जाकी रही भावना जैसी ,
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी....
तुलसी दास की यह लाइनें, हम सबको इस विषय की गूढता समझाने के लिए काफी हैं ! सामजिक परिवेश में , इस का नमूना, लगभग हर रोज दिखाई देता है ! पूरी श्रद्धा के साथ ध्यान और आवाहन, किसी भी समय, किसी भी स्थिति में करें ,परमेश्वर का प्रत्यक्ष अहसास आपको उसी क्षण होगा !
परिवार में भली भांति एक दूसरे को समझने का दावा करने वाले हम लोग, शायद ही कभी पूर्वाग्रह रहित होकर,अपनों के बारे में, सही राय कायम कर पाते हों !
पत्थर की बनायीं एक मूर्ति, चाहे राम की हो या केशव की , मनचाहा फल देने में समर्थ है बशर्ते कि इस कामना में श्रद्धा शामिल हो ! रावण परम विद्वान था, यह बात मर्यादा पुरषोत्तम, महा शत्रुता के बाद भी नहीं भूले थे , मरते समय,एक आशा के साथ लक्ष्मण को आदेश दिया था कि अंतिम समय गुरु रावण से कुछ ग्रहण करने का प्रयत्न अवश्य करें !
साधारण से सरकारी कर्मचारी नेकचंद ( बाद में पद्मश्री से विभूषित ) को कूड़े के ढेर में ऐसी सुन्दरता नज़र आई कि उसने भारतीय शिल्पकला की झलक लिए पूरा पार्क ही रच दिया और विश्व ने उसे कला का एक नायाब नमूना माना ! सकारात्मक, आशावादी स्वभाव का यह उदाहरण ,विश्व में दुर्लभ है ! काश हम सबको ऐसी नज़र मिल पायें !
अपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी....
तुलसी दास की यह लाइनें, हम सबको इस विषय की गूढता समझाने के लिए काफी हैं ! सामजिक परिवेश में , इस का नमूना, लगभग हर रोज दिखाई देता है ! पूरी श्रद्धा के साथ ध्यान और आवाहन, किसी भी समय, किसी भी स्थिति में करें ,परमेश्वर का प्रत्यक्ष अहसास आपको उसी क्षण होगा !
परिवार में भली भांति एक दूसरे को समझने का दावा करने वाले हम लोग, शायद ही कभी पूर्वाग्रह रहित होकर,अपनों के बारे में, सही राय कायम कर पाते हों !
पत्थर की बनायीं एक मूर्ति, चाहे राम की हो या केशव की , मनचाहा फल देने में समर्थ है बशर्ते कि इस कामना में श्रद्धा शामिल हो ! रावण परम विद्वान था, यह बात मर्यादा पुरषोत्तम, महा शत्रुता के बाद भी नहीं भूले थे , मरते समय,एक आशा के साथ लक्ष्मण को आदेश दिया था कि अंतिम समय गुरु रावण से कुछ ग्रहण करने का प्रयत्न अवश्य करें !
साधारण से सरकारी कर्मचारी नेकचंद ( बाद में पद्मश्री से विभूषित ) को कूड़े के ढेर में ऐसी सुन्दरता नज़र आई कि उसने भारतीय शिल्पकला की झलक लिए पूरा पार्क ही रच दिया और विश्व ने उसे कला का एक नायाब नमूना माना ! सकारात्मक, आशावादी स्वभाव का यह उदाहरण ,विश्व में दुर्लभ है ! काश हम सबको ऐसी नज़र मिल पायें !
अपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !
सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteश्रद्धा ही ..विश्वास है ...
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
बहुत अच्छी बात कही आपने....
ReplyDeleteसकारात्मक सोच याने आधी मंजिल तय...
अपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !
ReplyDeleteवाह... क्या बात कही है सतीश भाई... सौ प्रतिशत सहमत हूँ...
'छोटी बात' पर:
कोलकाता जैसे हादसों के ज़िम्मेदार हम हैं!
kitni saargarbhit baat aur kitne sahaj dhang se ...
ReplyDeleteसही कहा आप ने। लगन और लक्ष्य के प्रति एकाग्रता महत्वपूर्ण हैं।
ReplyDeleteनेकचंद की नेक नसीहत.
ReplyDeleteजाकी रही भावना जैसी ,
ReplyDeleteप्रभु मूरत देखी तिन तैसी....
जहां तक मैने समझा हैं इन पंक्तियों का अर्थ हैं
जिस की भावना जैसी होती हैं उसको प्रभु की मूरत वैसी ही दिखाई देती हैं
ना की आप जहां भी देखे वहाँ इश्वर दिखेगा
जहां तक मेरा ख्याल हैं ये धनुष तोडने वाले प्रसंग में कहा गया था जहां श्री राम लोगो को कोमल बच्चे समान लग रहे थे
मिलते हे २३/१२ के बाद....? सांपला मे ओर कहां?
ReplyDeleteमेरी इन दोनो टिपण्णियो को प्रकाशित ना करे, मिटा दे. धन्यवाद
ReplyDelete@ रचना जी ,
ReplyDeleteसच कह रही हैं आप !
