देव और शक्तिस्थल हमारी संस्कृतियों के अभिन्न अंग रहे हैं ! अपने आपको सुरक्षित रखने
की मानव चाह, हमें इन पूजाग्रहों की तरफ खींचती रही हैं और इन दर्शनों के लिए उठी व्यग्रता जब पूरी होती है तो अक्सर एक नया शक्तिसंचार होता है और हम नए जोश के साथ अपने कार्य में लग जाते हैं ! मेरे विचार से मानव जीवन के लिए,सहारे के रूप में , यह आस्था केंद्र बहुत आवश्यक हैं !
की मानव चाह, हमें इन पूजाग्रहों की तरफ खींचती रही हैं और इन दर्शनों के लिए उठी व्यग्रता जब पूरी होती है तो अक्सर एक नया शक्तिसंचार होता है और हम नए जोश के साथ अपने कार्य में लग जाते हैं ! मेरे विचार से मानव जीवन के लिए,सहारे के रूप में , यह आस्था केंद्र बहुत आवश्यक हैं !
श्रद्धा कमज़ोर दिलों को बड़ी राहत देती है ! लोग अपनी अपनी समझ और मान्यताओं के अनुसार इन स्थानों पर जाते हैं, और और विश्वास के बदौलत, वास्तविक लाभ भी लेते हैं !
जहाँ एक ओर यह शक्ति पुंज, श्रद्धालुओं के लिए फल देते हैं वहीँ यह केंद्र ,बेईमानों के द्वारा सीधे साधे लोगों के लिए लूटने का एक साधन भी हैं ! दिन भर थके हारे लोगों से नोट कमाना और रात में पूरे दिन की थकान को शराब और अफीम के साथ उतरते हुए सो जाना, यही दिनचर्या है इन धर्म पुजारियों की !
आस्था स्वरुप, पितरों के प्रति प्रतिबद्ध मैं , आजतक इन पंडों पुजारिओं के होते काशी या गया जाने की हिम्मत, चाहते हुए भी नहीं जुटा पाया !
आज किसी भी शक्तिस्थल में चारो ओर यही लोग अधिक दिखाई देते हैं बस देव कहीं नहीं दिखते ...
आज किसी भी शक्तिस्थल में चारो ओर यही लोग अधिक दिखाई देते हैं बस देव कहीं नहीं दिखते ...
शनि, माँ कालका और भैरव के मंदिरों की दुर्दशा देखी नहीं जाती.... इनमें ईश प्राण प्रतिष्ठा का अहसास तक नहीं होता !
लगता है विवश होकर, आराध्य देव अपना मंदिर, इन्हें सौंप खुद कही और चले गए.....
पता नहीं आंतरिक सत्य क्या है।
ReplyDeleteसही कहा सतीश जी आपने , एक और बात मैं कहना चाहूँगी कि इन मन्दिर के बाहर और भीतर बैठे पुजारियों ने अब मंदिर को एक व्यापार के आफिस में तब्दील कर दिया है , जितना ज्यादा पैसा दो उतनी जल्दी आपको तथाकथित दर्शन करा दिये जाते है ।
ReplyDeleteअब तो बस मन मेरा मंदिर समझ लेना ही ठीक लगता है ।
ठीक कह रहे हैं आप .अब मंदिर कम कोई चंदे की दूकान ज्यादा लगते हैं ये धार्मिक स्थल.भगवान अपने मन मंदिर में बसाएं वही अच्छा है.
ReplyDeleteआमजन की चिंता को रेखांकित करती उम्दा पोस्ट। पहला समाधान तो यह कि यदि हमे वहाँ जाने की इच्छा हो तो जरूर जांय, सावधानी बरतें, उनके बहकावे में न आयें, जितना हो सके उन्हें हतोत्साहित करें, अपना दर्शन करें और लौट आएं। शेष...
ReplyDeleteसच कहा सतीश जी आपने.तीर्थ स्थानों पर पंडों ने बड़ा नरक मचा रक्खा है
ReplyDeleteकिसी वस्तु का दुरुपयोग किया जाने लगे तो वह स्वयं में बुरी नहीं हो जाती .उसके उद्देश्य और उसमें निहित कल्याण -भावना (यह सच है कि हर जगह नहीं मिलेगी )की दृष्टि से परिमार्जन होना बहुत आवश्यक है .नहीं तो श्रद्धा की पवित्र भावना ही किनारा कर जाएगी .
