रास्ता भूल, चली आई हो,
दिखने में तो ताजमहल से
कितने ही, मंदिर शरमायें !
लेकिन बरसों से उजड़े, इस परिसर में वरदान नहीं है !
दिखने में तो ताजमहल से
कितने ही, मंदिर शरमायें !
लेकिन बरसों से उजड़े, इस परिसर में वरदान नहीं है !
खड़ी , भव्य दीवारें मेरी
कलश कंगूरे ध्वज और तोरण
घंट ध्वनि, मंत्रोच्चारण से
लगता घर, मेरा मंदिर सा
यह सब सच है मगर कामिनी,
पूजा यहाँ न अर्पण करना !
पूजा यहाँ न अर्पण करना !
तुमको दुःख होगा कि यहाँ पर, मंदिर है पर मूर्ति नहीं है !
बाहर से देवता सरीखा
सौम्य लगूं आराध्य सरीखा
तुम मुझसे वर लेने आयीं
मैंने मांग लिया तुमको ही
अब भी जागो स्वप्न सुंदरी,
गीत यहाँ न समर्पित करना
अब भी जागो स्वप्न सुंदरी,
गीत यहाँ न समर्पित करना
इस सूने मंदिर में देवी ! कविता है ,सौंदर्य नहीं है !
मीरा जैसा प्यार लुटाती ,
घर बाहर की लाज छोड़कर
किस मोहन ,को ढूंढ रही हो
पूजन लगन देखि मनमोहनि,
मैं भी हूँ नत मस्तक तेरा ,
मैं भी हूँ नत मस्तक तेरा ,
तेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
अहा, आनन्दपूर्ण। घर में यह सब होना, मंदिर होने जैसा ही है।
ReplyDelete
ReplyDeleteउस इबादत का क्या भरोसा है
जो इबादत में तिश्नगी दे दे
उन आँखों में थोड़ी नमी दे दे
जो मुझे थोड़ी जिन्दगी दे दे
उस इबादत का क्या भरोसा है
जो इबादत में तिश्नगी दे दे,?
मंगल और पवित्र से भाव की ध्वनि.
ReplyDeleteनिरलिप्त चाह या अलिप्त अर्चना आदेश!!
ReplyDeleteअच्छे भाव सजाए है। मंगल मनीषा!!
वाह ... बेहद उम्दा भाव ...
ReplyDeleteयह स्वकीया है न ? मतलब निखालिश आपका ही न ? नहीं नहीं इनकी उत्कृष्टता kabhee kabhee भ्रम में डाल देती है क्या अभिव्यक्ति है और अगर सतीश भाई यह सचमुच आपकी है तो मैं आपको अपना काव्य गुरु मानता हूँ ,इस नीरस मन में भी कुछ ऐसे अंकुर उपजा न दीजिये ..
ReplyDeleteकविवर हरिवंश राय बच्चन का वह गीत याद आ गया -
देवता तुमने कहा था ..
गोद मंदिर बन गयी थी दे नए सपने गयी थी .
किन्तु जब आँखे खुली तो कुछ न था मंदिर जहाँ था ...
देवता .......................................................................
@ डॉ अरविन्द मिश्र ,
ReplyDeleteआपका आशीर्वाद अच्छा और मधुर लगा ..यकीन मानिये इससे आपके इस मित्र की हिम्मत अफजाई हुई है ! मैं गीत शिल्प का जानकार नहीं हूँ मगर जो कुछ लिखा दिल से लिखा ! जब भी आप जैसे विद्वान् तारीफ़ करते हैं तो लगता है कि मैं सही लिख पा रहा हूँ !
आभार आपका !
बहुत ही सुंदर भावों से सजी कविता ....!!
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएं ...!!
मुझे तो कोई संदेह नहीं कि यह रचना आपकी है गुरुदेव!! वो भी निखालिस हॉलमार्क वाली...जिसने आपकी नंदिनी और साईं प्रार्थना वाली रचनाएँ पढ़ीं हैं उनको आपकी काव्यात्मकता,भावाभिव्यक्ति और संवेदनाओं पर रंच मात्र भी संदेह नहीं हो सकता.. आपका यह गीत भी दिल में बैठ जाता है.
