bandhu aapane mere bhavo ko shabd de diye hai. bahut-bahut dhanyavad. itani sundar kavita ke liye badhaiyan!
ReplyDeleteदिनेशराय द्विवेदी ji samanata asmbhav shabd hai n nar-nari kabhi saman they aur n honge. vividhatapurn prakriti me kuchh bhi saman nahi hota. samanata ki bat karana nature ko challenge karana hai jisame safalata sambhav nahi.
ReplyDeletesadar
nari blog ko dekhakar mai aisa hi likhana chahata tha,
ReplyDeleteyae kehna raashtr premi ji kaa haen
so satish ji please clarify karey kyaa aap naari blog kae upar is kavita ko likh rahey haen ??? kyuki wahaa aaye aap ke kament aur email duaraa samay saamy par praapt aap ke sandesh to kabhie mujeh yae nahin kehatey rather aap to khud chahtey kee aap ki beti rachna jaise baney haa bado kaa adar kartee rahey kyuki yae aap ne hii muheh email sandesh mae kehaa haen . mujeh nahin lagaa thaa ki naari blog par aap ney yae likha haen par ab rashtr premiji yaad dilaa rahey haen to mannaa padegaa
aap kae kaemnt aur clarification ki pratikha mae
बढिया लिखा है।बधाई।
ReplyDeleteरचना जी !
ReplyDelete-मैं यह कविता किसी ब्लाग को देख कर नही लिख रहा हूँ ,
-आपके कुछ गुणों का प्रशंसक हूँ और मैंने उन्ही गुणों का सम्मान करने हेतु यह कहा है, ! मगर आप जैसी नेत्री बोले हुए या कहे हुए शब्द पकड़ कर उसका स्पष्टीकरण, राष्ट्रप्रेमी जी के रेफेरेंस में मांगे तो ऐसा लगता है जैसे आप को मेरा प्रमाणपत्र चाहिए यह उचित व आपके लिए सम्मान जनक नहीं होगा !
clarification kae liyae dhynavaad satish ji
ReplyDeleteकविता अच्छी है, पर ब्लॉगिंग में सन्दर्भ ज्ञात नहीं है।
ReplyDelete.
ReplyDeleteI have reasons to disagree with with my learned friend Dinesh Rai Dwivedi Ji, please note it in the minutes of your perspectives in publishing this ' Rachna ! '
साजिश है आग लगाने की
ReplyDeleteकोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
..............
सतीश जी
सच में एक मर्म स्पर्शी और ह्रदय को झक झोर देने वाली रचना!
बहुत अच्छी रचना है.......... शुक्रिया .
ReplyDeleteसतीश जी यहां आयी टिप्पणियों के अनुसार इस कविता को नर नारी विवाद के घेरे में देखना चाहिए, पर मेरी बुद्धी शायद बहुत ही सीमित है और मैं तो इसे कुछ और ही रुप में देख रही हूँ। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि भाई बहन जिनमें असीम प्यार था किसी गलतफ़हमी के कारण उन्के रिशतों में दरार पड़ गयी है और एक आहत भाई अपनी रूठी बहन को मनाने की कौशिश कर रहा है।
ReplyDeleteइसमें गलतफ़हमी की शिकार बहन है ये महत्त्वपूर्ण नहीं है, ऐसा प्यार और ऐसी गलतफ़हमी भाई की भाई के साथ भी हो सकती थी तब भी आप ऐसी ही कविता लिखते।
जन्मे दोनों इस घर में हम
और साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं!
मेरे रूठने पर अगर मेरे भाई ने ऐसी कविता लिखी होती तो फ़ौरन मान जाती और फ़िर जिन्दगी भर कभी न रूठती……:)
हम जी न सकेंगे दुनिया में
ReplyDeleteमाँ जन्में कोख तुम्हारी से
जो दूध पिलाया बचपन में
यह शक्ति तुम्ही से पाई है
हम अब भी आंसू भरे तुझे, टकटकी लगाए बैठे हैं !
' ptta nahee kyun, ye kaveta pdh kr dil bhr aaya haia, bhut hee smvednsheel lgee, touched my heart"
Regards
जन्मे दोनों इस घर में हम
ReplyDeleteऔर साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
--बहुत ही बेहतरीन गीत रचा है. हार्दिक बधाई!!
