पिछली पोस्ट में प्रवीण पाण्डेय की टिप्पणी पढ़कर देखता ही रह गया ...
"मैंने तो मन की लिख डाली,
अब शब्दों की जिम्मेदारी ! "और उनको एक पत्र लिखा ...
प्रवीण भाई,
आपकी दी हुई उपरोक्त दो लाइने अच्छी लगी हैं ! इस गीत को आगे पूरा करने का दिल है ...इजाज़त दें तो ... :-)
और जवाब तुरंत आया ....
आपको पूरा अधिकार है, निश्चय ही बहुत सुन्दर सृजन होगा, कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं मैने भी पर भाव अलग हैं। प्रतीक्षा रहेगी आपके गीत की। सादर , प्रवीण
प्रवीण पाण्डेय,मेरी नज़र में बहुत ऊंचा स्थान ही नहीं रखते अपितु उनकी रचनाओं से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ! हिंदी भाषा का यह सौम्य सपूत वास्तव में बहुत आदर योग्य है !
उनके प्रति आभार के साथ, इस रचना का आनंद लें ...अगर आप लोग आनंदित हुए तो रचना सफल मानी जायेगी !
मैंने कुछ रंग लगाये हैं
अंतर्मन से ही नज़र पड़े
ऐसे अरमान जगाये हैं !
मानवता गौरवशाली हो
तब झूम उठे, दुनिया सारी !
मैंने तो मन की लिख डाली, अब शब्दों की जिम्मेदारी !
ये शब्द ह्रदय से निकले हैं
इन पर न कोई संशय आये
वाक्यों के अर्थ बहुत से हैं,
अपने भावों से पहचानें !
मैंने तो अपनी रचना की ,
हर पंक्ति तुम्हारे नाम लिखी !
जाने क्या अर्थ निकालेगी, इन छंदों का, दुनिया सारी !
असहाय, नासमझ जीवों की
आवाज़ उठाना लाजिम है !
मानव की कुछ करतूतों से
आवरण उठाना वाजिब है !
पाशविक प्रवृत्ति का नाश करे,
मानवता हो, मंगल कारी
इच्छा है, अपनी भूलों को , स्वीकार करे दुनिया सारी !
जिस तरह प्रकृति का नाश ,
करें खुद ही मानव की संताने
फल,फूल,नदी,झरते झरने
यादें लगती, बीते कल की !
गहरा प्रभाव छोड़े अपना ,
कुछ ऐसी करें कलमकारी !
प्रकृति की अनुपम रचना का, सम्मान करे दुनिया सारी !
मृदु भावों का अहसास रहे ,
बचपन से, मांगे मुक्त हंसी
स्वागत सबका, सम्मान रहे !
दुश्मनी रंजिशें भूल अगर,
झूमेगी तब महफ़िल सारी !
यदि गैरों की भी पीड़ा का ,अहसास करे दुनिया भारी !
बच्चों को टोकें , हंसने से !
कलियों को रोकें खिलने से
हर हृदय कष्ट में आ जाता
आस्था पर प्रश्न उठाने से !
क्रोधित मन, कुंठाएँ पालें,
ये बुद्धि गयी कैसे मारी !
गुरुकुल की, शिक्षाएँ भूले , यह कैसी है पहरेदारी !
कुछ ऐसा राग रचें मिलकर
सुनकर उल्लास उठे मन से
कुछ ऐसा मृदु संगीत बजे
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
यदि गीतों में झंकार न हो,
तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी !
हर रचना के मूल्यांकन में इन शब्दों की जिम्मेदारी !
क्या ही उम्दा ज़रिये से ,खूब निभाई ज़िम्मेदारी,
ReplyDeleteशब्दों को अर्थ मिले रचना से,दोनों की जय-जयकारी !
बहुत खूब !
bahut addbhut prabhaav shali kavita bani hai shabdon ne bhi apni jimmedari bakhoobi nibhaai hai.sateesh ji aur praveen ji aap dono ko badhaai aur shubhkamnaayen.
ReplyDeleteप्रवीण जी का आभार... इतने सुन्दर गीत के सृजन की नींव डालने के लिए...! आपकी लेखनी को पुनः नमन सतीश जी!
ReplyDeleteसहृदयों के भाव जुड़े तो गीत जन्मा अनुकूल
जीवन के प्रतिमान क्या.. बस जुड़ाव ही है मूल
@praveen ji, quoting you, "कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं मैने भी पर भाव अलग हैं।"
- अब तो 'न दैन्यं न पलायनम' पर भी गीत पढ़ने की प्रतीक्षा रहेगी!
