दिन तो कटता जैसे तैसे , मगर रात भर,
स्वयं लगाए ज़ख्मों को , सहलातीं होंगीं !
शब्द सहानुभूति के विदा हुए , कब के !
अब सखियों में बेचारी, कहलातीं होंगीं !
स्वयं लगाए ज़ख्मों को , सहलातीं होंगीं !
शब्द सहानुभूति के विदा हुए , कब के !
अब सखियों में बेचारी, कहलातीं होंगीं !
जीवन भर का संग लिखा कर लायीं हैं ,
फूटी किस्मत पा कितना पछतातीं होंगीं !
फूटी किस्मत पा कितना पछतातीं होंगीं !
जाने कितनी बार तसल्ली खुद को देकर ,
अभिमानों को स्वाभिमान,बतलातीं होंगीं !
सही है..अन्यों को दुखी करने वाला खुद की नींद भी गंवा बैठता है..उन्हें करुणा की नजर से देखना चाहिए..
ReplyDeleteबहुत सुंदर एवं भावपूर्ण.
ReplyDeleteकविता सम्वेदना और कोमल भावों से परिपूर्ण है .
ReplyDeleteसच कहा है !
ReplyDeleteसंवेदनशील मन के भाव ... कष्ट देने वाले को सुख कहाँ मिलता है ...
ReplyDeleteये तो आपके खुद के मन के आकलन हैं--पर सोच जानदार है।
ReplyDeleteबेहतरीन सर
ReplyDeleteसंवेदनाओं से परिपूर्णं रचना।
ReplyDeleteजीवन भर का संग लिखा कर ले आयीं ,
ReplyDeleteफूटी किस्मत पा कितनी पछतातीं होंगीं !
एक तरफ कटाक्ष और दूसरी तरफ व्यंग्य की झलक है इन पंक्तियों में ।
सुंदर एवं भावपूर्ण रचना...बधाई
ReplyDeleteजीवन भर का संग लिखा कर ले आयीं ,
ReplyDeleteफूटी किस्मत पा कितनी पछतातीं होंगीं !
बहुत सुंदर सतीश जी.
jitna idhar hai utna idhar hai. Good.
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