Tuesday, December 9, 2008

भारतीय संस्कार - सतीश सक्सेना

"भाषा और शब्‍दावली किसी व्‍यक्ति की संस्‍कारशीलता की परिचायक होती है । जोर से और फूहड भाषा में कही बात सच हो, यह कतई जरूरी नहीं ।आप अशिष्‍ट शब्‍दावली और भाषा वाली टिप्‍पणियां मत हटाइए । लोगों को मालूम हो जाने दीजिए कि कौन अपने दामाद को 'मेरी लडकी का घरवाला' और कौन 'हमारे जामाता' कह रहा है ।
जिन्‍हें भाषा के संस्‍कार नहीं मिले उनसे शालीनता, शिष्‍टता, सभ्‍यता की अपेक्षा कर आप उन पर अत्‍याचार कर रहे हैं ।वे आक्रोश के नहीं, दया के पात्र हैं । बीमार पर गुस्‍सा मत कीजिए ।"

श्री विष्णु वैरागी जी ने यह बेहतरीन प्रतिक्रिया दी है, रोशन के ब्लाग दिल एक पुराना सा म्यूज़ियम है पर लिखे एक लेख "टिप्पणियों में संयत भाषा का प्रयोग करें" पर !

मुझे याद आया कि हम अपने संस्कार किस कदर भूल गए हैं, मगर हिंदू धर्म की मूलभूत शिक्षाएं भूल कर भी, हम धर्मरक्षा की बातें खूब करते हैं, कौन है दोषी इस बीमारी का ? कौन है जिम्मेदार है हमारे बच्चों के मध्य परस्पर प्यार और बड़ों के प्रति सम्मान की भावना समाप्त करने का ?

उन लोगों को दोष मुक्त किया जा सकता है, जिनको किसी ने कभी प्यार ही नही किया, मगर उनके लिए क्या कहें जिनके माता,पिता,भाई,बहिन और बड़े वुजुर्ग सबके होते हुए भी , उनकी भावनाओं से, प्यार और ममता को , यही पाश्चात्य सभ्यता, जिसमे वे पढ़े और बड़े हुए , निगल गयी !

इसी सभ्यता का अनुकरण करते हुए नयी पीढी शायद कभी पछतावा भी न करे क्योंकि उन्होंने इस प्यार की गरमी और अपनत्व को कभी महसूस ही नही किया ! उनके लिए प्यार और स्नेह, केवल हाय, हेल्लो और थैंक्स तक ही सीमित है, फिर दोषी केवल वे परिवार हैं, जिनमें यह संस्कार कभी दिए ही नही गए और इन परिवारों में आपस में स्नेह का वह मज़बूत बंधन कहीं दीखता ही नही !आज के आधुनिक समय में, ऐसे लोगों से शिष्टता और शालीनता की अपेक्षा करने वाले को ही मूर्ख कहना उचित होगा !

18 comments:

  1. bahut hi sundar vichaar, maine bhi ek koshish ki hai hidutva par kuch likhne ki apne vichaar dijie.....

    मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू हूँ मैं, मन की मैं करता ही जाऊं,
    सर्वश्रेष्ठ हूँ मैं, हर पंथ (religion) को मैं सर्वश्रेष्ठ ही पाऊँ,

    http://sachinjain7882.blogspot.com/2008/10/blog-post_11.html

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  2. हाँ, तो आप किसी संस्कार की बात कर रहे हैं, सतीश भाई !
    इसके मिलने का पता भी यहाँ भी और दे देते,
    तो मँगा कर बच्चों को पिला देता !

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  3. सतीश जी
    बिल्कुल ठीक बात है. वार्तालाप के दौरान शिष्टता तो वरतनी ही चाहिए...वरना पढ़े लिखे होने का मतलब क्या रह जाएगा

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  4. सब की अपनी अपनी सोच है जी.
    धन्यवाद

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  5. अपनापन बाँटा था जैसा वैसा न मिल पाता है।
    अब बगिया से नहीं सुमन का बाजारों से नाता है।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  6. प्यार,ममता, दोस्ती, भाईचारा, शिष्टाचार- ये सारे
    गुण आज की पीढ़ी में भी उतने ही उपस्थित या अनुपस्थित हैं जितने हमारी या हमसे भी पहले की पीढ़ियों मे हैं/थे। हां उनकी अभिव्यक्ति की शैली अलबत्ता अलग है जो कि सतत परिवर्तनशील समाज में स्वाभाविक ही है।

