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जिस पिता की ऊँगली पकड़ कर वह बड़ी हुई, उन्हें छोड़ने का कष्ट, जिस भाई के साथ सुख और दुःख भरी यादें और प्यार बांटा, और वह अपना घर जिसमे बचपन की सब यादें बसी थी.....इस तकलीफ का वर्णन किसी के लिए भी असंभव जैसा ही है !और उसके बाद रह जातीं हैं सिर्फ़ बचपन की यादें, ताउम्र बेटी अपने पिता का घर नही भूल पाती ! पूरे जीवन वह अपने भाई और पिता की ओर देखती रहती है !
राखी और सावन में तीज, ये दो त्यौहार, पुत्रियों को समर्पित हैं, इन दिनों का इंतज़ार रहता है बेटियों को कि मुझे बाबुल का या भइया का बुलावा आएगा ! अपने ही घर को वह अपना नहीं कह पाती वह मायके में बदल जाता है ! !
नारी के इस दर्द का वर्णन बेहद दुखद है .........
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLTC3dC9sH2KlEZdZWfT8xjQkYqfVP1w2EbY8Hd4VsSQQDrIbOlqDhoIjcIIFsLX290s-5lKssSzcIJzqn1RTppHjgn-L7SXfxE1hHDWmqUKPe_BCCV7g7NW_16HL6QZjThQ25npnVwu8C/s200/gudiya.jpg)
जब चलना मैंने सीखा था !
पास लेटकर उनके मैंने
चंदा मामा जाना था !
बड़े दिनों के बाद याद
पापा की गोदी आती है
पता नहीं माँ सावन में, यह ऑंखें क्यों भर आती हैं !
पता नहीं जाने क्यों मेरा
मन , रोने को करता है !
बार बार क्यों आज मुझे
सब सूना सूना लगता है !
बड़े दिनों के बाद आज,
पापा सपने में आए थे !
आज सुबह से बार बार बचपन की यादें आतीं हैं !
क्यों लगता अम्मा मुझको
इकलापन सा इस जीवन में,
क्यों लगता जैसे कोई
गलती की माँ, लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठी ये
आँखे झर झर आती हैं !
अक्सर ही हर सावन में माँ, ऑंखें क्यों भर आती हैं !
एक बात बतलाओ माँ ,
मैं किस घर को अपना मानूँ
जिसे मायका बना दिया या
इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ
भाई की यादें आतीं हैं !
पायल,झुमका,बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !
आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा, झूले में ,
खुलके हंसना याद आया है,
जो मैं भुला चुकी कब से
नानी,मामा औ मौसी की
चंचल यादें ,आती हैं !
सोते वक्त तेरे संग, छत की याद वे रातें आती हैं !
तुम सब भले भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ
तुम सब भूल गए मुझको
पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
छीना सबने, आज मुझे
उस घर की यादें आती हैं,
बाजे गाजे के संग बिसरे, घर की यादें आती है !
सतीश सक्सेना जी आप की कविता ने बहुत भावुक कर दिया.
ReplyDeleteबड़े दिनों के बाद आज , उस घर की यादें आती हैं !
पता नहीं क्यों आज मुझे मां तेरी यादें आती हैं !
धन्यावाद
This is one of ur best poem,this poem wil touch every girl's heart..very beautifully written by you.
ReplyDeletethank you
यह विषय ही भावुक कर देने वाला है जी। हमारे समाज की संरचना में यह इनहेरेण्ट (inherent) है।
ReplyDeleteSatish !
ReplyDeleteA Very touchy, expressive, feelings of a girl who really misses her nanihal especially during a festival time. She is midst of both families and never show her hidden wishes either to her mayka or in her sasural.
Satish tumhare sawan ki geet ne mujhe rula diya !
किस घर को अपना बोलूं ?