ReplyDelete..आज जाना कि ब्लॉग का नाम गीत क्यों है! ..वाह! बहुत खूब।
ReplyDelete@ चला बिहारी ...!
ReplyDeleteआभार सलिल भैया, डॉ अरविन्द मिश्र को भी संदेह नहीं है ऐसा मेरा विश्वास है मगर यह उनका अंदाज़ है और मेरा आभार आप दोनों के स्नेह के लिए ! अगर दो चार भी अच्छी प्रतिक्रियाएं मिल जाएँ तो लेखन सफल लगने लगता है ! :-))
पूजन लगन देखि मनमोहनि, मैं भी हूँ नतमस्तक तेरा
ReplyDeleteतेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
बहुत सुन्दर शब्द संयोजन ..और मन की बात ...भावपूर्ण अभिव्यक्ति
वाह ! हमारी जितनी समझ है उस हिसाब से तो अति उत्तम है. बाकी विद्वान् लोग जानें :)
ReplyDeleteपूजन लगन देखि मनमोहनि, मैं भी हूँ नतमस्तक तेरा
ReplyDeleteतेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
सुंदर सच्चे पावन भाव......आपकी बेमिसाल सोच को अभिव्यक्त करती है यह रचना
मेरी "लिस्ट" का एक और गीत...शुक्रिया....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गीत!
ReplyDeleteअपने आप से सवाल करता अद्भुत गीत है।
ReplyDeleteवाह अद्भुत....सुन्दर भावपूर्ण गीत...आनन्द आ गया भाई..
ReplyDeletepriy saxena ji
ReplyDeleteprabhavmayi kavita ki manmohak
panktiyon ne mamugdh kar diya .sunser bhav liye sunder shilp. bahut-bahut
dhanyvad .
फूलों भरी अंजली लेकर तुम पथ भटक, यहाँ क्यों आयीं ?लगता है , मंदिर के भ्रम में , रास्ता भूल , चली आई हो !
ReplyDeleteबहुत सही बात कही है आपने ... सुन्दर रचना !
सचमुच बहुत सुन्दर कालजयी गीत है वारि वारि जाऊं मैं ..हम जब दिल्ली में मिलेगें या आप वाराणसी आयेगें तो इसको राग संगीत में निबद्ध किया जाएगा !
ReplyDeleteयह श्रृंगारिकता और सच्ची मानवीय अनुभूति की एक उदात्त प्रस्तुति है
हरिवंश राय बच्चन की इस कविता को पढ़ें -भावों की संयुति का कैसा मनोरम संयोग है ! -
देवता उसने कहा था!
रख दिए थे पुष्प लाकर
नत नयन मेरे चरण पर!
देर तक अचरज भरा मैं देखता खुद को रहा था!
देवता उसने कहा था!
गोद मंदिर बन गई थी,
दे नए सपने गई थी,
किंतु जब आँखें खुलीं तब कुछ न था, मंदिर जहाँ था!
देवता उसने कहा था!
प्यार पूजा थी उसीकी,
है उपेक्षा भी उसी की,
क्या कठिन सहना घृणा का भार पूजा का सहा था!
देवता उसने कहा था!
@ डॉ अरविन्द मिश्र
ReplyDeleteआभारी हूँ कि आपने बच्चन जी की इस कविता को पढवाया , मैंने यह पहले कभी नहीं पढ़ी ! जहाँ मैं हरिवंश राय जी के पैर की धूल मात्र भी नहीं हूँ वहां रचनाओं में कुछ साम्यता देख आज अच्छा लगा ! आपकी टिप्पणियों से, साहस के साथ साथ ज्ञानवर्धन भी हुआ !आपकी टिप्पणी से, इस रचना का मान बढ़ा है !
आभार !
बेहद उम्दा भाव
ReplyDeleteपूरा गीत बहुत सुन्दर है
ReplyDeleteपूजन लगन देखि मनमोहनि,मैं भी हूँ नतमस्तक तेरा
तेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
लेकिन इन पंक्तियों ने गीत को पूर्णता और सौन्दर्य प्रदान किया है
बहुत बढ़िया !
