Saturday, December 4, 2010

यह स्थल निस्संदेह देव रहित हैं -सतीश सक्सेना

                       देव और शक्तिस्थल हमारी संस्कृतियों के अभिन्न अंग रहे हैं ! अपने आपको सुरक्षित रखने
की मानव चाह, हमें इन पूजाग्रहों की तरफ खींचती रही हैं और इन दर्शनों के लिए उठी व्यग्रता जब पूरी होती है तो अक्सर एक नया शक्तिसंचार होता है और हम नए जोश के साथ अपने कार्य में लग जाते हैं ! मेरे विचार से मानव जीवन के लिए,सहारे के रूप में , यह आस्था केंद्र बहुत आवश्यक हैं !    
श्रद्धा कमज़ोर दिलों को बड़ी राहत देती है ! लोग अपनी अपनी समझ और मान्यताओं के अनुसार इन स्थानों पर जाते हैं, और और विश्वास के बदौलत, वास्तविक लाभ भी लेते हैं ! 
जहाँ एक ओर यह शक्ति पुंज, श्रद्धालुओं के लिए फल देते हैं वहीँ यह केंद्र ,बेईमानों के द्वारा सीधे साधे लोगों के लिए लूटने का एक साधन भी हैं ! दिन भर थके हारे लोगों से नोट कमाना और रात में पूरे दिन की थकान को शराब और अफीम के साथ उतरते हुए सो जाना, यही दिनचर्या है इन धर्म पुजारियों  की !
आस्था स्वरुप, पितरों के प्रति प्रतिबद्ध मैं , आजतक इन पंडों पुजारिओं के होते काशी या गया जाने की हिम्मत, चाहते हुए भी नहीं जुटा पाया !
आज किसी भी शक्तिस्थल में चारो ओर यही लोग अधिक दिखाई देते हैं बस देव कहीं नहीं दिखते ...
शनि, माँ कालका और भैरव के मंदिरों की दुर्दशा देखी नहीं जाती.... इनमें ईश प्राण प्रतिष्ठा का अहसास तक नहीं होता  !  
लगता है विवश होकर, आराध्य देव अपना मंदिर, इन्हें सौंप खुद कही और चले गए.....

34 comments:

  1. पता नहीं आंतरिक सत्य क्या है।

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  2. सही कहा सतीश जी आपने , एक और बात मैं कहना चाहूँगी कि इन मन्दिर के बाहर और भीतर बैठे पुजारियों ने अब मंदिर को एक व्यापार के आफिस में तब्दील कर दिया है , जितना ज्यादा पैसा दो उतनी जल्दी आपको तथाकथित दर्शन करा दिये जाते है ।
    अब तो बस मन मेरा मंदिर समझ लेना ही ठीक लगता है ।

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  3. ठीक कह रहे हैं आप .अब मंदिर कम कोई चंदे की दूकान ज्यादा लगते हैं ये धार्मिक स्थल.भगवान अपने मन मंदिर में बसाएं वही अच्छा है.

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  4. आमजन की चिंता को रेखांकित करती उम्दा पोस्ट। पहला समाधान तो यह कि यदि हमे वहाँ जाने की इच्छा हो तो जरूर जांय, सावधानी बरतें, उनके बहकावे में न आयें, जितना हो सके उन्हें हतोत्साहित करें, अपना दर्शन करें और लौट आएं। शेष...

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  5. सच कहा सतीश जी आपने.तीर्थ स्थानों पर पंडों ने बड़ा नरक मचा रक्खा है

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  6. किसी वस्तु का दुरुपयोग किया जाने लगे तो वह स्वयं में बुरी नहीं हो जाती .उसके उद्देश्य और उसमें निहित कल्याण -भावना (यह सच है कि हर जगह नहीं मिलेगी )की दृष्टि से परिमार्जन होना बहुत आवश्यक है .नहीं तो श्रद्धा की पवित्र भावना ही किनारा कर जाएगी .

