"संकीर्ण सोच" श्रीकांत पराशर के उन लेखों में से एक है जो मुझे बहुत पसंद है और बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है ! अफ़सोस है कि हर समाज का नुकसान करने वाले अधिकतर यही संकुचित सोच वाले "बुद्धिमान" व्यक्ति ही रहे हैं !यह सच है कि संकीर्ण विचारधारा को बदलना अगर असंभव नही तो बेहद मुश्किल कार्य अवश्य है
आज भी ऐसे लोगों की कमी नही है जो हर समय नफरत पालते हैं और नफरत में ही सोना पसंद करते हैं, इन लोगों को प्यार और स्नेह का आनंद ही मालुम नही ! अधिकतर ऐसे लोगों की प्रारिवारिक प्रष्ठभूमि में सहोदर भाई बहनों में भी प्यार की जगह एक दूसरे को नीचा दिखाना तथा पूरे जीवन एक दूसरे के साथ दिखावा करना ही रहा है !
घर में माता-पिता की भूमिका को नकारते समय, हमें यह याद क्यों नही रहता कि भविष्य में यही भूमिका हमारी भी होगी, और हमारी संतान हमें उतना ही महत्व देगी !
आपसे सहमत।
ReplyDeleteनफरत तो बेस नहीं बन सकता व्यक्तित्व का। किसी विशेष टेक्टिक्स का औजार भर ही हो सकता है। अन्यथा यह अवसाद को ही जन्म देगा।
ReplyDeleteइतने दिनों के बाद बस केवल इतना ही? वैसे हम भी आपसे सहमत हैं. आभार.
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी भीगी भीगी बधाई।
ReplyDeleteबुरा न मानो होली है। होली है जी होली है
सही लिखा सतीश जी आपने ।
ReplyDeleteबड़ी देर की मेह्रबां आते-आते।:)
ReplyDeleteहोली की रंगबिरंगी शुभकामनायें।
बात तो आपने बहुत सही कही है. होली की आपको बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
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Jai...Ho....