धर्म बनाया,
बुरे वक्त,
ताकत पाने को !
ताकत पाने को !
अंध आस्था
मुंह फैलाये ,
मुंह फैलाये ,
मानवता को
ही खाने को !
कितने घृणित
काम ये करते
बस्ती में ही आग उगलते !
बच्चों की लाशों
पर चढ़कर हँसते हैं ये लोग !
अधरम का भय दिखा, नराधम बन जाते सिरमौर !
कहाँ से आये हैं
ये लोग ?
ही खाने को !
कितने घृणित
काम ये करते
बस्ती में ही आग उगलते !
बच्चों की लाशों
पर चढ़कर हँसते हैं ये लोग !
अधरम का भय दिखा, नराधम बन जाते सिरमौर !
कहाँ से आये हैं
ये लोग ?
रामू काका,
रहमत चच्चा ,
हर मुश्किल में साथ रहे थे !
ज़ीनत खाला ,
और निवाले,
इक दूजे का हाथ गहे थे !
होली ईद हमारे सबसे,
मनचाहे त्यौहार रहे थे,
अब गलियों में
शोर मचा है ,
जाने कैसा धुआं उठा है,
पीठ पे नाम लिखा औरों का
आये हैं कुछ लोग !
जाने किसका हुक्म बजाने, घर से निकले लोग !
किस तरह जहर
उगलते लोग ?
सीधे साधे बच्चे
अपने,खेल कूदते
बड़े हुए थे !
धर्म जाति बंधन
न जाने,
इन गलियों से
खड़े हुए थे !
किसने इनको भय
सिखलाया,
कौन क्रोध का पाठ
पढ़ाया ,
मानवता को तार तार कर
बने जानवर लोग !
धरती पकडे कोख को रोये, कैसे हैं ये लोग ?
रंजिशे घर में
लाते लोग ?
अपने,खेल कूदते
बड़े हुए थे !
धर्म जाति बंधन
न जाने,
इन गलियों से
खड़े हुए थे !
किसने इनको भय
सिखलाया,
कौन क्रोध का पाठ
पढ़ाया ,
मानवता को तार तार कर
बने जानवर लोग !
धरती पकडे कोख को रोये, कैसे हैं ये लोग ?
रंजिशे घर में
लाते लोग ?
मूर्खों को
बलवान बनाके,
हाथ में
कलाश्निकोव थमा के,
धर्म की परिभाषाएं
बदलीं !
गुरु, कुतर्की
आलिम नकली !
अपने घर में आग लगाएं
कैसे हैं ये लोग ?
बलवान बनाके,
हाथ में
कलाश्निकोव थमा के,
धर्म की परिभाषाएं
बदलीं !
गुरु, कुतर्की
आलिम नकली !
किसने घटिया
मार्ग दिखाया,
किसने सबको मूर्ख बनाया,
झाग उगलते घर से निकले
बदला लेते लोग !
मार्ग दिखाया,
किसने सबको मूर्ख बनाया,
झाग उगलते घर से निकले
बदला लेते लोग !
जात मानवी,करम नराधम, नफरत बोयें लोग ?
कैसे हैं ये लोग ?
Very Bold & True, may not digesting to many. It is man's selfish which is main cause of many social evils & prejudices. Good.
ReplyDeleteइन लोगों को देख समझ कर
ReplyDeleteलगता है कुछ अलग अलग
बंदर से आदमी
हो गये हों अगर ये
शायद बंदर हो
चुके हम लोग :)
बहुत सुंदर रचना वाह ।
वाह बहुत ही सूंदर गीत..
ReplyDeleteमूर्खों को
बलवान बनाके,
हाथ में
कलाश्निकोव थमा के,
धर्म की परिभाषाएं
बदलीं !
मानवता को तार तार कर
ReplyDeleteबने जानवर लोग !
धरती पकडे कोख को रोये कैसे हैं ये लोग ?
अपने ही बच्चों को खाते
कैसे हैं ये लोग ?
...इंसान कहलाने लायक कहाँ हैं ये लोग...दिल को छूती लाज़वाब अभिव्यक्ति...
बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
सार्थक, सामयिक और मानवता रस से भरी बहुत ही सुन्दर रचना ... सच कहा है आपने इसी मानव ने अपने आप पर नियंत्रण रखने के लिए धर्म बनाया और आज उसी के नाम पर नियंत्रण खो रहे हैं ...
ReplyDeleteसटीक रचना
ReplyDeleteकोई भी धर्म गलत नहीं होता लेकिन धर्म की परिभाषायें करने वाले लोग
ReplyDeleteगलत परिभाषा जो करते है, परिणाम भी जरूर उसीके के अनुरूप होंगे,
सटीक बाते कही है रचना में !
बिलकुल सटीक कविता..बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteरामू काका,
ReplyDeleteरहमत चच्चा ,
हर मुश्किल में साथ रहे थे !
ज़ीनत खाला ,
और निवाले,
इक दूजे का हाथ गहे थे !
होली ईद हमारे सबसे,
मनचाहे त्यौहार रहे थे,
अब गलियों में
शोर मचा है ,
जाने कैसा धुआं उठा है,
पीठ पे नाम लिखा औरों का
आये हैं कुछ लोग !
अपना अपना शौर्य दिखाने,घर से निकले लोग ?
कैसे मिलवाएं बच्चों से
जहर उगलते लोग ?
लाजबाव पंक्तियां। गहन अर्थ।
सुंदर, सटीक और सार्थक सृजन
ReplyDeleteबहुत उत्तम रचना सर ,,,,,,,,,,,दिल को झकझोर दिया
ReplyDeleteकाले -सफ़ेद ,
ReplyDeleteधन के पीछे भागे ,
मानवता को छोड़।,
न जाती दिखती ,
न धर्म दीखता ,
तुलता जब पैसे से मोल।
अनेकों गूढ़ अर्थ समेटे सुन्दर,सार्थक गीत।
ReplyDelete