सुन्दर रचना,
ReplyDeleteगीत के रूप में एक सुंदर रचना। शुभकामनाऍं
ReplyDeleteसाजिश है आग लगाने की
ReplyDeleteकोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
बहुत बहुत खूबसूरत नज़्म, दिल को छूती हुयी, जज्बों का दिलकश मेल इसे कुछ अलग रंग देता है...जज़्बात से भरी हुयी ये नज़्म आपके दिल की तरह हसीं है...वैसे भी इंसान जो लिखता है, उसके दिल की ही तर्जुमानी होती है...खूबसूरत दिल से निकले लफ्ज़ भी खूबसूरत ही होंगे...
ना मे नर के चक्कर मे पडुगा, ना नारी के ... मे तो आप के इन शव्दो....
ReplyDeleteसाजिश है आग लगाने की
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
तो सतीश जी आप की इस कविता पर भी नर नारिया ??? तो क्या हर बात पे हम अपनी अपनी साजिश करते हे एक दुसरे को नीचा दिखाने की, या दुसरे शबदो मे खुद को ऊपर उठाने की.
नही बस मे तो यही कहुगां कविता को बस कविता के रुप मे ही देखना चाहिये...
वरना मे आप के शव्द ही दोहराऊगा....
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
कुछ पत्थर हम पर फ़ेंक गए
हम समझ नही पाए हमको
क्यों मारा इस बेदर्दी से ,
हम चोंटे लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
धन्यवाद एक सुन्दर कविता के लिये, जो प्यार से भरपुर हे, ओर हमे प्यार सिखाती हे
कई कारणों से आज इस कविता पर मैं दूसरी बार आया था. पहली बारे मेरी स्थिति उस व्यक्ति के समान थी जिसने कोई अजूबा देखा हो.
ReplyDeleteअजूबा इस लिये कि मुझे बहुत ताज्जुब हुआ कि इस तरह से सरल भाषा एवं शैली में लिखने वाले अभी भी बचे हैं.
आपकी भाषा ऐसी सुगम है कि कविता की थीम दिल को छेद जाती है!!
सस्नेह!!
-- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
फिर जायेंगे, उनके दर पर,
ReplyDeleteहम हाथ जोड़ अपनेपन से,
इस बालह्रदय, को क्यों तुमने
इस तीखे पन से भेद दिया ?
हम घायल होकर भी, सजनी अहसास जगाये बैठे हैं !
ye keval aur keval ek uchh insaan kar sakta hai
हम जी न सकेंगे दुनिया में
माँ जन्में कोख तुम्हारी से
जो दूध पिलाया बचपन में
यह शक्ति तुम्ही से पाई है
हम अब भी आंसू भरे तुझे, टकटकी लगाए बैठे हैं !
जन्मे दोनों इस घर में हम
और साथ खेल कर बड़े हुए
घर में पहले अधिकार तेरा,
मैं, केवल रक्षक इस घर का
अब रक्षा बंधन के दिन पर, घर के दरवाजे बैठे हैं !
क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं!
ek bhai ka pyaar saaf jhalak raha hai
bhaut bhav puran abhivayakti
बहुत ही भावः पूर्ण अभिव्यक्ति है ...नीचे लिखी पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी ....
ReplyDeleteसाजिश है आग लगाने की
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
जब भी कुछ फ़ूटा अधरों से
ReplyDeleteतब तब ही उंगली उठी यहाँ
जो भाव शब्द के परे रहे
वे कभी किसी को दिखे कहाँ
यह वाद नहीं प्रतिवाद नहीं
मन की उठती धारायें हैं
ले जाये नाव दूसरे तट
जिन के संग हवा कभी बह ले
हम पाल चढ़ाये बैठे हैं
अरे वाह, राकेश जी !
ReplyDeleteमैं बड़ा खुशकिस्मत हूँ कि आप इस गरीबखाने में आए ! सच बताऊँ ! आपके आते ही गीतों के स्वर में झंकार आ जाती हैं ! आपने न केवल इस गीत के मर्म को पढ़ लिया बल्कि सम्पूर्णता भी दी, मुझे आपके इस गीत पर एक पोस्ट लिखने का मन कर रहा है!
अब मैं आपके इस सहयोग को, आपके नाम के साथ अपने गीत का पार्ट बनाना चाहता हूँ, कृपया अनुमति दें !