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  7. कभी ये हमारे सांस्‍कृतिक केन्‍द्र थे लेकिन आज केवल धार्मिक पर्यटन के मानबिन्‍दु रह गए हैं। कभी चारों धाम की यात्रा करके भारत की अखण्‍ड संस्‍कृति को अनुभूत किया जा सकता था लेकिन आज पण्‍डे पुजारियों की लूट से कुछ भी समझने को मन तैयार ही नहीं होता है बस इतना ही समझ आता है कि भारत में इनकी लूट सर्वत्र है। यदि इन पुजारियों के हाथ से निकलकर ये सांस्‍कृतिक केन्‍द्र समाज के हाथ में आ जाएं और उस क्षेत्र का विकास हो तो भारत पर्यटन के क्षेत्र में नम्‍बर एक पर आ जाए। लेकिन समाज में भी इतनी ईमानदारी कहाँ शेष है?

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  8. अजी भगवान् तो मन में बसते हैं...इन लुटेरे पंडों के चक्कर में न ही पड़ें तो अच्छा है....


    पहचान कौन चित्र पहेली ...

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  9. बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
    अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान

    अंदर मूरत पर चढ़े घी, पूरी, मिष्ठान
    मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर माँगे दान

    निदा फ़ाज़ली

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  10. ईश्‍वर को पाने के लिए किसी स्‍थल का मुंहताज नहीं होना पडता .. बस श्रद्धा चाहिए होती है !!

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  11. भगवान भी कभी मंदिरों में रहता है क्या ? वो तो कण कण में विधमान है |लेकिन ये दिल है की मानता ही नहीं है |

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  12. सड़क के बीचों बीच मंदिर और दरगाह देखकर क्या कहें , यहाँ कौन रहता है ।

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  13. आपने पितरों से प्रतिबद्ध होकर गया और काशी जैसे स्थानों पर जाने की बात कही। इस तरह के सभी तीर्थों में लूट खसोट तो है ये तो तय है।

    हमारी पौराणिक व्यवस्था में मनुष्य के जन्म और मृत्यु का हिसाब रखने की परम्परा है। घर में जन्म लिए बच्चे का हिसाब राव-भाट रखते हैं जिन्हे कुछ इलाके में जागा जी कहते हैं और मृत्यु का हिसाब अस्थिविसर्जन के समय खानदानी पंडे रखते हैं। इनकी बही में लिखा हुआ पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के समय अदालत में भी मान्य होता है। जब पीढी पीढी ये हिसाब रखते हैं तो इनको कुछ पारिश्रमिक देने का हक हमारा भी बनता है। जिससे इनका गुजर बसर हो सके।
    असली पंडे आपसे ठगी नहीं करते। जो नकली है वे ठगने की अव्वल कोशिश करते हैं। इनकी पहचान कर इनसे बचना चाहिए।

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  14. सतीशजी, इन शक्तिस्थल में सर झुकाने से पूर्व दिमाग के बटन बंद करने पड़ते है..... तभी ह्रदय में भवनायं जागृत होती है..... पांडे और महंत जो मर्ज़ी करें ... दिमाग कि बत्ती बंद तो कुछ नहीं दीखता मात्र श्रधा के अलावा...... अवल तो जाता नहीं पर मैं जब भी मंदिर जाता हूँ तो जो थोडा बहुत दिमाग है उसे घर रख कर जाता हूं.

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  15. क्या करे भगवान भी कब तक इनके हाथों की कठपुतली बने ……………वैसे उसके लिये तो मन का दर्पण ही सबसे सुन्दर घर है……………आपने बात तो जायज उठाई है सब कमाई के धंधे रह गये हैं …………ये तो हम लोगो की श्रद्धा होती है तो जाते हैं वरना भगवान तो हर जगह मौजूद है।

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  16. बहुत सही कहा आपने. और ऐसी जगहों पर बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए और वही पैसे किसी गरीब को दे दिया जाय तो शायद भगवान ज्यादा खुश होंगें

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  17. भगवान कब मंदिरों में रहा है ...इंसान की आस्था है जो किसी भी मंदिर को महत्त्वपूर्ण बनाती है ...

