कभी जूठन,कभी पत्ते औ ज्वार की रोटी
किसने मज़दूर के घर,खाने के लाले देखे !
आ गया हाथ चलाना भी इन गुलाबों को
आज भौंरों के बदन में , चुभे भाले देखे !
कैसे औरों का गिरेबान दिखाते हाक़िम
तेरे महलों की दिवारों में भी जाले देखे !
भला हुआ कि सरसती है,जमीं के नीचे
नाम नदियों का रखे,देश में नाले देखे !
आ गया हाथ उठाना भी अब गुलाबों को
ReplyDeleteकितने भंवरों के बदन में चुभे भाले देखे !
वाह...
ReplyDeleteकड़वी सच्चाई बयां करती सुन्दर रचना
सादर
भला हुआ कि सरस्वती है, जमीं के नीचे
ReplyDeleteनाम नदियों का रखे,कितने ही नाले देखे !---सुन्दर रचना जिसकी हर पंक्तियाँ मुग्ध करती है.
वाह !
ReplyDeleteआज के हालात को बखूबी बयाँ करती प्रभावशाली पंक्तियाँ..
ReplyDeleteकैसे औरों पे आसानी से उठाते, उंगली!
ReplyDeleteतेरे महलों की दिवारों में भी जाले देखे!
बिल्कुल सही कहा आपने, दूसरों पर उंगली उठाने से पहले इंसान को अपने अंदर झांकना चाहिए। सुंदर प्रस्तुति...
हर नदिया है गंगा जैसी उसका ऑचल उज्ज्वल रखो ।
ReplyDeleteसच्चाई को वयां करती सुंदर रचना ।
ReplyDeleteसच बोलती; इक सुंदर रचना ।
ReplyDeleteकटु सत्य. बहुत खूब. बधाई.
ReplyDeleteक्या बात है सतीश जी !बेहद सार्थक व सटीक रचना...
ReplyDeleteकड़वी सच्चाई बयां करती सुन्दर रचना
ReplyDeleteठीक बात।
ReplyDeleteआपके गीत की वेदना का स्वर स्पष्ट मुखरित हुआ है। समाज में व्याप्त दुख को अपनी कला के माध्यम से लोगों के ह्रदय तक पहुंचाने के लिए आपका नमन।
ReplyDeleteकैसे औरों पे आसानी से उठाते, उंगली !
ReplyDeleteतेरे महलों की दिवारों में भी जाले देखे !
दूसरों पर ऊँगली उठाना आसान लगता है
लेकिन अपने गिरेबान में झांकना कठिन लगता है !
वाकई , सटीक रचना !