भाषा सहोदरी पत्रिका के लिए हिंदी पर लिखने का अनुरोध पाकर उलझन में हूँ, मैं हिंदी विद्वान नहीं हूँ और न इस कष्टकारक और नीरस विषय पर लिखने में सिद्धहस्त मगर आपका अनुरोध टाला भी नहीं जा सकता अतः एक कवि होने के नाते हिंदी की दुर्दशा और कारणों का विश्लेषण अपनी अल्प बुद्धि अनुसार करना चाहूँगा !
आज के समय में साहित्यकारों को समझना होगा कि धन और प्रशंसा के लालच में उनकी भावनाएँ समाप्त हो गयीं हैं अतः सामान्य जन से उनकी रचना बहुत दूर चली गयी है , आज उनकी रचनाएं जनमानस पर प्रभाव छोड़ पाने में असमर्थ हैं और वे सिर्फ महत्वपूर्ण पदों पर बैठे, हिंदी के मशहूर टटपूंजी ठाकुरों के, आशीर्वाद की अभिलाषी रहती हैं !
प्रभावी भाव अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार की ईमानदारी व मधुर कोमल भावनाएं सर्वाधिक प्रभावी भूमिका निभाती हैं , जो बनावटी रचनाकारों में दूर दूर तक नहीं मिलतीं अतः उनके सृजन में व्यावसायिक छाप और नीरसता नज़र आना निश्चित है ! हिंदी के ज़रिये नाम व धन कमाने की होड़ में आगे पंहुचने का संक्षिप्त रास्ता, सिर्फ हिंदी मठाधीशों और अधिकारियों के घर से होकर जाता है और चाटुकारिता कर्म आसानी से उसकी समझ में आ जाता है ! उसके बाद शुरू होता है, जोड़तोड़ और पैर दबा कर उच्च पद पर बैठे एक सड़ियल व्यक्ति के साहित्य कर्म की तारीफों का पुल बाँधना, इस क्रम में उसे हिंदी साहित्य सम्राट की पदवी देने वालों की लाइन लग जाती है ! विडम्बना यह है कि इन मठाधीशों के दरवाजे पर कुछ सम्मानित हिंदी विद्वान भी शर्म से सर झुकाये, बेमन ही सही पर घुटनों के बल बैठे नज़र आते हैं !
चापलूसों को भी कुछ सम्मान मिलना चाहिए ,
इनकी मेहनत का वतन से मान मिलना चाहिए !
काम इतना सा है यारों,जब भी नेताजी दिखें,
शक्ल कुत्ते सी लगे और पूंछ हिलना चाहिए !
चापलूसों को भी कुछ सम्मान मिलना चाहिए ,
काम इतना सा है यारों,जब भी नेताजी दिखें,
शक्ल कुत्ते सी लगे और पूंछ हिलना चाहिए !
कवियों का हाल और भी बुरा है,बेचारे हिंदी रचनाकारों की भीड़ में अपनी पहचान के लिए अपने नाम से पहले कवि लिख कर मंचों पर भावभंगिमाओं और फूहड़ चुटकुलों के साथ घटिया दर्शकों से तालियां बजवाकर अपने आप को कवि बनाये रखने की आवश्यक मानसिक खुराक पाता रहता है ! किसी गंभीर किस्म के व्यक्ति को आजकल के कवि मंचों को झेलना आसान नहीं ये सिर्फ शराबी रिक्शे वालों और नौटंकी देखने वाली मानसिकता का सस्ता मनोरंजन मात्र रह गए हैं !