जैसी भावना होती है वहां वैसा ही महसूस होता है ...
पूरी पोस्ट के परिप्रेक्ष्य में वही भावना है जो आपने अर्थ बताया है ! आभार आपका !
(१)
ReplyDeleteमित्रवर आपकी सुन्दर और सुशील रचना के अंतिम पैरे को उलटने की हिमाकत कर रहा हूं...
"असाधारण से सरकारी अधिकारी फेंकचंद (बाद में छद्मश्री से विभूषित) को पूरे पार्क में ऐसी असुन्दरता नज़र आई कि उसने भारतीय विद्ध्वंशकला के प्रदर्शन बतौर उसे कूड़े का ढेर कर दिया ! नकारात्मक , निराशावादी स्वभाव का यह उदाहरण विश्व में सर्वसुलभ है ! काश ऐसी नज़रों से हम महरूम रहें और अपने आप को मोहल्ले पड़ोस का सबसे अल्पज्ञ मानते हुए ऐसे अपनों पर अविश्वास कर पायें ताकि अर्थ अपने अर्थ में बना रहे"
(२)
सतीश भाई प्रभु की मूरत का हवाला आपने दे तो दिया है पर इस मसले में एक गड़बड़ है ! दरअसल हम जिसकी भक्ति / जिसकी दोस्ती /जिसकी मोहब्बत में होते हैं वहां सावन के अंधे को हरा ही हरा की तर्ज़ पर हमारे ऊपर भक्ति /मित्रता /आशिकी का सम्मोहन ऐसा चढ़ता है कि ससुरा अपनी देखने की शक्ति खत्म और उसकी दिखाने की शक्ति का सुरूर / ज़लवा कायम हो जाता है ! यूं समझिए सारी गडबड यहीं पे होती है कि उसके मद में मदहोश हम अपनी तरफ से उसका नंगपन नहीं देख पाते और देखते वही है जो तिलिस्म उसने रचा है :)
नेकचंद ने तो सचमुच बड़ा नेक काम किया है ।
ReplyDeleteलेकिन आजकल विश्वास योग्य लोग कम ही नज़र आते हैं भाई जी ।
सब भावना और श्रद्धा का ही तो खेल है जैसा चाहते है वैसा देखते हैं।
ReplyDeleteश्रद्धा और विश्वास ही तो है जो पत्थर को भगवान् बना देता है ...
ReplyDeleteसकरात्मक सोच अच्छे परिणाम ही देती है !
पोस्ट की भावना से सहमत !
One of the best posts ever!!!! Bahut bahut dhanyawaad is chhoti par behad sateek post key liye :-)
ReplyDeleteसंत का धर्म है परोपकार, सर्प का धर्म है संहार...
ReplyDeleteसर्प के संहार के बाद भी संत परोपकार नहीं छोड़ता...
लेकिन सर्प न हों और सारे संत ही हों तो फिर संत की महत्ता को कौन समझेगा...
जय हिंद...
प्रिय भैया जी !
ReplyDeleteसहज मार्गदर्शन सहज प्रेम कि धारा ! नमन आपको !!
sach kaha aapne....sarthak prastuti.
ReplyDelete:) आपके आलेख और अली जी की टिप्पणी से नेकचन्द और फेंकचन्द का अंतर स्पष्ट हुआ।
ReplyDeleteबुद्धि थक कर बैठ जाती है... श्रद्धा अघटित कार्य सिद्ध करती है!
ReplyDeleteबड़े उदबोधनात्मक हो उठे हैं भाई ,खैरियत तो है :) ?
ReplyDeleteआशा और आशावादिता में थोडा फर्क होता है ,यह आवश्यक हैं की जीवन की डोर को आशावादिता में सम्यक रूप से बंधा जाये जो परमार्थ कल्याण को प्रतिरूपित करती हो ,परन्तु निजता, सुखानुभूति की आशा ,निराशा को ही प्राप्त होती है /इसी लिए कहा गया है -उदारचरितानाम तू बसुधैव कुटुम्बकम .../आशावादी होना ,नैसर्गिक होना है ....../ मित्र बहुत सुन्दर ,विचारणीय आलेख ,/ हाँ मित्रों को याद करना भी एक आशावादिता का सर्वग्राह्य लक्षण है ....चक दे फट्टे...../
ReplyDeleteजीवन हो अब शत प्रतिशत,
ReplyDeleteअन्दाज समझना होगा।
पत्थर की बनायीं एक मूर्ति, चाहे राम की हो या केशव की , मनचाहा फल देने में समर्थ है बशर्ते कि इस कामना में श्रद्धा शामिल हो !
ReplyDeleteसच है ...बस यही सच है.....
हमने देखी है रॉक गार्डेन की जिवंतता। आदमी चाहे तो पत्थर में जान ला सकता है।
ReplyDeleteएक असाधारण पोस्ट।
ReplyDeleteचंडीगढ़ में रहा हूं। अनेकों बार उस रॉकगार्डेन में गया हूं। उपेक्षित चीज़ों से उन्होंने असाधारण चिज़ गढ़ डाली है।
mai kya kahu mujhe nahi pata par ...kuch sabdon me bahut sari samjh samete hai
ReplyDeleteअपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !
