मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !
हैरान हुए, हर बार मिली,जब भी देखी, गागर खाली !
उसने ही,छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !
लगता है तुम्हारे आने पर , हर घर में दीवाली होगी !
कलरात,तुम्हारी गलियों में,लोगों ने खरीदारी की थी !
जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं, उसने तो, वफादारी की थी !
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !
हैरान हुए, हर बार मिली,जब भी देखी, गागर खाली !
उसने ही,छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !
लगता है तुम्हारे आने पर , हर घर में दीवाली होगी !
कलरात,तुम्हारी गलियों में,लोगों ने खरीदारी की थी !
जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
हमने ही ,नज़रें फेरीं थीं, उसने तो, वफादारी की थी !
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
ReplyDeleteकुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
समय के बलवान होने की सच्चाई बयान करता शेर. बेहतरीन ग़ज़ल बनी है.
मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
ReplyDeleteहमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !
..वाह! क्या बात है!!!
अच्छी ग़ज़ल कही भले ही, सब कुछ बारी-बारी की थी। :)
जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
ReplyDeleteहमने ही , नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
वाह ... बहुत खूबसूरत गज़ल
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
ReplyDeleteकुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
उन दिनों नशे,में इतराते ,हम शहनशाह कहलाते थे !
जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !
बहुत खूब सतीश जी ,दुनियां का तेवर समय के साथ ऐसा ही बदलता है
latest post सुख -दुःख
ir-shad......
ReplyDeletepranam.
उन दिनों नशे,में इतराते ,हम शहनशाह कहलाते थे !
ReplyDeleteजिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !
बेहद खुबसूरत अंदाज़ दिल की बातों को बयान करने का गीतों के माध्यम से गजब
बढ़िया है आदरणीय-
ReplyDeleteपल्लेदारी खुब करी, बोरा ढोया ढेर ।
शब्द-अर्थ बोरा किया, रहा आज तक हेर ।
रहा आज तक हेर, फेर नहिं अब तक समझा।
छ जाए अंधेर, काफिया मिसरा उलझा ।
उड़ा रहे उस्ताद, बना हुक्के से छल्ले ।
पाते दिन भर दाद, इधर ना पड़ती पल्ले ॥
हा...हा...हा...हा...हा...हा...
Deleteहंसा दिया यार रविकर उस्ताद ने , सफल हो गयीं पल्लेदारी :)
खूब हँसे बार बार हँसे ...
आभार रविकर भाई, इस सम्मान के लिए और आपके आगमन के लिए !
@ पाते दिन भर दाद इधर न पड़ती पल्ले
Deleteकाहे बनाओ मूर्ख जमाओ, खूबै सिक्का
ब्लॉग जगत कब से मानै रविकर को कक्का
हा..हा..हा..हा... जय हो कविवर रविकर !!
आभार आपका-
Deleteबेहतरीन ....बहुत ही बढ़िया पंक्तियाँ
ReplyDeleteआभार भाई जी ..
ReplyDeleteवाह बेहद उम्दा क्या खूब कायदे का रदीफ़ मीटर और काफिया :)
ReplyDeleteवाह, बहुत खूबसूरत, सर जी!
ReplyDeleteवाह बहुत ही बढ़िया...
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल, ढेरो शुभकामनाये
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत ग़ज़ल औरअभिव्यक्ति .....!!
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति,आपकी यह रचना कल गुरुवार (18-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteआभार राजेंद्र भाई आपका ..
Deleteअब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
ReplyDeleteकुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
बहुत खूबसूरत गज़ल
वाह वाह , ग़ज़ब !
ReplyDeleteयह हुनर अब तक कहाँ छुपा रखा था भाई ?
बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है।
मक्ता कुछ इस तरह शुद्ध हो जायेगा --
तब नशे,में इतराते,'सतीश' शहनशाह कहलाते थे !
जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !
चलिए वह भी पूरा किये देते हैं ..
Deleteसुझाव के लिए आभार !