इंटरनेट ने लेखन को बेहद आसान और सस्ता बना दिया है , मगर इसके दुर्गुण भी कम नहीं ! हिंदी के धुरंधर विद्वान भी दूसरों की रचनाओं में भाव और शैली खोजते रहते हैं , इन उस्ताद विद्वानों के लिए, कम प्रसिद्द मगर प्रभावीशाली रचनाकारों की शैली , शब्दों और संवेदनशील अभिव्यक्ति की चोरी करना बेहद आसान है, सिर्फ थोड़ा सा बदलाव कर बड़ी आसानी से प्रभावशाली रचना बन जाती है और इनके मशहूर नाम के साथ यह बेईमान रचना बहुत सारे अखबार और पत्रिकाओं में आसानी से स्थान पा
जाती है ! वास्तविक लेखक को पता चल जाने पर भी वह इस उस्ताद का कुछ नहीं बिगाड़ पाता और न कोई आसानी से उस पर भरोसा करता है , थोड़ा रोने पीटने के बाद वह बेचारा चुप बैठ जाता है और हिंदी उस्तादों का कार्य, इस बेधड़क चौर्यकर्म के साथ चलता रहता है !
जाती है ! वास्तविक लेखक को पता चल जाने पर भी वह इस उस्ताद का कुछ नहीं बिगाड़ पाता और न कोई आसानी से उस पर भरोसा करता है , थोड़ा रोने पीटने के बाद वह बेचारा चुप बैठ जाता है और हिंदी उस्तादों का कार्य, इस बेधड़क चौर्यकर्म के साथ चलता रहता है !
सहज रचनाकार किसी की शैली का दास नहीं हो सकता, मेरा यह विश्वास है कि रचना सोंच कर नहीं की जाती उसका अपना प्रवाह है जो भावनाओं में डूबने पर अपने आप बहता है, अगर उसमें अतिरिक्त बुद्धि लगायेंगे तब भाव विनाश निश्चित होगा !
तुलसी,मीरा,रसखान, कालिदास और कबीर ने किसी नियम का पालन नहीं किया था और न उसके पीछे कोई लालसा थी ! आज भी, उनके कुछ संवेदनशील शिष्य यहाँ वहां बिखरे हैं जिनको कोई नहीं जानता हाँ उनकी यह रचनाएं, खादी पहने मोटी तोंदों वाले प्रभावशाली हिंदी गिद्धों की दृष्टि की शिकार अक्सर होती रहती है ! और हिंदी इन चुराई हुई मिश्रित रचनाओं से फल फूल रही है यह और बात है कि इन गिद्धों के नोचने से नए प्रभावशाली रचनाकार उभर नहीं पा रहे !
आज गीत और कवितायें खो गए हैं समाज से , मैं अकिंचन अपने को इस योग्य नहीं मानता कि साहित्य में अपना स्थान तलाश करू और न साहित्य से, अपने आपको किसी योग्य समझते हुए, किसी सम्मान की अभिलाषा रखता हूँ ! बिना किसी के पैर चाटे और घटिया मानसिकता के गुरुओं के पैरों पर हाथ लगाए , अंत समय तक इस विश्वास के साथ लिखता रहूंगा कि देर सवेर लोग इन रचनाओं को पढ़ेंगे जरूर !
अंत में यही कि भाषा बेहद मधुर है बशर्ते वह सही सृजन के माध्यम से निकले , वर्तमान में हिंदी की दशा बेहद दयनीय है , अनाथ हिंदी को जब तक एक माई बाप नहीं मिलता यह समाज का सम्मान नहीं ले पायेगी ! इसकी मधुरता तभी तक है जब तक हिंदी को प्यार करने वाले रचनाकार उसे सहारा देते रहेंगे !
झन्नाटेदार शब्द निकलें,जब झाग निकलते होंठों से,
ये शब्द वेदना क्या जानें, अरमान क्रूर भाषाओं का !
सावन का अंधा क्या समझे जीवन स्नेहिल रंगों को,
संदिग्ध नज़र जाने कैसे, माधुर्य सहज भाषाओं का !
अपने जैसा ही समझा है सारी दुनियां को कुटिलों ने
ये शब्द समर्पण न जानें,अभिमान हठी भाषाओं का !
आस्था, श्रद्धा, विश्वास कहाँ, उम्मीद लगाये बैठे हैं,
भावनाशून्य कैसे समझें,आचरण सरल भाषाओं का !