आपने तो अपने मन की लिख डाली , लेकिन हमें भाव विभोर कर डाला ..........अतिउत्तम ...............जन्मदिन मुबारक हो सरजी ................
ReplyDeleteपूरी जिम्मेदारी से निभाए गए और निभे शब्द, बधाई.
ReplyDeleteसचमुच प्रवीण जी जितने अच्छे रचनाकार हैं उतने ही अच्छे व्यक्ति ! हाल ही उनसे मेरी मुलाक़ात रेलवे में आयोजित एक कवि सम्मलेन के दौरान हुई थी ! उनकी आत्मीयता और व्यक्तित्व की खुशबू ने अभी तक मेरे मन को सुवासित कर रखा है ! उनकी पंक्तियों पर आपने बहुत ही सुन्दर गीत रचा है !
ReplyDeleteबधाई हो !
अद्भुत ! अनुपम !!
ReplyDeleteप्रवीण जी का जो उद्दात भाव, जो आतंरिक दर्शन है उसे आपने काव्य में ढालकर सब पर बरसा दिया है.
आज जो कमेन्ट उनके ब्लॉग पर कुछ सकुचाते हुए लिखा था, वही उदगार यहाँ उत्साह से लिख रहा हूँ -----
"मैंने हमेशा महसूस किया है और आज शत-प्रतिशत प्रमाणिकता से कह सकता हूँ की आपका चिंतन आपके ब्लॉग-नाम से शत-प्रतिशत साम्य रखता है............................. हर पोस्ट में परीपाटित दार्शनिक वितंडतावाद से इतर, मानवीय दौर्बल्य तजकर झंझावातों से टकराने के सूत्र यहाँ मिलतें है, चाहे आप उन्हें शब्द दें या ना दें ................ मैं प्रवीण पाण्डेय को जानता नहीं हूँ, पर जितना समझ सका हूँ उसका शत-प्रतिशत सार है ------
न दैन्यं न पलायनम्"
आपने बिलकुल सही कहा है कि उनकी रचनाओं से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ! हिंदी भाषा का यह सौम्य सपूत वास्तव में बहुत आदर योग्य है !
*****************
और हाँ रचना सफल रही है :)
प्रवीण जी ने नींव रखी और आपने सुन्दर इमारत खड़ी कर दी,आप दोनों को बधाई|
ReplyDeleteसंक्षिप्त,सटीक और सार्थक टिप्पणी देने का प्रवीण जी अंदाज बहुत अच्छा लगता हे|
गुरुदेव इस गीत में आपने शब्दों को निभाया ही नहीं साधा है... बस दिल में उतरती जा रही हैं ये पंक्तियाँ..
ReplyDeleteशब्दों की ज़िम्मेदारी ... रचना बहुत प्यारी ..बधाई और शुभकामनायें हमारी ..
ReplyDeleteसतीश भाई शब्द अगर जिम्मेदार रचनाकार के हाथ में हों तो वे भी अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं। आप और प्रवीण जी दोनों ही जिम्मेदार रचनाकार हैं इसमें कोई शक नहीं है।
ReplyDeleteतो इस गीत में भी आप और आपके शब्द जिम्मेदारी पर खरे हैं।
दो महानुभावों(महा+अनुभावों)का संगम एक अर्थपूर्ण ,विशद कविता रच गया .चित्त प्रसन्न हो गया .दोनो को मेरा नमन !
ReplyDeleteअभी रचना-क्रम का अगला भाग (प्रवीण जी की कविता)शेष है-प्रतीक्षा है पूर्णानन्द की !
प्रवीण जी के क्या कहने जिनते अच्छे इंसान उतने ही अच्छे रचनाकार हैं
ReplyDeleteगजब का लिखा है और शब्दों ने भाव यथावत पहुँचा कर अपनी जिम्मेदारी निभायी है।
ReplyDeleteआपने तो पूरी निष्ठा के साथ जिम्मेदारी निभा दी………शानदार प्रस्तुतिकरण्।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया..
ReplyDeleteसतीश भाई ,
ReplyDeleteशब्दों से निपटने आया था फिलहाल फोटो से निपट कर जा रहा हूं दोबारा वापस आकर आपकी कविता पर प्रतिक्रिया दूंगा !
हुआ ये कि कविता से पहले प्रवीण जी की मनोहारी फोटो पर नज़र पड़ गई और ये ख्याल आया...
"वरदन्त की पंगत कुंद कली अधराधर पल्लव खोलन की...
तो अब पाण्डेय जी की बारी है :) हम तो केवल शब्दों को झेल रहे है!!!!!!
ReplyDeleteपहले अली भाई की उद्धृत कविता रसखान की पंक्ति की अगली पंक्ति जोड़ दूं -
ReplyDeleteचपला चमके घन बीच जगे छवि मोतिन माल अमोलन की...