जो गीत मीरा की परिधि को छू भर ले पवित्र हो जाता है ,कालजयी भी .
ReplyDeleteअरे वाह सतीश भाई... कमाल का लिखते है!!! आनंद आया पढ़कर... बहुत खूब!
ReplyDeleteghar ek pavitr mandir hee hai Satishjee ........
ReplyDeleteastha aur bhavo se ot prot geet bahut pasand aaya....
झिलमिल सितारों का आंगन होगा,
ReplyDeleteरिमझिम बरसता सावन होगा,
ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा,
प्रेम की गली में इक छोटा सा घर बसाएंगे,
कलियां न मिली तो कांटों से सजाएंगे,
बगिया से सुंदर वो वन होगा,
झिलमिल सितारों का आंगन होगा...
सतीश भाई, आपको सिर्फ विद्वान ही नहीं हम जैसे मक्खन भी पढ़ा करा करते हैं, हमारी बुद्धि की ग्राह्यता का भी ध्यान रखा करिए...
जय हिंद...
खड़ी , भव्य दीवारें मेरी
ReplyDeleteकलश कंगूरे ध्वज और तोरण
घंट ध्वनि, मंत्रोच्चारण से
लगता घर, मेरा मंदिर सा
यह सब सच है मगर कामिनी, पूजा यहाँ न अर्पण करना
तुमको दुःख होगा कि यहाँ पर, मंदिर है पर मूर्ति नहीं है !
अदभुत शब्द संयोजन और गहन भाव से सँजोया एक उत्कृष्ट गीत !
बहुत दिनों बाद एक अच्छा गीत पढ़ कर आत्म-संतोष का अनुभव हो रहा है ! आभार !
अभिभूत हूँ आपकी इस रचना में छिपे भावों के आगे और नतमस्तक हूँ उस महाभागवता मीरा के आगे जिनके निश्चल प्रेम ने आपको यह भाव दिए. उन्हें मेरा चरणस्पर्श कहियेगा ........................ लेकिन हतप्रभ हूँ की काव्य के भावों पर चर्चा ना होकर इसकी हालमार्किंग पर हो रही है ................ अपनी प्रियतमा के प्रेम की ताप से तो कठोर से कठोर पाषाण से भी शिलाजीत के समान दिव्य प्रेम-औषधि प्रवाहित होने लगती है, तो आप जैसे संवेदनशील की ह्रत्तंत्री पर भाव अपना स्वर क्यों ना छेड़ेंगे :)
ReplyDeleteसतीश जी,इस गीत के लिए पहले तो बहुत -बहुत बधाई आपको !
ReplyDeleteबहुत सुंदर गीत है ! इसमें सूफियाना अंदाज है चूँकि मीरा का भी जिक्र हुआ है
इसलिए मीरा के जरिये ही इस गीत पर टिप्पणी करना चाहूंगी !
साधारणता हम लोग प्रेम में उथले-उथले ही जीते है ! हमें तो सिर्फ प्रेम
को रेस्पोंड़ करने के लिए एक साथी की जरुरत होती है अगर हमारे प्रेम को
रेस्पोंड़ नहीं मिलता है तो प्रेम को घृणा में परिवर्तित होने में देर नहीं लगती !
क्योंकि प्रेम समर्पण मांगता है आज हर कोई इगो से इतना भर गया है कौन किसके
आगे समर्पण करे?इसी लिए हमें प्रेम की गहराई का अंदाजा नहीं होता !
किन्तु मीरा का प्रेम साधारण नहीं डिवाईन है ! अपने प्रियतम का विरह ही काफी है उसके
जीने के लिए उसके गीतोंमे पाने की भाषा नहीं, केवल समर्पण ! प्रेम अगर मिल भी जाता है तो
दो कौड़ी का हो जाता है ! शायद इसीलिए आजकल के प्रेमी भी शादी के एक साल के भीतर-भीतर
तलाक ले रहे है !
मीरा जैसा प्यार लुटाती,
घर बाहर की लाज छोड़कर
मधुर गीत आँचल में भरकर
किस मोहन को ढूंड रही हो !
बहुत सुंदर पंक्तियाँ सुंदर सूफियाना गीत !
बहुत बधाई !