ReplyDeleteसकारात्मक सोच का परिणाम है आपका आलेख.
शुभकामनायें.
जिसकी जैसी भावना है उसी हिसाब से आपकी यह पोस्ट पढ़ रहा है और गुन रहा है .. सार्थक लिखा है ...
ReplyDeletebahut uttam sarthak prastuti apne me vishvaas hi pragati ka maarg nishchit karta hai.aur jis paark ka aapne varnan kiya hai nekchand ji ke apne upar vishvaar aur himmat ki hi missal hai durlabh park hai maine bhi dekha hai chadigarh gai thi ek baar.
ReplyDeleteआदरणीय सतीश जी नमस्ते!
ReplyDeleteपत्थर की मूर्ति तो हमें उस महापुरुष की याद दिलाती है तथा उसके मार्ग पर चलने को प्रेरित करती है आपका ये कहना की "पत्थर की बनायीं एक मूर्ति, चाहे राम की हो या केशव की , मनचाहा फल देने में समर्थ है बशर्ते कि इस कामना में श्रद्धा शामिल हो ! " मै इससे बिलकुल सहमत नहीं हूँ ! ये तो बस वही बात हुई अजगर करे न चाकरी पंछी करे ना काम , दास मलूका कह गए सबके दाता राम !!!मेरे विचार से कामना के साथ साथ उसे पूरा करने के लिए अपना पूरा प्रयास भी होना चाहिए !! सिर्फ श्रद्धा से काम नहीं चलेगा !!! आप की नज़रों में हो सकता है मै गलत होऊं क्यों की "अपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है " किन्तु ऐसे बातों को वैज्ञानिक नज़रिए से भी देखना बहुत जरुरी है !!
नेकचंद जी जैसे और भी हैं। भोपाल के चिनार पार्क में लोहे के कबाड़ से सुंदर आकृतियां बनाई गई हैं।
ReplyDeleteबहरहाल यहां आपका उद्देश्य नजरिए का महत्व बताने का था। वह तो स्पष्ट होता ही है।
अपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा है आपने ! सार्थक सकारात्मक पोस्ट !
जाकी रही भावना जैसी ,
ReplyDeleteप्रभु मूरत देखी तिन तैसी....
bahut sundar baat kahi hai ... duniya men shraddha or vishvaas hi sab kuch hai...abhar
सीधी और सच्ची बात यही है सतीश जी, दरअसल हम अपने आपको पहचानने में ही भूल कर देते है , जो हम है उसे किसी को नहीं समझने देते और जो नहीं है उसे जग जाहिर करने में सारा जीवन लगा देते है .
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति. असाधारण पोस्ट...शुभकामनाएँ!
ReplyDelete@ आपके परिप्रेक्ष्य में आपका नजरिया बिलकुल ठीक है ...
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
प्रेरक व प्रभावी आलेख .
ReplyDeleteसतीश जी, सकारात्मकता एक जीवनशैली है... शायद इसे सिखाया जाना बहुत मुश्किल है
ReplyDeleteसकारात्मकता से परिपूर्ण और प्रेरक बात कही है .
ReplyDeleteअपने सद् लक्ष्य में आस्था और निरंतर कार्य के साथ ईश्वर पर विश्वास जीवन को सार्थकता देता है. बहुत सुंदर तरीके से आपने बात कही है सतीश जी.
ReplyDeleteजाकी रही भावना जैसी ---
ReplyDeleteसच ही तो है | तभी तो, कोई तो पत्थर में भी भगवान् देख लेता है, तो किसी को साक्षात भगवान् भी पत्थर लगते हैं :)
सच कहा आपने नजरिये में ही वो ताकत होती है जो किसी भी उपेक्षित वस्तु(इंसान भी )को सुन्दर सुन्दरतम बना सकती है
ReplyDeleteनेकचंद जी और सुदर्शन पटनायक जैसे लोग हमें कला के नए आयाम बताते हैं !
ReplyDeleteबेहतर सीख देती पोस्ट।
ReplyDeleteनेकचंद से काफी कुछ सीखा जा सकता है....
आभार.....
सार्थक पोस्ट....
ReplyDeleteजीवन में उतारने योग्य सार्थक लेख !
ReplyDeleteआभार !
प्रेरक बात कही है....बहुत सुंदर तरीके से
ReplyDeleteअपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !
ReplyDeleteइतनी गहरी बात को सरल शब्दों में समझाने के लिए शुक्रिया .....गहन लेख
बस सोच सकारात्मक होनी चाहिए...फिर कुछ भी मुश्किल नहीं रहता...
ReplyDeleteबहुत ही प्रभावी आलेख...
आदरणीय सतीश जी
ReplyDeleteनमस्कार !
आपको जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं. आपके कलम की रवानी यूं ही बनी रहे!