मगर प्रवीण जी को मैंने चाक्षुष निहारा है वे किशन सरीखे घने तो नहीं हैं हाँ उनकी कविताई घनी है !
..और आपकी इस कविता के क्या कहने ..कैसे कैसे बोध हो रहे हैं ....
वागर्थविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये ....रचना और भाव ऐसे ही जुड़े हैं भाई जी ....
कभी कभी रचनाएं शब्दों के भी ऊपर उठ जाती हैं तो कभी शब्द मंडित दीखते हैं ..
सटीक तालमेल किसी दक्ष कवि के ही वश की बात है !
शब्दों की जिम्मेदारी और प्रवीण जी की बारी...
ReplyDeleteआपने तो अपने पाली शत प्रतिशत निभा डाली...
आनन्द आ गया.
bahut hi sunder......
ReplyDeleteखूब जमी , जब मिल बैठे यार दो !
ReplyDeleteबेहतरीन जुगलबंदी है आप दोनों की ।
बधाई और शुभकामनायें ।
बहुत मार्मिक रचना सुंदर लगी !
ReplyDeleteबधाई प्रवीण जी को और आपको भी
हमने भी मन की बात लिख डाली !
बहुत मार्मिक रचना सुंदर लगी !
ReplyDeleteबधाई प्रवीण जी को और आपको भी
हमने भी मन की बात लिख डाली !
सच कहूँ तो बहुत ही बेहतरीन लिखा है आपने... प्रवीण जी के लफ़्ज़ों को अपनी भावनाओं में पीरों कर कमाल ही कर दिया है...
ReplyDeleteआपने तो अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है .....बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति.....
ReplyDelete"मैंने तो मन की लिख डाली,
ReplyDeleteअब शब्दों की जिम्मेदारी ! "
ऊपर से सतीश जी का अप्रतिम गीत जैसे पिकासो की चित्रकारी...
अब कहां से लाए हम टिप्पणी के लिए ज़रूरी समझदारी...
जय हिंद...
काश सभी आपके और प्रवीण जी के ..शब्दों जैसे सच्चे और ईमानदार होते .....
ReplyDeleteइस गीत को पढ़कर साहिर लुधियानवी के कई गीत अनायास मन में चलने लगे।
ReplyDeleteगीत का भाव मन में जगह बनाते हैं। कुछ रचनाएं न सिर्फ़ दिल के लिए होती हैं, बल्कि मन के लिए भी। यह उनमें से एक है।
मृदु भावों का अहसास रहे
ReplyDeleteपिछली पीढ़ी का ध्यान रहे
बचपन से, मांगे मुक्त हंसी
स्वागत कर सकें, बहारों का
दुश्मनी रंजिशें भूल अगर, झूमेगी तब महफ़िल सारी !
जब गैरों की भी पीड़ा का, अहसास करे दुनिया भारी
....लाज़वाब...भावों का प्रवाह अपने साथ बहा ले जाता है..बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति...आभार
प्रवीण जी की शब्द संपदा बेजोड़ है।
ReplyDeleteआपकी कविता/गीत अच्छा है।
बहुत सुन्दर...अति उत्तम.
ReplyDeleteवाकई कभी कभी कैसे २-४ शब्द प्रेरणा बन इतनी खूबसूरत कृति को जन्मते हैं..
बधाई सर.
अली भाई गज़ब की दृष्टि रखते हैं,सुदर्शन छवि देखकर बौरा गए !
ReplyDeleteकितना सुंदर तालमेल..... एक अद्भुत रचना पढने को मिली आपके शब्द संयोजन से ..... आभार
ReplyDeleteप्रवीणजी का लेखन सच में प्रेरणादायी है ......
अदभुत प्रभावशाली सुंदर रचना के लिए सतीश जी
ReplyDeleteआपको बहुत२ बधाई....आभार
मेरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
यदि मन के भाव समझ पाओ,तो झूम उठे,दुनिया सारी !
ReplyDeleteमैंने तो मन की लिख डाली, अब शब्दों की जिम्मेदारी !
आप दोनों का बहुत -बहुत आभार...आपने अपने मन की लिख डाली और बन गयी हम सब के मन की... सुन्दर रचना
गीतों में यदि झंकार न हो, तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी !
ReplyDeleteरचना के मूल्यांकन में है , इन शब्दों की जिम्मेदारी !
बहुत सुंदर रचना बन पड़ी है |बहुत बहुत बधाई आपको |आप दोनों का प्रभावशाली लेखन है ....शब्द बखूबी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं .......