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  7. प्रत्‍येक समय का अपना सच होता है । आप जिस बात को लेकर व्‍यथित हैं, वह आज की पीढी का सच है । किन्‍तु इस पीढी का यह सच अपने आप नहीं बना । हम सबने बनाया और बनने दिया । पहले बच्‍चे 'शिक्षा' पाते थे, आज 'सूचनाएं' और 'गुर' पाते हैं ।
    संकट हमारा है तो निपटना भी हमें ही होगा । निस्‍सन्‍देह,पिघलता तो एवरेस्‍ट है किन्‍तु बाढ मैदान में आती है । ऐसे में, बाढ से बचाव का जतन, मैदान में रहनेवालों को ही करना पडता है ।
    हमारी अगली पीढियों को हमने ही पैदा किया है, वे अपने आप नहीं आई हैं । हमें अपना-अपना घर सम्‍हालना होगा । हमारे बच्‍चे हमारे आचरण को ध्‍यान से देखते हैं और हमारी बातों पर गौर भी करते हैं । उनकी जिस शैली को हम 'अशिष्‍टता' कहते हैं वह उनके लिए 'स्‍वाभाविक' हो गई है ।
    हमारे बच्‍चे हमारा पूरा सम्‍मान करते हैं और हमारी तथा हमारी भावनाओं की चिन्‍ता भी । बस, उनके संकट को अनुभव कर, उनकर सुविधा और शैली में बात करने के लिए समय और धैर्य हमारे पास होना चाहिए । ज्‍यों-ज्‍यों उम्र बढती है, त्‍यों-त्‍यों धैर्य कम होता जाता है । ऐसे में, परीक्षा तो हमारी ही है ।

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  8. दोष महज पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति का नही है दोष है उस सोच का जो ये मानती है कि बिना असभ्य और अशिष्ट हुए आक्रामक नही हुआ जा सकता है. जब भी लोग आक्रामक होना दिखाना चाहते हैं तो अशिष्ट हो जाते हैं.
    आपने सही ही कहा कि हम धर्म की मूलभूत शिक्षाएं भूल कर धर्म रक्षा की बातें कर रहें हैं जो सिर्फ़ खोखली बातें ही हैं.
    इस सोच का अनुकरण न सिर्फ़ नई पीढी बल्कि पुरानी पीढी भी कर रही है. तथाकथित संत और साध्वी अपने उत्तेजक भाषणों में जो भाषा प्रयोग करते हैं वही उनके अंध अनुयायी आगे ले जाते हैं.
    विष्णु जी ने यहाँ पर दो पीढियों के मध्य सामंजस्य की बहाली की जरुरत को बताया है जो सही है. वस्तुतः शिष्ट होना संस्कारों पर निर्भर करता है हमें महसूस होना चाहिए कि अगर बच्चे ग़लत सीखेंगे तो उसे देर सबेर अपने बड़ों के ख़िलाफ़ भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
    हर मजहब और संस्कृति में शिष्टता का आदर होता है पर वह हर जगह से गायब होती जा रही है ये चिंता का विषय है.
    एक रोचक बात यह है कि शिष्टता पर हमारे जोर देने को हमारे कुछ मित्र थोपी गई अभिजात्यता कह कर उसकी आलोचना करते रहे हैं
    इस बात को इतने साफ़ तरीके से लिखने के लिए आप और विष्णु जी बधाई के पात्र हैं.

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  9. यथार्थ चिंतन और प्रवाहित वर्णन बहुत सुंदर बधाई

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  10. बस एक मुश्किल है, कौन तय करेगा की किसमे संस्कार है किस्म नही?

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  11. सतीश जी
    आज की समस्या यह है कि नई पीढ़ी को संस्कार देने वाली पीढ़ी अर्थात् आज के युवा व बच्चों से पूर्व की पीढ़ी अधिक भ्रष्ट है। जिन बूढ़े माता -पिता तक को फेंक दिया जाता है वे स्वयम् कभी अपने बच्चों का रोल मॊडल नहीं बनेव न ही किसी ऐसे उच्चादर्श के लिए स्वयं समर्पित हुए, उन्होंने अपनी उस सन्तान को जीवनभर गलाकाट स्पर्धा का चलतापुर्जा बनने का ही संस्कार दिया है।

    वस्तुत: संस्कार उपदेश से आते ही नहीं हैं, वे तो आचरण-केन्द्रित होते हैं। और उस कठिन पथ का अनुगामी कहाँ कौन मिलता है? इसलिए जड़ों से कटी नई पीढ़ी की व्यथा व भटकाव का दायित्व अधिकत: हमारे अनुत्तरदायी होने पर आ कर ठहरता ही है।

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  12. विष्णु बैरागी और रोशन जी की बातों में मेरी सहमती भी शामिल समझी जाए

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  13. सादर ब्लॉगस्ते,

    आपका यह संदेश अच्छा लगा। क्या आप भी मानते हैं कि पप्पू वास्तव में पास हो जगाया है। 'सुमित के तडके (गद्य)' पर पधारें और 'एक पत्र पप्पू के नाम' को पढ़कर अपने विचार प्रकट करें।

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  14. Aapane sanskaaron ki ahmiyat par roshani daali hai!....atyuttam lekh, dhanyawad!

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  15. मुझे अच्छी तरह याद है लेख पढ़ा जो विचार आए लिखे बाकायदा पोस्ट किया आज देखा तो टिप्पणी नहीं है कहाँ गलती हो जाती है शायद एक साथ दो चार ब्लॉग खोल लेता हूँ तो सब होच पोच हो जाता है

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  16. नया साल आपको मंगलमय हो

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एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

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