दिन तो कटता जैसे तैसे , मगर रात भर,
स्वयं लगाए ज़ख्मों को , सहलातीं होंगीं !
शब्द सहानुभूति के विदा हुए , कब के !
अब सखियों में बेचारी, कहलातीं होंगीं !
स्वयं लगाए ज़ख्मों को , सहलातीं होंगीं !
शब्द सहानुभूति के विदा हुए , कब के !
अब सखियों में बेचारी, कहलातीं होंगीं !
जीवन भर का संग लिखा कर लायीं हैं ,
फूटी किस्मत पा कितना पछतातीं होंगीं !
फूटी किस्मत पा कितना पछतातीं होंगीं !
जाने कितनी बार तसल्ली खुद को देकर ,
अभिमानों को स्वाभिमान,बतलातीं होंगीं !