,
शब्द-शब्द राग और समर्पण के भावों से भरे इस सुन्दर गीत के लिए हार्दिक शुभकामनायें... साधुवाद !
ReplyDeleteअतिसुन्दर प्रेम व भावों से सजे गीत के लिये बधाई स्वीकारें !
ReplyDeletenirmal hasya sajate jab-tab
ReplyDeletegeet prem ke gate hain.....
rachnayen ye bhaw-prvan hai
sab ki ankhen nam kar jate hain....
balak is kavita ke liye apko naman
kiarta hai......
pranam.
ramnawmin ki hardik shubhkamnayen!!
ReplyDeleteसमर्पण भावनाओं की बेहतरीन अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteसादर !
तुमको दुःख होगा कि यहाँ पर, मंदिर है पर मूर्ति नहीं है !
ReplyDelete..
..
इस सूने मंदिर में देवी ! कविता है ,सौंदर्य नहीं है !
अहा मन खुश हो गया भाई जी...उम्मीद भी ऐसे सरस गीत की थी आपसे
धन्यवाद !
पूजन लगन देखि मनमोहनि, मैं भी हूँ नतमस्तक तेरा
ReplyDeleteतेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
बहुत सुंदर पवित्र पावन भाव......आपकी स्वच्छ और निर्मल भावना को अभिव्यक्त करती है रचना...
अब भी जागो स्वप्न सुंदरी,गीत यहाँ न समर्पित करना
ReplyDeleteइस सूने मंदिर में देवी ! कविता है ,सौंदर्य नहीं है !
मन आनंदित हो गया ..बेहद सरल सुन्दर गीत.
मेरे गीत में इस उत्कृष्ट आनंदमयी गीत की प्रस्तुति... वाह !
ReplyDeleteमीरा जैसा प्यार लुटाती ,
ReplyDeleteघर बाहर की लाज छोड़कर
मधुर गीत आँचल में भरकर
किस मोहन ,को ढूंढ रही हो
सतीश भाई, आप है ना :)
atyant sundar. :)
ReplyDeleteक्या बात है!! मुझे लगता है कि आपको गीत-लेखन के प्रति नियमितता दिखानी चाहिये.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना प्रस्तुति....शुभकामनाएं...आभार
ReplyDeleteरास्ता भूला गया है ऐसा क्यूँ लगता है
ReplyDeleteशायद यह पथिक इसी रास्ते का राही हो
बहुत सुन्दर रचना
मीरा जैसा प्यार लुटाती ,घर बाहर की लाज छोड़ कर मधुर गीत आँचल में भरकर किस मोहन ,को ढूंढ रही हो पूजन लगन देखि मनमोहनि, मैं भी हूँ नतमस्तक तेरा तेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
ReplyDeleteसतीश जी मीरा को तो कृष्ण भी नहीं रोक पाए भक्ति करने से.आपकी प्यार भरी अभिव्यक्ति के अहसास क्या सच हैं या केवल कल्पना ?
आत्मिक प्यार के लिए तो मंदिर मूर्ति की आवश्यकता ही नहीं.इसीलये shaयद कहा गया
'बेशक मंदिर मस्जिद तोडो,पर प्यार भर दिल कभी न तोडो '
एक बार फिर मेरे ब्लॉग पर पधारें,मेरी नई पोस्ट पर .
क्या कविता की मजबूरी है कि सही राह पर आई हुई मोहतरमा को भटका हुआ कहा जाये ?
ReplyDeleteप्रेम और भक्ति के सन्यस्त जीवन संकेत वाले मंदिर और गार्हस्थ्य जीवन संकेत वाले मंदिर का अंतर उन्हें भली भांति पता है पर आप हैं कि ...
बहरहाल मेरी आपत्ति दर्ज की जाये !
@अली भाई अब आपके इस उलाहने पर मेरी आपत्ति है! यहाँ कवि अपने बारे में कैसा सहज सच्चा उदगार कर रहा है -कोई काईयाँ होता तो क्यों मन करता एक आशक्त मना को ?
ReplyDeleteकवि की सच्चरित्रता और सच्चाई देखो न मित्र!