मां किस दर को अपना मानूं
भाग्यविधाता ने क्यों मुझको
जन्म दिया है , नारी का,
बड़े दिनों के बाद आज भैया की याद सताती है
पता नहीं क्यों सावन में पापा की यादें आती है !
आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा झूले में ,
अपना बचपन याद आ गया
जो मैं भुला चुकी, कब से
बड़े दिनों के बाद आज क्यों बिसरी यादें आती हैं !
पता नही क्यों याद मुझे, पापा की पप्पी आती है !
I am relly happy that you had putforth the true feelings of a woman.
Bahut khoob !
बहुत भावुक प्रस्तुति!! मन भर आया पढ़कर.
ReplyDeleteबहुत मार्मिक रचना है।बहुत सुन्दर लिखा है।
ReplyDeleteबड़े दिनों के बाद आज , उस घर की यादें आती हैं !
पता नहीं क्यों आज मुझे मां तेरी यादें आती हैं !
अच्छा लिखा है आपने. पर यह तो जीवन यात्रा है, कोई तो अपने घर से दूसरे घर जायेगा.
ReplyDeleteपता नहीं जाने क्यों मेरा
ReplyDeleteमन रोने को करता है ,
बार बार क्यों आज मुझे
यादें उस घर की आती हैं
बड़े दिनों के बाद आज , पापा सपने में आए थे !
पता नहीं मां क्यों मन को,मैं आज न समझा पाई हूँ
"ankhen sach mey nm hogyee hain"
Regards
सच कहा आपने माँ तो माँ ही है। उसकी जगह और कोई नहिं ले सकता।
ReplyDeleteबहुत ही भावुक रचना है बिल्कुल दिल से बहुत ही अच्छी है बधाई हो और धन्यवाद आज हमें भी मां और पिताजी की काफी याद आ गई लगता है आज तो फोन करना ही पडेगा बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteअत्यंत भावःविह्वल कर दिया आपने.
ReplyDeleteसबसे बड़ी बात ये है यहाँ कि कविता में स्म्रतियाँ मात्र बेटी कि नहीं हैं पिता भी यहाँ उपस्थित है
और माँ बिना बेटी का रुदन तो अधूरा होगा ही सो बेटी के भी शक्ल में माँ अपनी सम्पूर्णता में है .
बड़े दिनों के बाद आज , उस घर की यादें आती हैं !
ReplyDeleteपता नहीं क्यों आज मुझे मां तेरी यादें आती हैं !
बेटी को विदा करने के बाद जो शुन्य पैदा
हवा है वो आज तक नही भर पाया !
दिल को छु गई आपकी ये रचना ! पिछली
जितनी ही ह्रदय स्पर्शी ! धन्यवाद !
आज बाग़ में बच्चों को
ReplyDeleteजब मैंने देखा झूले में ,
अपना बचपन याद आ गया
जो मैं भुला चुकी, कब से
बड़े दिनों के बाद आज क्यों बिसरी यादें आती हैं !
पता नही क्यों याद मुझे, पापा की पप्पी आती है !
bahut achchhe geet hai sateesh ji aapake, nirantar padhvate rahiyega.
http://.rashtrapremi.com
बहुत मार्मिक प्रस्तुति.......
ReplyDeleteपता नहीं जाने क्यों मेरा
ReplyDeleteमन रोने को करता है ,
बार बार क्यों आज मुझे
यादें उस घर की आती हैं
बड़े दिनों के बाद आज , पापा सपने में आए थे !
पता नहीं मां क्यों मन को,मैं आज न समझा पाई हूँ
सतीश जी आपने तो सच में रुला दिया
कविता पढ़कर बहनों कि याद तो आयी ही बीवी का ख्याल भी आ गया कि उसे भी अपने घर गये हुए काफी दिन हो गये
bhut bhavuk kar gayi hai rachana. bhut sundar.
ReplyDeletekya baat bhut bhavuk note hai. ati uttam. jari rhe.