सिर्फ एक आशा है कि इंटरनेट ने बहुत सारे लेखकों को सुविधा दी है लिखने की , मुझे उम्मीद है कि इन रचनाकारों में से कई बेहद प्रभावी सिद्ध होंगे हाँ हिंदी धुरंधरों के कारण उनकी पहचान में भले बरसों लगे क्योंकि लेखन अमर है, सो वह कभी न कभी पढ़ा अवश्य जाएगा बस यह समाज के लिए हितकारी रहे यही दुआ है !
जहाँ तक मेरी बात है मैंने लगभग ५०० रचनाएं की हैं उनमें कविता और हिंदी ग़ज़ल लगभग २५० होंगी बाकी सब लेख हैं जिनमें अधिकतर समाज के मुखौटों के खिलाफ लिखे हैं !
भारत सरकार से अवकाश प्राप्त अधिकारी , नॉएडा में निवास
http://satish-saxena.blogspot.com/
http://satishsaxena.blogspot.com
satish1954@gmail.com
थोड़ी सी हिम्मत चाहिये
ReplyDeleteथोड़ा सा लालच हटाइये
देखिये लिख कर उसके बाद
कलम का चलना खुद ही
कागज एक सामने से उसके
बस खाली ले कर आइये ।
आपको पढ़कर सूकून मिलता है कि अभी कहीं कुछ बचा है :)
bahut achhi aur sachhi baat ki aapne...
ReplyDeleteसटीक एवं सार्थक सत्य लिखा है आपने सतीश जी, अनन्त शुभकामनाएं आपको
ReplyDeleteहिंदी की दुर्दशा ही नहीं ... समाज की भी दुर्दशा हो रही है ... और कारण सब का एक ही है ... हमारी धन अर्जित करने की पिपासा जिसके लिए कच भी करने को तैयार रहते हैं हम ...
ReplyDeleteसही भावना व्यक्त की है।
ReplyDeleteलेकिन आज के व्यावसायिक युग में भावनाओं की कदर कम ही रह गई है। आखिर पैसे का ही बोलबाला है।
विश्व प्रसिद्ध कवि, संगीतकार तानसेन जिनको कलाप्रिय राजा अकबर का आश्रय प्राप्त था एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं। गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे। लिहाजा अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए। हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे। अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है। फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न।
ReplyDeleteआजकल हर क्षेत्र में हम भावनात्मक कम व्यावसायिक होकर ज्यादा सोचने लगे है शायद यह वक्त की मांग भी हो, कोई भी कला जब तक संपन्न न हो जाती तब तक विकसित भी नहीं हो सकती यह भी एक सच है ! कला को कोई स्वांतसुखाय बनाये या व्यावसायिक यह कलाकार की अपनी निजी पसंद है, लेकिन गुणवत्ता में जरूर अंतर आ जायेगा ! आज हम तानसेन से तो परिचित है लेकिन उनके गुरु को बहुत कम लोग जानते है !
सटीक विश्लेषण किया है !
आभार आपका !
Deleteईमानदारी से आपने सभी पहलुओं को उकेरा --सार्थक लेख।
ReplyDeleteबचपन से पढ़ती आई हूँ डूबते को तिनके का सहारा. अब तिनका ढूँढना ही पड़ेगा या बनना पडेगा
ReplyDeleteआभार
Bahut bahut achhi baatein...ekdam sahi
ReplyDeleteBhasha k saath jab bhavna milti hai to rachna kuch eysi hi hoti hai... Kamaal ki post hai :]
ReplyDeletedil ko chu lene wali
ReplyDeleteसटीक लेख
ReplyDeleteसही विश्लेषण, सतीश जी,
ReplyDeleteभाषा और साहित्य में भी ठेकेदारी हो रही है।
बेधड़क अंदाज में गंभीर चिंतन प्रस्तुति हेतु आभार!
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