अदभुत गीत रच डाला है ,आप ने। पर 'इस दुनिया के विद्रूपों' और 'सुनकर मृदुभाव जगें मन में' के बीच जो अंतराल है वह पूरे गीत में ब्लेक मैटर की तरह महसूस होता है।
ReplyDeleteबेशक सम्पूर्ण गीत बना है.पंक्तियाँ ही कमाल थीं प्रवीण जी की.
ReplyDeleteप्रवीण पांडे जी की उक्त टिप्पणी मैंने पढ़ी थी और उसमें निहित इस अभिव्यक्ति पर ध्यान गया था. आपने उस टिप्पणी को मानव मूल्यों की मंजूषा में बदल दिया है. बहुत खूब.
ReplyDeleteप्रेरणा कहीं से मिले, मिले...यूँ कमाल धमाल करे।
ReplyDeleteसुंदर गीत बन पड़ा है। बधाई स्वीकार करें।
प्रवीण जी के एक पंक्ति के कमेंट सारगर्भित होते हैं और महसूस होता है कि उन्होने पूरी पोस्ट को खूब अच्छे से पढ़ा है। कभी-कभी इतने गोल मोल होते हैं कि शक भी होता है। हर ब्लॉग में हर पोस्ट को कैसे इतने अच्छे से पढ़ पाते हैं यही सोचकर मन उनका मुरीद हो जाता है ।
वैसे जिस एक पंक्ति ने इस गीत का सृजन किया ...अब शब्दों की जिम्मेदारी..यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। इसमें बेचारे शब्दों पर मुझे बड़ी दया आ रही है। करा धरा कवि का..पाठक का..जिम्मेदारी शब्दों के माथे! काहे को भाई..?
यदि मन के भाव समझ पाओ,तो झूम उठे,दुनिया सारी !
ReplyDeleteमैंने तो मन की लिख डाली, अब शब्दों की जिम्मेदारी !
वैसे सतीश जी शब्दों का काफी जिम्मेदारी से प्रयोग किया है जिससे सुंदर कविता की रचना हुई है.
खूब ताल से ताल मिलाई है ,
ReplyDeleteबोले तो रिपचिक कविताई है .
बहुत अच्छा लिखा आपने .
आपका पोस्ट मन को प्रभावित करने में सार्थक रहा । बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट 'खुशवंत सिंह' पर आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।
ReplyDelete@ देवेन्द्र पाण्डेय जी ,
ReplyDeleteवास्ते आपके कमेन्ट का दूसरा पैरा... :):):)
वास्ते आपके कमेन्ट का तीसरा पैरा...
शुक्रिया कि आप भीड़ में से एक नहीं हैं :)
आपकी व्याख्या पसंद आई !
@ सतीश भाई ,
(१) वास्ते प्रेरणा स्रोत पंक्तियां...
प्रतिनिधि शब्दों का चयन कवि अपने भावों के प्रकटन के लिए स्वयं करता है ! अगर उसने सही भाव के लिए सही शब्द ना चुने हों तो ?
आपको ज्ञात है कि भाव इंसान को कहीं का नहीं छोड़ते उसे पक्षपातपूर्ण भी बना सकते हैं और तटस्थ भी ! अब अगर मन की लिख डालते वक्त इंसान तटस्थ हो तो कोई दिक्कत नहीं पर दिक्कत ये है कि कवि ज्यादातर कल्पना लोक में विचरते हैं और उनके यथार्थ के धरातल पे वास्तविक फैसले लेने के हालात में होने कल्पना भी दूभर है :)
जैसा कि मैंने कहा भावों के प्रकटन के लिए प्रतिनिधि का चयन स्वयं कवि का होता है तो प्रतिनिधि जो भी अर्थ ध्वनित करे वह भी कवि की ही जिम्मेदारी हुई कि नहीं ?
संभव है अनावश्यक लगे पर एक दृष्टांत सूझ रहा है ! एक हिंसक व्यक्ति अपनी बात मनवाने के लिए किसी इंसानी ढाल का चयन खुद करे और फिर कहे कि यह पुलिस की गलती जो उस इंसानी ढाल को मार दिया जबकि ढाल के मरने का पूरा दोष उस हिंसक व्यक्ति का ही हुआ क्योंकि उसने अपनी गलत मांग के लिए एक इंसान को चुना जो उसकी गलत मांग का प्रतिनिधि नहीं है वह केवल चुनी गई / पकड़ ली गई ढाल है और हिंसक व्यक्ति की मांग चाहे जायज हो या नाजायज ढाल की जिम्मेदारी नहीं है :) ... ठीक इसी तरह से एक कवि अपने भावों को मनवाने के लिए शब्दों की ढाल बना ले / शब्दों की पकड़ कर ले उसके बाद आलोचक अगर शब्दों को छलनी छलनी कर दे तो क्या कवि के असफल भावों के लिए प्राण देना शब्दों का दायित्व था या कि ऐसा कवि की पकड़ /चयन के कारण हुआ :)
नि:संदेह शब्द चुने जाते हैं वे खुद से होकर ठंसते नहीं , वे जबरिया भाव प्रतिनिधि बनते नहीं तो फिर कवि के अच्छे बुरे भावों के लिए वे स्वयं उत्तरदाई कैसे हुए ?