और यहाँ हंसी मजाक की भी कोई गुंजाईश नहीं है कि सीधे कवि से उसे जायज ही प्रेरणा स्रोत मानने वाली का पता ठिकाना पहचान पूछ लिया जाय !
कोई बताता भी है ?
सुधार :कोई काईयाँ होता तो क्यों मना करता एक आशक्त मना को
ReplyDelete@ खुशदीप सहगल ,
ReplyDeleteमक्खन अभी बरसों हम जैसों को पढ़ायेगा खुशदीप भाई ! शुक्रिया आपका !
@ज्ञानचंद मर्मज्ञ ,
कवित्त शिल्प के बारे में जानकार नहीं हूँ मर्मज्ञ जी , मगर आप जैसों की टिप्पणी से महसूस होता है की मैं कुछ ठीक लिख पा रहा हूँ !
आदर सहित !
@ अमित शर्मा ,
मुझे लगता है कुछ लोग बेहद स्नेही हैं और अमित शर्मा जैसे लोग, मानवता के लिए एक सम्मान हैं ! पता नहीं क्यों कई बार तुम्हे आभार कहने का दिल करता है ! आशा है नाराज नहीं होगे !
@ सुमन ,
@साधारणता हम लोग प्रेम में उथले-उथले ही जीते है...
आपका कमेन्ट मर्मस्पर्शी है कभी लिखूंगा इसके लिए पूरी पोस्ट चाहिए ....सादर
@ डॉ शरद सिंह ,
अहसास करने के लिए शुक्रिया !
.
ReplyDelete.
.
अली सैयद साहब की आपत्ति जायज लग रही है...
गीत बहुत ही सुन्दर व गेय है... आप जब भी गीत लिखते हैं तो बहुत ही अच्छा लगता है...
...
सुंदर गीत भाई सतीश जी बधाई आपको |शब्द और भाव संयोजन दोनों ही उत्कृष्ट हैं |
ReplyDeleteसुंदर गीत भाई सतीश जी बधाई आपको |शब्द और भाव संयोजन दोनों ही उत्कृष्ट हैं |
ReplyDelete@ इस्मत जैदी ,
ReplyDeleteआप जैसे कद्रदान के आने से महफ़िल में रौनक आना स्वाभाविक है ! आभार !
@अभिषेक ओझा ,
धन्यवाद अभिषेक , आ जाया करो यार कभी कभी ...और विद्वता की बात नहीं करो ...मैं तुम्हारा प्रसंशक हूँ महाराज !
@ शहरोज़,
मन से शुभकामनाएं शहरोज़ !
@ उदयवीर सिंह,
आपका आभार भाई जी !
@ वंदना अवस्थी दुबे,
शुक्रिया वंदना जी , मगर गीत सोंच कर कभी नहीं लिख पाया , :-(
पिछला गीत शायद ४ साल पहले लिखा था ! इसके लिए जो मूड चाहिए वह जब भी बना, कुछ भी लिख देता हूँ !
,@ अली सा ,
ReplyDeleteआप जैसे स्नेही की तीक्ष्ण निगाह का कायल हूँ भाई जी ! आभार आपका ! मगर अरविन्द मिश्र जी खुद मेरे बचाव पर उपस्थित हैं तो मैं क्या कहूं .... :-)
@ अरविन्द मिश्र ,
आभार आप दोनों का एक साथ आने का ! जीवंत हो गया यह गीत ! गुरु जनों से क्या कहूं ...
:-)
अब इतने बरसों बाद मैं तो कुछ बताने से रहा !
@ प्रवीण शाह ,
आप तीनों विद्वानों को एक साथ इस मुद्दे पर एक देख दंडवत प्रणाम करता हूँ !
:-)
,
जिस घर में हो आप सरीखा
ReplyDeleteवह तो मंदिर ही होगा ,
मेरे आने की शर्त न कोई
मुझको तो आना ही होगा !
सुंदर और कोमल अहसासों को सजाकर काव्य रूप आकर्शित कर गया।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत खूब
बहुत ही खूब.