ReplyDeleteकभी ये हमारे सांस्कृतिक केन्द्र थे लेकिन आज केवल धार्मिक पर्यटन के मानबिन्दु रह गए हैं। कभी चारों धाम की यात्रा करके भारत की अखण्ड संस्कृति को अनुभूत किया जा सकता था लेकिन आज पण्डे पुजारियों की लूट से कुछ भी समझने को मन तैयार ही नहीं होता है बस इतना ही समझ आता है कि भारत में इनकी लूट सर्वत्र है। यदि इन पुजारियों के हाथ से निकलकर ये सांस्कृतिक केन्द्र समाज के हाथ में आ जाएं और उस क्षेत्र का विकास हो तो भारत पर्यटन के क्षेत्र में नम्बर एक पर आ जाए। लेकिन समाज में भी इतनी ईमानदारी कहाँ शेष है?
ReplyDeleteअजी भगवान् तो मन में बसते हैं...इन लुटेरे पंडों के चक्कर में न ही पड़ें तो अच्छा है....
ReplyDeleteपहचान कौन चित्र पहेली ...
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
ReplyDeleteअल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान
अंदर मूरत पर चढ़े घी, पूरी, मिष्ठान
मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर माँगे दान
निदा फ़ाज़ली
कडवा सच
ReplyDeleteईश्वर को पाने के लिए किसी स्थल का मुंहताज नहीं होना पडता .. बस श्रद्धा चाहिए होती है !!
ReplyDeleteभगवान भी कभी मंदिरों में रहता है क्या ? वो तो कण कण में विधमान है |लेकिन ये दिल है की मानता ही नहीं है |
ReplyDeleteसड़क के बीचों बीच मंदिर और दरगाह देखकर क्या कहें , यहाँ कौन रहता है ।
ReplyDeleteआपने पितरों से प्रतिबद्ध होकर गया और काशी जैसे स्थानों पर जाने की बात कही। इस तरह के सभी तीर्थों में लूट खसोट तो है ये तो तय है।
ReplyDeleteहमारी पौराणिक व्यवस्था में मनुष्य के जन्म और मृत्यु का हिसाब रखने की परम्परा है। घर में जन्म लिए बच्चे का हिसाब राव-भाट रखते हैं जिन्हे कुछ इलाके में जागा जी कहते हैं और मृत्यु का हिसाब अस्थिविसर्जन के समय खानदानी पंडे रखते हैं। इनकी बही में लिखा हुआ पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के समय अदालत में भी मान्य होता है। जब पीढी पीढी ये हिसाब रखते हैं तो इनको कुछ पारिश्रमिक देने का हक हमारा भी बनता है। जिससे इनका गुजर बसर हो सके।
असली पंडे आपसे ठगी नहीं करते। जो नकली है वे ठगने की अव्वल कोशिश करते हैं। इनकी पहचान कर इनसे बचना चाहिए।
सतीशजी, इन शक्तिस्थल में सर झुकाने से पूर्व दिमाग के बटन बंद करने पड़ते है..... तभी ह्रदय में भवनायं जागृत होती है..... पांडे और महंत जो मर्ज़ी करें ... दिमाग कि बत्ती बंद तो कुछ नहीं दीखता मात्र श्रधा के अलावा...... अवल तो जाता नहीं पर मैं जब भी मंदिर जाता हूँ तो जो थोडा बहुत दिमाग है उसे घर रख कर जाता हूं.
ReplyDeleteक्या करे भगवान भी कब तक इनके हाथों की कठपुतली बने ……………वैसे उसके लिये तो मन का दर्पण ही सबसे सुन्दर घर है……………आपने बात तो जायज उठाई है सब कमाई के धंधे रह गये हैं …………ये तो हम लोगो की श्रद्धा होती है तो जाते हैं वरना भगवान तो हर जगह मौजूद है।
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने. और ऐसी जगहों पर बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए और वही पैसे किसी गरीब को दे दिया जाय तो शायद भगवान ज्यादा खुश होंगें
ReplyDeleteभगवान कब मंदिरों में रहा है ...इंसान की आस्था है जो किसी भी मंदिर को महत्त्वपूर्ण बनाती है ...