लेखक को इतना ईमानदार तो होना ही चाहिए कि वह शब्दों की आड़ ना ले अगर भाव अच्छे हैं तो तारीफ़ भी उसकी ,अगर भाव बुरे हैं तो निंदा भी उसकी और अगर चयनित शब्द सुसंगत हैं तो सुसंगत चयन की प्रशंसा भी उसकी अपनी है ! आशय यह कि आगे की जिम्मेदारी भी सम्बंधित कवि की ही है :)
आपके मन की / आपकी लिखी / आपकी शब्द ढाल, आप ही की जिम्मेदारी है :)
शब्द निर्दोष होते हैं क़ासिद की तरह ! लिफ़ाफ़े के मजमून लिखने वाले की जिम्मेदारी होते हैं ये जरुर है कि लिखने वाले के चक्कर में क़ासिद अक्सर पिट जाते हैं ! शब्दों की जिम्मेदारी केवल पाठकों तक पहुंचना है उनसे ध्वनित होता सही या गलत अर्थ लेखक का स्वयं अपना है !
(२) वास्ते आपकी कविता...
दूसरा छंद कहता कि मैंने हर पंक्ति 'तुम्हारे' नाम लिखी और वह सशंकित है कि 'दुनिया' क्या अर्थ निकालेगी ? जबकि पहला छंद कहता है कि मन के भाव(जाहिर है किसी तुम को संबोधित है)अगर समझ जाओ तो दुनिया झूम उठे !
मतलब ये कि झूमने की वज़ह से तुम और दुनिया में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए वर्ना दोनों छंदों में कंट्रास्ट है !
तीसरा छंद दर्द सिक्त है शुभकामी है और चौथे से सातवाँ भी लोक कल्याण आकांक्षी !
अतः ये पाँचों छंद पहले दोनों छंदों से भिन्न माने जायें !
शुभता और प्रेम के भाव के प्रकटन के लिए आपका शब्द चयन ठीक ठाक है और वह पाठकों तक पहुंचता भी है किन्तु जैसा कि मैंने पहले ही कहा यह सफलता और कंट्रास्ट आपका है यह शब्दों की जिम्मेदारी नहीं थी क्योंकि वे तो आपकी पकड़ से मजबूर हैं :)
उन्हें आपका किया भुगतना था / है :)
(३)वास्ते मेरी टीप...
सतीश भाई आपकी कल्याणमयी भावनाओं से जुड़ा हुआ हूं सो निंदा या प्रशंसा शायद ढंग से ना कर पाया होऊँ किन्तु जो कुछ मैंने अपनी टीप में कहा अच्छा या बुरा वह केवल मेरी जिम्मेदारी है इसमें उन शब्दों का कोई दोष नहीं जिन्हें मैंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए सवारी बतौर गांठ लिया है :)
आपकी पोस्ट पर शुरुवाती टिप्पणी नहीं करने का यही मेरा स्पष्टीकरण भी है :)
@ अली साहब,
ReplyDeleteपहले अपनी रचना पर आपकी टिप्पणी( पार्ट २ ) का जवाब देने का प्रयत्न कर रहा हूँ ...
पहली पंक्ति लोक समर्पित है ..
यदि सामान्य जन मेरे मन के भाव समझ पाए तो मन झूम उठेगा कि मैं अपने प्रयत्नों में कामयाब रहा हूँ !
दूसरे छंद में भी "हर पंक्ति तुम्हारे नाम लिखी " लोक समर्पित है और इसे समझने का अनुरोध मात्र है, कवि ने शक व्यक्त किया है कि रचना का अर्थ गलत न लगाया जाए ......
आपने शायद "तुम्हारे नाम" को किसी का नाम ही समझ लिया भाई जी !
:-)
@इन दिनों अली भाई अपनी सृजनात्मकता के उरूज या उफान पर हैं .....आईये सब मिलकर उनके प्रेरणा स्रोत की तलाश करें :बिना ऊर्जा के एक बड़े और सर्वथा नए आवेग के यह संभव नहीं देता ...मेरे शब्द ही नहीं इन दो वाक्यों के अंतराल के गुम्फित सच को भी पढ़ा जाय :)
ReplyDeleteअली सा...