मैं नहीं जानता कि जेहन में जब ये ख़याल कौंधा होगा तो कवि kya सोच रहा होगा.
ReplyDeleteअंत में आकर कविता नारी से मुखातिब हो जाती है.
और संभवता यही सबब बना कि ज़्यादातर लोगों ने इसे इक पुरुष द्बारा नारी से संवाद ही समझा है.
और वहा भी परम्परा और संस्कृति की दोहाई है.
लेकिन मुझे ये कविता बहुत बड़े फलक की लगती है. मैं ने यहाँ वसुधव कुटुम्बकम की भावना महसूस की.
वर्तमान क्रूर समय और नित्य अमानवीय होते जा रहे समकाल से कवि व्यथित है.
और वो अपना इक संसार रचना चाहता है.जहां सब में भाईचारा हो.
वर्ग-लिंग भेद से परे इक सुन्दर समाज हो.
अगर सतीश जी हमारे नज़रिए से विचार करें तो और पंक्तियाँ निसंदेह उन्हें बेचैन करें और मुमकिन है कि पन्नों पर वो शब्दों का परिधान भी पहन लें.तो कविता और महत्वपूर्ण हो जायेगी.
इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता है.इसकी लय.
गुनगुनाने को जी चाहता है:
साजिश है आग लगाने की
कोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
साजिश है आग लगाने की
ReplyDeleteकोई रंजिश, हमें लड़ाने की
वह रंज लिए, बैठे दिल में
हम प्यार, बांटने निकले हैं!
हम आशा भरी नज़र लेकर उम्मीद लगाए बैठे हैं !
बढ़िया लिखा है।
हम चोटें लेकर भी दिलमें अरमान जगाये बैठे हैं ।
ReplyDeleteबहुत खूब । पुरुष का यह पहलू अच्छा लगा ।
"wo nafrat baanten..." aapkee aur baadme Khandelwal jikee, dono rachnayen bohot khoob!!
ReplyDeleteKuchh kavitayen mere blogpebhee hai...jo archives me pohonch gayeen hai! Kabhi samay mile to zaroor padhen!
Apnee ek tippanee likhneke baad maine auronkee tippaniyan padhee....mujhe to ye rachna kaheenbhee ek purush kisee naareeko sombodhit kar raha ho, aisee lagee naheen ! Ye do qaumonke beechh jo dooriyan, jo manme shanka upjee hai, useeko sambodhit kartee hai...behad khoobsoorteese."wo nafrat....." is kavitake baareme likh rahee hun!
ReplyDeletehum naye hain aapke akhaade mein ashirwad de dijiye
ReplyDeleteमहोदय ,जय श्रीकृष्ण =मेरे लेख ""ज्यों की त्यों धर दीनी ""की आलोचना ,क्रटीसाइज्, उसके तथ्यों की काट करके तर्क सहित अपनी बिद्वाता पूर्ण राय ,तर्क सहित प्रदान करने की कृपा करें
ReplyDeleteवाह.. वाह..
ReplyDeleteभाई सक्सेना जी,
आपकी इस सरल-सहज गीति रचना में कमाल की भावाभिव्यक्ति है..
साधुवाद..
जय हो...
...आज पहली बार आपके ब्लौग पर आया हूँ.
ReplyDeleteशानदार अद्भुत लेखनी का कायल हो गया.जारी रखें
वे शंकित, कुंठित मन लेकर,
ReplyDeleteकुछ पत्थर हम पर फ़ेंक गए
हम समझ नही पाए, हमको
क्यों मारा ? इस बेदर्दी से ,
हम चोटें लेकर भी दिल पर, अरमान लगाये बैठे हैं !
bahut bahut bahut achha!
भारी संख्या में प्रतिक्रियाएं देकर आप लोगों ने मेरा मनोबल बढाया, आप सबका आभारी हूँ !
ReplyDeletekya main is geet ki kuchh panktiyan ki si aur blog par de sakta hun apne comment ko prabhavee banane ke liye ?
ReplyDelete@ अंकित
ReplyDeleteजरूर दे सकते हैं ! आपको शुभकामनायें
Very nicce!
ReplyDeleteरुठना और मनाना भी प्यार के ही रुप हैं सतीश जी अतः रुठने वाले को
ReplyDeleteजल्दी मना लेना चाहिये देर नही करनी चाहिये।
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ReplyDelete