ReplyDeleteबेहद संवेदनशील. उम्दा.
ReplyDelete'किस घर को अपना बोलूं? मां किस दर को अपना मानूं'- भारतीय नारी के जीवन की शाश्वत विडम्बना
ReplyDeleteका मार्मिक चित्रण।
बहुत सच और मार्मिक है आपका लेखन ।कई बार ई-मेल पता ढूँढने की कोशिश की थी नहीं मिला ।
ReplyDelete-प्रतिभा सक्सेना.
१३
बहुत सच और मार्मिक है आपका लेखन ।कई बार ई-मेल पता ढूँढने की कोशिश की थी नहीं मिला ।
ReplyDelete-प्रतिभा सक्सेना.
१३
बहुत बढ़िया और भावुक कर देने वाला लिखा है सर ।
ReplyDeleteसादर
एक बेटी के दर्द को बखूबी उकेरा है।
ReplyDeleteभावमय करते शब्दों के साथ बेहतरीन रचना
ReplyDeleteभावनाओं ले भरी रचना....
ReplyDeleteसच में यही होता है...
बेटी के मन के भावों को बहुत खूबसूरती से लिखा है .. हर बेटी ऐसे ही माँ को याद करती है ..
ReplyDeleteऊफ... मेरी भी आंखें भर आईं
ReplyDeleteबेहद सुंदर
हृदयस्पर्शी रचना
आपकी लेखनी को नमन 🙏
आभार ..
Deleteमन के कोरों को भिगो गई आपकी पोस्ट ...
ReplyDeleteस्वागत आपका
Deleteनि:शब्द हूँ!
ReplyDeleteस्वागत आपका
Deleteआह सचमुच आँखें भर आईं . काकाजी को याद करके . माता पिता की ममता और वात्सल्य की छाँव में हर महिला बच्ची सी होती है चाहे वह कितनी उम्र की होजाए . मैं अब बच्ची से बड़ी होगई हूँ .वात्सल्य की छाँव नही है . यह बड़ापन अखरता है . आपकी कविता ने सब कुछ याद करा दिया सावन में . बहुत मार्मिक गीत है .
ReplyDeleteआभार आपका गिरिजा जी ,
Deleteआपकी गरिमामयी उपस्थिति से इस रचना को सम्मान मिला , आभारी हूँ
एक बेटी की दिल का हाल माँ-बाप से बेहतर और कौन समझ सकता है, बेटी बिना ये संसार अधूरा है
ReplyDeleteबहुत अच्छी मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
स्वागत और आभार कविता जी ...
Deleteमन को छूती सराहनीय अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर
स्वागत के साथ आभार रचना पसंद आने के लिए
Deleteबेटी के मन के भावों को मर्मस्पर्शी सत्य के साथ बहुत सुन्दर शब्दों में संजोया है आपने ।
ReplyDeleteस्वागत एवं आभार मीना जी
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteआभार भाई आपका
Deleteआपकी इस कविता की समीक्षा क्या शब्दों में की जा सकती हैं... अगर की जा सकती हो कम से कम मुझसे तो ना हो पाएगी...कैसे कहूं कि ''क्यों लगता अम्मा मुझको
ReplyDeleteइकलापन सा इस जीवन में,
क्यों लगता जैसे कोई
गलती की माँ, लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठी ये
आँखे झर झर आती हैं !