ReplyDeleteएक बात क्लियर हुई/थी भी... झूमने की वजह से तुम और दुनियाँ में कोई अंतर नहीं है।
@ देवेन्द्र पाण्डेय ,
ReplyDeleteझूम उठे दुनिया सारी में ....
दुनिया कवि का दिल है देवेन्द्र भाई...
रामनाथ अवस्थी की एक रचना ....
मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं
जो भी तुमसे लग जाए लगा लेना
हर रचना कवि के तात्कालिक मनस्थिति पर ही निर्भर होती है उसे आपकी आँख से सही पारिभाषित नहीं किया जा सकता तथापि समीक्षा अपने अपने भावानुसार की जाती है और की जाती रहेगी !
शायद कोई गलत नहीं है ....
आभार आपका !
@ आदरणीय सतीश जी
ReplyDeleteआपकी रचना काव्यात्मकता के लिहाज़ से अच्छी बन पड़ी है मगर अली साहब और देवेन्द्र पाण्डेय जी ने जिस दृष्टि से उसे व्याख्यायित किया है,वह निराला जी की शैली रही है.पंतजी की सुमधुर रचनाओं को वे तर्क की कसौटी पर कसकर बताते कि क्या और कहाँ अतार्किक या भ्रामक है ?
वैसे अली साब का कहना इस लिहाज़ से दुरुस्त है कि हम या रचनाकार जो भी शब्द-चयन करता है,उसके लिए अर्थ निकालने कि ज़िम्मेदारी अंततः उसी की मानी जाएगी,शब्द की नहीं.
रमानाथ जी की कविता पाठकों के लिए अपने अलग-अलग अर्थ निकालने को स्वतंत्र करती है पर यहाँ शब्द को उस तरह की आज़ादी नहीं है. तुलसीदास बाबा की 'मानस' के तो अर्थ न जाने किस तरह से लगाये जाते हैं,अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार !
बहरहाल,प्रवीण जी का आशय यहाँ इस तरह की तार्किकता के बजाय पारलौकिकता या कल्पनाशीलता की तरफ़ ज़्यादा था.
सतीश जी पहले तो ब्लाग पर आने का बहुत -बहुत धन्यवाद । वह यों कि वरना मैं शायद आपकी इतनी अच्छी रचनाएं पढने से फिलहाल तो वंचित ही रहती । दो पंक्तियों को लेकर आपने पूरा एक सार्थक व सुन्दर गीत लिख दिया । आप सच्चे रचनाकार हैं ।
ReplyDeleteदुनिया कवि का दिल है।
ReplyDeleteसहमत न होने का कोई कारण नहीं बनता। जैसे समझना पाठका का अधिकार है वैसे शब्द का मतलब समझाना कवि का अधिकार है। लेकिन मेरी समझ से 'दुनिया' के स्थान पर 'बगिया' होता तो पाठक स्वतंत्र हो जाता कि वह इसे 'मन की बगिया' अर्थात 'दिल' समझे या फिर दुनिया...
...मैं गलत भी हो सकता हूँ।
ReplyDelete@ संतोष त्रिवेदी एवं देवेन्द्र भाई ,
आप दोनों एवं अली भाई जैसे विद्वानों की विवेचना से इस रचना में जान पड़ गयी है ...आपका आभार !
मैं साहित्य शिल्प का जानकार नहीं हूँ ,हाँ आप जैसे विद्वजनों से समझने का प्रयत्न अवश्य करता हूँ ! टिप्पणियों की सार्थकता देखना हो तो यह पोस्ट एक अच्छा उदाहरण है और निस्संदेह आप लोगों की उपस्थिति से मैं इस रचना को भाग्यशाली समझता हूँ !
आप लोगों से ईर्ष्या होती है:)
ReplyDelete@ मो सम कौन ,
ReplyDeleteहमें भी संजय ......
आप हमारे प्रेरणा श्रोत हैं :-)
आभार
साधु-साधु
ReplyDeleteइस रचना की जितनी तारीफ की जाए कम हैं।
ReplyDeleteओह! अदभुत और शानदार है आपकी यह प्रस्तुति.
ReplyDeleteतारीफ़ के लिए शब्दों का अकाल पड़ गया है जी.
यह प्रस्तुति अच्छी ही नही बहुत बहुत अच्छी लगी,सतीश जी.
बहुत बहुत आभार.
ग़ज़ब की क़लम है आपकी,सतीश जी.
ReplyDeleteशब्दो ने भाव खोज कर अच्छी जिम्मेदारी निभाई..बहुत खूब !..
