Thursday, February 7, 2019

तू अमरलता, निष्ठुर कितनी -सतीश सक्सेना

वह दिन भूलीं कृशकाय बदन,
अतृप्त भूख से , व्याकुल हो,  
आयीं थीं , भूखी, प्यासी सी 
इक दिन इस द्वारे आकुल हो 
जिस दिन से तेरे पाँव पड़े  
दुर्भाग्य युक्त इस आँगन में !
अभिशप्त ह्रदय जाने कैसे ,
भावना क्रूर इतनी मन में ,
पीताम्बर पहने स्वर्णमुखी, तू अमरलता निष्ठुर कितनी !

सोंचा था मदद करूँ तेरी
इस लिए उठाया हाथों में ,
आश्रय , छाया देने, मैंने 
ही तुम्हें लगाया सीने से !
क्या पता मुझे ये प्यार तेरा,
मनहूस रहेगा, जीवन में ,
राक्षसी भूख , निर्दोष रक्त
से कहाँ बुझे अमराई में ! 
निर्लज्ज,बेरहम,शापित सी, तुम अमरलता निर्मम कितनी !

धीरे धीरे रस  चूस लिया,
दिखती स्नेही, लिपटी सी !
हौले हौले ही जकड़ रही,
आकर्षक सुखद सुहावनि सी
मेहमान समझ कर लाये थे 
अब प्रायश्चित्त, न हो पाए !
खुद ही संकट को आश्रय दें 
कोई प्रतिकार न हो पाये !
अभिशप्त वृक्ष, सहचरी क्रूर , बेशर्म चरित्रहीन कितनी !


10 comments:

  1. बहुत सुंदर,झूठे व्यक्तित्व को फलने फूलने के लिए
    सच्चे सहारे की ज़रूरत पड़ती है !

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ फरवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. वाह।
    एक नहीं हर तरफ निखर रही एक नहीं कितनी कितनी।

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  4. सतीश जी, आपकी दर्द भरी कविता तो हमको इतिहास में ले गयी. बादशाह फ़र्रुख्सियर ने अंग्रेज़ रूपी अमरलता को बिना चुंगी दिए व्यापार करने की सुविधा दी. बादशाह शाह आलम ने उसे अपना दीवान बना दिया और फिर यह अमरलता पूरे हिंदुस्तान को खा गयी.

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  5. अमरलता की व्यथा को कौन शब्द देगा..

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  6. आश्चर्यपूर्ण कृति !!! आपकी कलम से ये निर्मम भाव हजम नहीं हुए.... वैसे मैंने आपकी बहुत सी रचनाएँ पढ़ीं हैं जिनमें ढोंगियों पाखंडियों को आड़े हाथों लिया है आपने....इस रचना में कोई कथानक तो छुपा है!!!

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  7. वाह बहुत गहन अर्थ समेटे उत्कृष्ट रचना।
    अनुपम शब्द कौशल्य ।

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  8. धीरे धीरे रस चूस लिया,
    दिखती स्नेही, लिपटी सी !
    हौले हौले ही जकड़ रही,
    आकर्षक सुखद सुहावनि सी
    अद्भुत भवनाओं से भरी रचना ,सादर नमस्कार सर

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  9. अमरबेल से आहत आश्रयदाता के कष्ट को व्यक्त करती सुन्दर रचना.

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- सतीश सक्सेना

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