अक्सर ही हर सावन में माँ, ऑंखें क्यों भर आती हैं !''.... मन भिगोने वाले इन शब्दों के लिए बस इतना ही कि ये शब्द नहीं हमारा पूरा का पूरा वजूद है ।
स्वागत और आभार आपका ...आपके शब्दों से इस रचना को पूर्णता प्राप्त हुई अलकनन्दा जी
Deleteधन्यवाद सतीश जी
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (२८-७-२०२०) को
"माटी के लाल" (चर्चा अंक 3776) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है
आभार आपका कामिनी जी
Deleteआदरणीय सतीश जी निशब्द हूँ। आँखें छलकने से रुक पायी। हर नारी मन की व्यथा कथा है। इससे मिलतीजुलती कहानी मैंने भी लिखी थी जब विवाह को तीन चार साल ही हुयेथे । सादर🙏🙏🌹🙏🙏
ReplyDeleteआभार और स्वागत रेनू जी
Delete
ReplyDeleteएक बार जरूर देख लें🙏🙏
https://renuskshitij.blogspot.com/2017/10/blog-post_30.html?m=1
अदभुद
ReplyDeleteभावुक कविता
ReplyDeleteआ सतीश जी, भावुक कर गयी यह रचना ! हमारे यहाँ समाज की ऐसी पद्धति बनी है , जिसमें स्त्री को ही अपने पिता माता का घर छोड़कर जाना पड़ता है। इस सामाजिक व्यवस्था को पुनः गठित करने की जरुरत है , ऐसा मैं मानता हूँ ! हालाँकि अभी तो लडके भी माता पिता से विदा ही ले लेते हैं, जब वे दूरस्थ शहरों में नौकरी करने जाते हैं। आपकी रचना के लिए हार्दिक साधुवाद !--ब्रजेन्द्र नाथ
ReplyDeleteओह आपका सुझाव सुखद है ...काश बेटी अपने घर रह पाती !
Deleteहार्दिक आभार !!
दिल को छू लेने वाली बेहतरीन रचना । हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteस्वागत भाई , आभार आपका
Deleteबहुत पहले ब्लॉग पर यह कविता लिखी थी -
ReplyDeleteसावन के बहाने, बुला भेजो बाबुल,
बचपन को कर लूँगी याद रे !
बाबुल मेरे !
तेरे कलेजे से लग के ।।
नन्हें से पाँवों में, चाँदी की पायल,
पायल के घुँघरू, घुँघरू की रुनझुन !
रुनझुन मचलती थी, जब तेरे आँगन,
छोटी - छोटी खुशियों की बात रे !
बचपन को कर लूँगी याद रे !
बाबुल मेरे !
तेरे कलेजे से लग के ।।
अम्मा से कहना, तरसे हैं अँखियाँ,
अँखियों में सपने, सपनों में सखियाँ,
सावन के झूले, मीठी सी बतियाँ !
पीहर की ठंडी सी छाँव रे !
अब ना वह बाबुल रहा, ना पहले वाली बात.... सावन में हर लड़की को मायके की याद जरूर आती है। शायद राखी और तीज जैसे त्योहार इसीलिए बनाए गए थे कि मायके से भावनात्मक डोर जुड़ी रहे। आपकी कविता पढ़कर मन भी भीगा और पापा की याद से आँखें भी....
ओह , गज़ब पीड़ा !!
Deleteकाश समाज इसको सम्मान दे और याद रखे हमेशा !
पता नहीं जाने क्यों मेरा
ReplyDeleteमन , रोने को करता है !
बार बार क्यों आज मुझे
सब सूना सूना लगता है !
बड़े दिनों के बाद आज,
पापा सपने में आए थे !
आज सुबह से बार बार बचपन की यादें आतीं हैं !
आपकी रचना ने नारी मन की व्यथा-कथा को ऐसे रचा है कि यकीन ही नहीं होता ये किसी पुरुष की लेखनी से निकली है।
मयके को याद में बहने वाले आँसुओं के निकलने पर हमने प्रतिबंध लगा रखा था, वो आँसू सारे बँध तोड़ कर बह निकले।
रुला दिया आपने तो,सादर नमन आपकी लेखनी को।
रचना लेखन सफल हुआ कामिनी ,
Deleteआपकी स्पष्ट अभिव्यक्ति ने बल दिया है मेरी लेखनी को ! आभार आपका ...
किस घर को अपना बोलूं.. 😢😢
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