ReplyDeleteइतने सुन्दर गीत के लिए बहुत बहुत बधाई .
ReplyDeleteखुबसूरत शब्दों म पिरोई हुई रचना
vah bhai mja aa gya ... badhai ap dono ko .
ReplyDeletesunder geet ban pada hai mene to likh dala ab shabdon ki jimmedari
ReplyDeletesunder bhav
rachana
बेहतरीन कविता और उम्दा सोच को सलाम |
ReplyDeleteकुछ ऐसा राग रचो मिलकर
ReplyDeleteसुनकर मृदु भाव जगें मन में
कुछ ऐसी लय में, धनक उठे
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
बहुत सुन्दर भाव हैं कविता के
apan to 'irshyavash' tippani bhi na kar paye
ReplyDeleteकुछ ऐसा राग रचो मिलकर
सुनकर मृदु भाव जगें मन में
कुछ ऐसी लय में, धनक उठे
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
गीतों में यदि झंकार न हो, तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी !
रचना के मूल्यांकन में है , इन शब्दों की जिम्मेदारी !
'e x c e e l e n t'.......
pranam.
Arvind Mishra said...
ReplyDeleteपहले अली भाई की उद्धृत कविता रसखान की पंक्ति की अगली पंक्ति जोड़ दूं -
चपला चमके घन बीच जगे छवि मोतिन माल अमोलन की...
शायद मिसिर जी को नहीं पता कि उपरोक्त पंक्तियाँ तुलसीदास जी ने लिखी है .
वरदन्त की पंगत कुंद कली अधराधर पल्लव खोलन की...चपला चमके घन बीच जगे छवि मोतिन माल अमोलन की...
घुघरारी लटे लटके मुख ऊपर कुंडल लाल कपोलन की , न्योछावर प्राण करे तुलसी , बलि जाऊ लला इन बोलन की
do dosto ki yari
ReplyDeleteor ban gayi rachana pyari....
sundar or prabhavi prastutikaran....
@वृद्धता हावी हो रही है सर ....उस अनाम को बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! उम्दा प्रस्तुती!
ReplyDeleteक्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
जो शब्द ह्रदय से निकले हैं
ReplyDeleteउन पर न कोई संशय आये
वाक्यों के अर्थ बहुत से हैं ,
मन के भावों से पहचानें !
मैंने तो अपनी रचना की, हर पंक्ति तुम्हारे नाम लिखी
क्या जाने अर्थ निकालेगी, इन छंदों का, दुनिया सारी !
बहुत खूब ,अति सुन्दर
प्रवीण जी के शब्दों को आपने बहुत उत्कृष्ट आकार दिया ....अब तो विद्वजन टिप्पणी की महिमा मान जायेंगे :)
ReplyDeletePravin Uncle to sabhi ko khub protsahit karte hain.sundar srijan.
ReplyDeleteआप सभी को क्रिसमस की बधाई ...हो सकता है सेंटा उपहार लेकर आपके घर भी पहुँच जाये, सो तैयार रहिएगा !!
Bahut sundar kavita ban gayee hai aap donon ke mel se.
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर आना सार्थक हुआ । बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट "उपेंद्र नाथ अश्क" पर आपकी सादर उपस्थिति प्रार्थनीय है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteअदभुत
ReplyDeletewah wah !
ReplyDeletebelated happy birthday Satish jee .
"उत्प्रेरक" के परिपेक्ष में आपकी सृजात्मकता सराहनीय है. ... कोयम्बतूर से..
ReplyDeleteसरल सुन्दर खनकता हुआ परन्तु बहुत गहराई लिए. आभार.
ReplyDeleteगहरा प्रभाव छोड़े अपना, कुछ ऐसी करें कलमकारी !
ReplyDeleteईश्वर की सुंदर रचना का, सम्मान करे दुनिया सारी !
बहुत खूब हमेशा की तरह प्रभावशाली रचना...
सादर!!!
कुछ ऐसा राग रचो मिलकर
ReplyDeleteसुनकर मृदु भाव जगें मन में
कुछ ऐसी लय में, धनक उठे
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
गीतों में यदि झंकार न हो, तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी !
रचना के मूल्यांकन में है , इन शब्दों की जिम्मेदारी !
दोनों एक दूजे पर भारी , बहुत मुश्किल है शब्दों की ज़िम्मेदारी ... नया वर्ष इस बार भी आपलोगों का हो
सतीश जी, आपसे ब्लॉग जगत में परिचय होना मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है.बहुत कुछ सीखा और जाना है आपसे.इस माने में वर्ष
ReplyDelete२०११ मेरे लिए बहुत शुभ और अच्छा रहा.