खड़ी , भव्य दीवारें मेरी
ReplyDeleteकलश कंगूरे ध्वज और तोरण
घंट ध्वनि, मंत्रोच्चारण से
लगता घर, मेरा मंदिर सा
यह सब सच है मगर कामिनी, पूजा यहाँ न अर्पण करना
तुमको दुःख होगा कि यहाँ पर, मंदिर है पर मूर्ति नहीं है !
बहुत सुन्दर!!
भावपूर्ण अभिव्यक्ति!!!
खड़ी , भव्य दीवारें मेरी
ReplyDeleteकलश कंगूरे ध्वज और तोरण
घंट ध्वनि, मंत्रोच्चारण से
लगता घर, मेरा मंदिर सा
यह सब सच है मगर कामिनी, पूजा यहाँ न अर्पण करना
तुमको दुःख होगा कि यहाँ पर, मंदिर है पर मूर्ति नहीं है !
बहुत सुन्दर!!
भावपूर्ण अभिव्यक्ति!!!
आनंद-विभोर करने वाली कविता....इतना सब है तो फिर मंदिर कैसे नहीं है.....
ReplyDeleteरामनवमी की शुभकामना....
प्रणाम
@खुशदीप भाई से एक अपील:
ReplyDeleteये बार बार झीकने से अच्छा है कि थोडा सा तो ऊपर खुद उठिए महाराज
ब्लॉग जगत केवल विविध भारती सुनने वालों के लिए मत बना रहने दीजिये !
भाव , स्वभाव व अनुभाव की दृष्टि से लाज़वाब रचना ।
ReplyDeleteबाकि तो मिश्रा जी ने मोर्चा संभाल ही रखा है । :)
बढ़िया है मित्र , लगे रहो ।
Hi Satishji,
ReplyDeleteEk sandharbh ke anusar aapne jo vicharo ka mala buna hai, wo behad hi bhaavuk aur dil se nikli aawaz lagi mujhe ! Mere mann me mujhe laga ki ghar aur mandir mein sach me koi antar nahi hai, parantu ye keval ek kalpanik upanyaas/kavita thi..main to mugdh ho gaya tha aapki lekh padhte padhte...keep posting i like ur writings ! :)
बहुत खूबसूरत गीत!
ReplyDelete@अरविंद जी को खास तौर पर झीकाने के लिए...
ReplyDeleteबस यही अपराध मैं हर बार करता हूं,
आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं...
यहां मैं अपने शब्द-कोष की सीमितता को स्वीकार करते हुए बता दूं कि झीकने का मुझे सही अर्थ नहीं पता...
दूसरा इस गाने की पंक्तियों से कोई दोस्ताना (अभिषेक बच्चन-जॉन अब्राहम फेम) के घिसे-पिटे संदर्भ जैसा निहितार्थ निकालने की कोशिश न करे...
जय हिंद...
@डॉ अरविन्द मिश्र
ReplyDelete@ खुशदीप सहगल
अक्सर ब्लॉग जगत में गलत फहमियों के कारण समस्या अधिक पैदा होती हैं ! मुझे यहाँ यही लग रहा है .....
आप दोनों गुरु चीज हैं मुझ नाचीज़ पर दया करें :-)
क्या बात है बन्धु । मंदिर है पर मूर्ति नहीं है। आराध्य नहीं है, कविता है पर सौन्दर्य नहीं है,। अति सुन्दर रचना
ReplyDeletebahut sundar kavita ... paak shivalay kee tarh .. aapki yah sundar rachnaa kal charcha manch par hogi ...aap vaha aa kar apne vichaaron se anugrahit karen ..saadar
ReplyDeleteman nirmal kar gai ye panktiyaan...
ReplyDelete@मीरा जैसा प्यार लुटाती ,
ReplyDeleteघर बाहर की लाज छोड़कर
मधुर गीत आँचल में भरकर
किस मोहन ,को ढूंढ रही हो
पूजन लगन देखि मनमोहनि, मैं भी हूँ नतमस्तक तेरा
तेरी पूजा ग्रहण योग्य मंदिर तो है ! आराध्य नहीं है !
-- सक्सेना जी, पता नहीं क्यों मैं ये महसूस कर रहा हूँ कि आपने आलौकिक प्यार की गहराई महसूस की है जो इस कविता में झलक रही है..... बढ़िया लगा..
