Friday, June 23, 2017

जाने कहाँ वे खो गए कुछ शब्द, जो बोले नहीं - सतीश सक्सेना

बरसों से सोंचे शब्द भी उस वक्त तो बोले नहीं 
जब सामने खुद श्याम थे तब रंग ही घोले नहीं !

कुछ अनछुए से शब्द थे, कह न सके संकोच में,
जानेंगे क्या छूकर भी,हों जब राख में शोले नहीं !

प्रत्यक्ष देव,विरक्त मन, किससे कहें, नंदी के भी
सीने में कितने राज हैं,जो आज तक खोले नहीं !

विश्वास ही पहचान हो निर्मल ह्रदय की भावना 
मृदु ह्रदय मंजुल भाव तो हमने कभी तौले नहीं !

उलझी अनिश्चय में रही, मंदाकिनी हर रूप में
थी चाहती निर्झर बहे, शिवकेश थे,भोले नहीं !

Thursday, June 22, 2017

ध्यान बटाने को मूर्खों का, राजा के सहयोगी आये ! - सतीश सक्सेना

भुला पीठसंकल्प कलियुगी आकर्षण में योगी आये,
वानप्रस्थ को त्याग,राजसुख लेने वन से,जोगी आये !

तड़प किसान खेत में मरते,ध्यान बटाने को भूखों का, 
योग सिखाने जोगी बनकर,राजनीति के ढोंगी आये !

महंगाई से त्रस्त,भूख बेहाल ग्राम,शमशान बना के,  
ध्यान बटाने को मूर्खों का, राजा के सहयोगी आये !

लालकिले तक पंहुचाने में जाने कितने पापड बेले,
अश्वमेध फल लेने अपना, भगवा पहने भोगी आये !

कष्ट दूर चुटकी में करने धूर्त,धर्म,भय चूरन लेकर,
रोगमुक्त करने माँ बहिनें,ये संपत्ति वियोगी आये !

Monday, June 5, 2017

कितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से -सतीश सक्सेना

हमको घायल किया तार ने,कैसी रंज गिटारों से !
कितना दर्द लिखा के लाये,रंजिश पालनहारों से !

बेबाकी उन्मुक्त हंसी पर, दुनियां शंका करती है !
लोग परखते हृदय निष्कपट,कैसी कैसी चालों से !

निरे झूठ को बार बार दुहराकर , गद्दी पायी है !
कोई भी उम्मीद नहीं, इन बस्ती के सरदारों से !

किसने कहा ज़मीर न बिकते, दुनियां में खुद्दारों के
सबसे पहले बिका भरोसा,शिकवा नहीं बज़ारों से !

लोकतंत्र का चौथा खम्बा, पूंछ हिलाके लेट गया
कितनी आशाएं पाली थीं, बिके हुए अखबारों से !

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