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  18. दुखद परन्तु सत्य
    पर क्या सारे पुजारियों को दोष देना उचित है ???????????
    क्या सारे पुजारी शराब और अफीम खाते है ???????????
    कुछ के लिए सब को दोष कहा का न्याय है .
    मैं ऐसे कई पुजारियों को जानता हू जो आचरण और ज्ञान में श्रेष्ठ है और जब कभी ईश्वर की कृपा से उन से मिलना होता है तो कुछ मिल ही जाता है
    जो हमारे लिए ही भगवान के चरणों में है क्या उस को दान देना हमारा कर्त्तव्य नही है

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  19. जगमगाते मस्जिद -ओ- मंदिर क्या रोशन करें
    चलिए गफलत के मारे किसी घर में उजाला करें

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  20. बात आपकी बिलकुल सही है ,पंडाइज्म ने हिन्दू धर्म को धकिया के रख दिया है !

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  21. बहुत सही कह रहे हैं आप .... विचारणीय है ... हर जगह यही आलम हैं ...

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  22. मुझे तो आजतक समझ ही नहीं आया कि इस तरह की जगह पर किसी को मानसिक शांति कैसे मिल सकती है

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  23. @ सोमेश सक्सेना,
    संकलन में रखने लायक शेर दिया है आपने ...धन्यवाद !!
    @ डी के शर्मा वत्स,
    आपके कारण इनका उद्धार भी हो जाएगा प्रभो ! :-)
    .@ ललित शर्मा,
    पहचान नहीं हो पाती अछे और नकली कि ...समस्या यही है ललित भाई !
    @ अभिषेक,
    बिलकुल नहीं ..यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है यहाँ एक से एक भले लोग मौजूद हैं उनके बारे में ऐसा सोचना भी अपराध है !

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  24. कलयुग जब समूचे जग को अपने पाश में जकडे ले रहा है तो भला ये पंडे,पुरोहित उससे कैसे बच सकते थे....आखिर ये भी तो इसी दुनिया के जीव हैं.

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  25. .
    .
    .
    आपकी वेदना जायज है।


    ...

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  26. लगता है विवश होकर, आराध्य देव अपना मंदिर, इन्हें सौंप खुद कही और चले गए.....
    सच कहा आपने।

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  27. आप क्यों ताऊओं की दुकानदारी चौपट करने पर तुले हैं?:)

    रामराम

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  28. सच ही कहा है सतीश जी ज्यादा तर जगहों पर यही हाल है

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  29. हमारे तीर्थ स्थल धीरे धीरे सिर्फ पर्यटनस्थल बनते जा रहे हैं ...
    पंडों की छीना झपटी श्रद्धा पर प्रश्नचिन्ह लगाती ही है !

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  30. बहुत सही कहा आपने. और ऐसी जगहों पर बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए
    बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पार आना हुआ

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  31. बिना निवेश भारी रिर्टन देने वाला धंधा

    अनेक शहरों में मंदिर के नाम पर जमीन पर कब्जा करना भू माफियाओं का धंधा बन गया है। इसके लिए उन्होंने बड़े-बड़े गिरोह बना रखे हैं। अपनी योजना को मूर्तरूप देने के लिए वे पहले शहर के बाहर अविकसित इलाके में नदी-नाले के किनारे, चौराहों के पास, पीपल, बरगद आदि छायादार वृक्षों के निकट की जमीन को बिना उसका मूल्य चुकाए कब्ज़िया लेते हैं। और प्रतीक रूप मे मंदिर बना देते हैं। सरकारी अमला सब कुछ जानते हुए आँखे बंद किए रहता है। अविकसित क्षेत्र जब विकसित हो जाता है तो उस जमीन को व्यावसायिक उपयोग करने वालों को सौंप कर गिरोह का यह दस्ता नई भूमि की टोह में आगे बढ़ जाता हैं। धर्म की आड़ में जमीन हथियाना बिना निवेश भारी रिर्टन देने वाला धंधा है।

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एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

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