गीत की शब्द-शैली और भाव दोनों ही मन मोह गए..
ReplyDelete@ सुभाष जी ,
ReplyDeleteआभार ध्यान देने के लिए !
@ दीपक बाबा,
आप अंतर्यामी हैं बाबा , स्नेह के लिए आभार !
कमाल की रचना है सतीश जी,
ReplyDeleteबधाई
काफी सुरीला गीत है, आरम्भ में जो सुर लगता है अंत तक बंधे रखता है.
ReplyDeleteप्यारा गीत....देर तक गुनगुनाते रहे.....
ReplyDeleteफूलों भरी अंजली लेकर तुम पथ भटक, यहाँ क्यों आयीं ?
लगता है , मंदिर के भ्रम में , रास्ता भूल , चली आई हो !
वाह वाह क्या बात है.....!! हिंदी गीतों में ही ऐसा सौंदर्य मिल सकता है.
आदरणीय सतीश सक्सेना जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
आप कहते हैं कि - आपगीत शिल्प के जानकार नहीं हैं … :)
… … … और तब यह हाल है !!!
वाह वाह भाईसाहब ! आपकी तारीफ़ के लिए शब्द बने ही नहीं सचमुच । झूठमूठ उपक्रम क्या करूं अब ??
मौन विमुग्ध हूं पढ़-पढ़ कर …
कुछ विलंब से …
* श्रीरामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं ! *
- राजेन्द्र स्वर्णकार
प्रतीकात्मक भाव, सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDelete---------
भगवान के अवतारों से बचिए!
क्या सचिन को भारत रत्न मिलना चाहिए?
वाह... समर्पण, प्रेम, आभार, सम्मान... सब-कुछ...
ReplyDeleteफूलों भरी अंजली लेकर तुम पथ भटक, यहाँ क्यों आयीं ?
ReplyDeleteलगता है , मंदिर के भ्रम में , रास्ता भूल , चली आई हो !
सुन्दर शब्द संयोजन !
मर्मस्पर्शी एवं भावपूर्ण काव्यपंक्तियों के लिए कोटिश: बधाई !
वाह, आपकी कविता के उद्गार भी बहत सुन्दर-सुकुमार हैं !
ReplyDeleteबाहर से देवता सरीखा
ReplyDeleteसौम्य लगूं आराध्य सरीखा
तुम मुझसे वर लेने आयीं
मैंने मांग लिया तुमको ही
अब भी जागो स्वप्न सुंदरी,गीत यहाँ न समर्पित करना
इस सूने मंदिर में देवी ! कविता है ,सौंदर्य नहीं है !
लेकिन इस गीत में समग्र सौंदर्य है।
बधाई, इस सुंदर गीत के लिए।
बाहर से देवता सरीखा
ReplyDeleteसौम्य लगूं आराध्य सरीखा
तुम मुझसे वर लेने आयीं
मैंने मांग लिया तुमको ही
bahut umda likha hai ...prasad deree se mila ....
jai baba banaras...
पावन पवित्र प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना ...आभार
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत है, बहुत पसंद आया।
ReplyDeleteआभार ।
दिव्य भाव, आलौकिक भाव।
ReplyDeleteवाह सतीश भाईजी, वाह।
Shukriya Satishji, ek behtareen post ke liye...
ReplyDeleteसतीश जी..
ReplyDeleteईमानदारी से कहूँगा अब तक आपकी धारदार रचनाओं की तारिफ ही सुनी थी..पर अब ईन्हें पढ़ कर आपके ब्लॉग में देर से आने के लिये अफसोस हो रहा है..सिर्फ एक वाक्य है आपके लिये..बेहतरीन्
bahut bahut pasand aai ye rachna.atiuttam.
ReplyDeleteकमाल की रचना है सतीश जी
ReplyDeletemann ko choo gayee aapki KAVITA.....THNX!!FOR YUR APPRECIATION...
ReplyDeleteटिप्पणियाँ अभी पढीं। हा, हा!
ReplyDeleteअमित की निर्मल बात बहुत अच्छी लगी।
धन्यभाग .....
ReplyDeleteअनुराग शर्मा की निगाह पड़ी ! आभार