मैं दुआ और कामना करता हूँ की आनेवाला नववर्ष आपके हमारे जीवन
में नित खुशहाली और मंगलकारी सन्देश लेकर आये.
नववर्ष की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.
दो को सौ में बदलने की
ReplyDeleteये जादूगरी भी है न्यारी ।
बहुत सुन्दर वृहदाकार दिया आपने प्रवीणजी की दो पंक्तियों को । आभार सहित...
BHAI SATIS JI NAV VARSH PR APKO HARDIK BADHAI...KE SATH HI AK ACHHI RACHANA PR ABHAR.
ReplyDeleteBHAI SATIS JI NAV VARSH PR APKO HARDIK BADHAI...KE SATH HI AK ACHHI RACHANA PR ABHAR.
ReplyDeleteनए वर्ष की हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteप्रवीण जी की मजबूत नीव पर खुबशुरत इमारत बहुत सुंदर रचना,..
ReplyDeleteनया साल सुखद एवं मंगलमय हो,..
आपके जीवन को प्रेम एवं विश्वास से महकाता रहे,
मेरी नई पोस्ट --"नये साल की खुशी मनाएं"--
कुछ शब्द नहीं है कहने को,
ReplyDeleteजो लिखा आपने गीत मित्र,
भारत के जन-जन की पीड़ा,
शब्दों से ठीक उतारी है।
ऐसी ही रचनाओं से तो,
जगती ये दुनियाँ सारी है।
नये वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें....
बहुत बहुत सुन्दर रचना. आपने प्रवीण जी के शब्दों को एक नए शिखर पर पहुंचा दिया है.
ReplyDeleteअद्भुत रचना है.
Satish ji apki nayee rachana ki prateeksha kb tk karani padegi.?
ReplyDeleteशब्दों की ज़िम्मेदारी ... बहुत प्यारी रचना ..बधाई और शुभकामनायें ..
ReplyDeleteवाह! मज़ा आ गया.
ReplyDeleteनव वर्ष पर आपको और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनायें।
शब्द आइना भर ही तो होते हैं
ReplyDeleteविचारों का जिनमे बिम्ब दीखता है |
शांत झील के ठहरे जल में जैसे
सूर्योदय का प्रतिबिम्ब दीखता है |
पानी झील का छेड़ दे कोई तो
सूरज खम्बा दिखने लगता है |
शब्दों की परिभाषाओं मोड़ वैसे ही
पाठक मूल विचार बदल देता है
आईने को तोड़ देने भर से
नायक बदल नहीं जाता है |
पत्र के शब्द मोड़ देने से लेकिन
मजमून बदल दिया जाता है |
शब्द को सौंप दिए ख्याल जो अपने,
शब्द अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं |
पढने सुनने वाले पर उन्हें मरोड़े तो
शब्द कुछ भी कर नहीं पाते हैं|
कुछ ऐसा राग रचो मिलकर
ReplyDeleteसुनकर मृदु भाव जगें मन में
कुछ ऐसी लय में, धनक उठे
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
गीतों में यदि झंकार न हो, तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी !
रचना के मूल्यांकन में है , इन शब्दों की जिम्मेदारी !
व्यापक कलेवर की रचना सारा माहौल समेटे पर्यावरण की नव्ज़ टटोले ,....नव वर्ष मुबारक .साल की हर सुबह शाम मुबारक .
सतीश जी!...रचना पढ़ कर आँखे नम हो उठी!...बुजुर्गों की ऐसी दीन अवस्था के लिए क्या आज का युवा वर्ग जिम्मेदार नहीं है?...माना कि सभी युवा ऐसे नहीं होते...लेकिन जो अनजाने में भी अपने बड़ों का सन्मान करने से चूक जाते है,उन्हें सुधर जाना चाहिए!...बहुत बढ़िया रचना!
ReplyDeleteबहोत अच्छा लगा आपका ब्लॉग पढकर ।
ReplyDeleteनया हिंदी ब्लॉग
http://hindidunia.wordpress.com/
आप गौ वंश रक्षा मंच पर मेरा हौसला बढ़ाने आये ,आप का दिल से धन्यवाद .....पर इस विषय से हम सब जुड़े है इस लिए आप से अनुरोध है के अपनी प्रखर लेखनी से इस विषय पर कुछ लिखिए आप को सादर निमन्त्रण है के साधारण से ब्लॉग पर लेखक के रूप में अपना नाम रखने की अनुमति दे कर ब्लॉग की शोभा बढाये....और इस पुनीत कार्य में अपना योगदान दें .....शुक्रिया http://gauvanshrakshamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteBejod auy nayab
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