ReplyDeletesach kaha aapne.
ReplyDeleteदुखद परन्तु सत्य
ReplyDeleteपर क्या सारे पुजारियों को दोष देना उचित है ???????????
क्या सारे पुजारी शराब और अफीम खाते है ???????????
कुछ के लिए सब को दोष कहा का न्याय है .
मैं ऐसे कई पुजारियों को जानता हू जो आचरण और ज्ञान में श्रेष्ठ है और जब कभी ईश्वर की कृपा से उन से मिलना होता है तो कुछ मिल ही जाता है
जो हमारे लिए ही भगवान के चरणों में है क्या उस को दान देना हमारा कर्त्तव्य नही है
जगमगाते मस्जिद -ओ- मंदिर क्या रोशन करें
ReplyDeleteचलिए गफलत के मारे किसी घर में उजाला करें
बात आपकी बिलकुल सही है ,पंडाइज्म ने हिन्दू धर्म को धकिया के रख दिया है !
ReplyDeleteबहुत सही कह रहे हैं आप .... विचारणीय है ... हर जगह यही आलम हैं ...
ReplyDeleteमुझे तो आजतक समझ ही नहीं आया कि इस तरह की जगह पर किसी को मानसिक शांति कैसे मिल सकती है
ReplyDelete@ सोमेश सक्सेना,
ReplyDeleteसंकलन में रखने लायक शेर दिया है आपने ...धन्यवाद !!
@ डी के शर्मा वत्स,
आपके कारण इनका उद्धार भी हो जाएगा प्रभो ! :-)
.@ ललित शर्मा,
पहचान नहीं हो पाती अछे और नकली कि ...समस्या यही है ललित भाई !
@ अभिषेक,
बिलकुल नहीं ..यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है यहाँ एक से एक भले लोग मौजूद हैं उनके बारे में ऐसा सोचना भी अपराध है !
कलयुग जब समूचे जग को अपने पाश में जकडे ले रहा है तो भला ये पंडे,पुरोहित उससे कैसे बच सकते थे....आखिर ये भी तो इसी दुनिया के जीव हैं.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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आपकी वेदना जायज है।
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लगता है विवश होकर, आराध्य देव अपना मंदिर, इन्हें सौंप खुद कही और चले गए.....
ReplyDeleteसच कहा आपने।
आप क्यों ताऊओं की दुकानदारी चौपट करने पर तुले हैं?:)
ReplyDeleteरामराम
सच ही कहा है सतीश जी ज्यादा तर जगहों पर यही हाल है
ReplyDeleteहमारे तीर्थ स्थल धीरे धीरे सिर्फ पर्यटनस्थल बनते जा रहे हैं ...
ReplyDeleteपंडों की छीना झपटी श्रद्धा पर प्रश्नचिन्ह लगाती ही है !
एक ओंकार सतनाम !
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने. और ऐसी जगहों पर बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पार आना हुआ
बिना निवेश भारी रिर्टन देने वाला धंधा
ReplyDeleteअनेक शहरों में मंदिर के नाम पर जमीन पर कब्जा करना भू माफियाओं का धंधा बन गया है। इसके लिए उन्होंने बड़े-बड़े गिरोह बना रखे हैं। अपनी योजना को मूर्तरूप देने के लिए वे पहले शहर के बाहर अविकसित इलाके में नदी-नाले के किनारे, चौराहों के पास, पीपल, बरगद आदि छायादार वृक्षों के निकट की जमीन को बिना उसका मूल्य चुकाए कब्ज़िया लेते हैं। और प्रतीक रूप मे मंदिर बना देते हैं। सरकारी अमला सब कुछ जानते हुए आँखे बंद किए रहता है। अविकसित क्षेत्र जब विकसित हो जाता है तो उस जमीन को व्यावसायिक उपयोग करने वालों को सौंप कर गिरोह का यह दस्ता नई भूमि की टोह में आगे बढ़ जाता हैं। धर्म की आड़ में जमीन हथियाना बिना निवेश भारी रिर्टन देने वाला धंधा है।