सतीश भैया ने अभी ओर भी हुनर छिपे हुए हैं जो बाहर आने बाकि है :)
ReplyDeleteहुनर ही तो नहीं है अनु ..
Deleteअब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
ReplyDeleteकुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !..
बहुत खूब ... येअही तो समय की चाल का असर है ... समय बीत जाता है कोई पहचानता नहीं ... हर शेर लाजवाब है सतीश जी ...
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
ReplyDeleteकुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
ला-जवाब!!
मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया को मौजूद रखते हुये सशक्त गजल कही है आपने, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
ReplyDeleteहैरान हुए, हर बार मिली, जब भी देखी , गागर खाली !
उसने ही, छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !
बहुत सुंदर
बहुत सुंदर
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल ... सतीश जी इस नयी विधा की पहली रचना के लिए बहुत बहुत बधाई .
बहुत उम्दा गजल..शब्दों का चयन और लय काबिले तारीफ है..
ReplyDeleteकैसे बनती ग़ज़ल, न अपनी मन मर्जी के माफिक ,
ReplyDeleteजाने कितने धंटों आपने लफ़्ज़ों से मगजमारी की थी :)
अब तो शायद,इस नगरी में,कोई न हमें,पहचान सके !
कुछ रोज,तुम्हारी बस्ती में,हमने भी सरदारी की थी !
सबसे जोरदार ये वाला लगा .. लिखते रहिये ....
वाह!जी वाह! गज़ब किया जो भी किया ...आज तो नये रंग में है ..सतीश भाई जी :-))
ReplyDeleteखुश रहें! मुबारक हो ..
बहुत सुंदर और लाजबाब गजल ,,,वाह !!! वाह, क्या बात है,सतीश जी
ReplyDeleteRECENT POST : अभी भी आशा है,
गहन भावनाएं... सुंदर गजल ...!!
ReplyDeleteहैरान हुए, हर बार मिली, जब भी देखी , गागर खाली !
ReplyDeleteउसने ही, छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !
बहुत बढ़िया ! और ऊपर से ये चौकीदार अपने को दुनिया का सबसे इमानदार चौकीदार भी बताते नहीं थकता ! :)
धमाकेदार, पढ़ने में आनन्द आ गया।
ReplyDeleteआज आपको इस इश्टाइल में पहली बार पढ़ रही हूँ। बढिया।
ReplyDeleteजाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
ReplyDeleteहमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
वाह क्या कहने लाजवाब
साभार!
जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
ReplyDeleteहमने ही , नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
वाह ... बहुत खूबसूरत गज़ल सक्सेना साहब
वाह!
ReplyDeleteआभार आपका ..
ReplyDeleteकाफी अच्छी लगी आपकी गजल । गहरी और खूबसूरत
ReplyDeleteछा गये भाईजी।
ReplyDeleteजब आँखें खुल जाय तभी सवेरा
ReplyDeleteजाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
ReplyDeleteहमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
बहुत सुन्दर गजल है ...लेकिन मुझे मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया
इन सब बारीकियों की कोई समझ नहीं है लेकिन गजल पढ़ने में सुन्दर लगती है :)
पढ़ कर चकित हूँ !
ReplyDeleteवाह! बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आप ने.
ReplyDeleteअच्छे ख्याल हैं.
बढिया!
ReplyDeleteबढिया है जी।
ReplyDeleteक्या बात है सतीश भाई नै परवाज़ दी है गजल को नए अंदाज़ दिए हैं बयानी दी है .
ReplyDeleteतब नशे में इतराते सतीश,और शहंशाह कहलाते थे !
जिनको सर माथे रखना था, उनसे थानेदारी की थी !
हैरान हुए, हर बार मिली, जब भी देखी , गागर खाली !
उसने ही, छेद किया यारो, जिसने चौकीदारी की थी !
बहुत खूब लिखा भाई सतीश सक्सेना साहब ए आज़म
बढिया!
ReplyDeleteबहुत सुंदर और लाजबाब गजल ,,,वाह !!!
ReplyDeleteजाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
ReplyDeleteहमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
सतीश जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल गुस्ताखी के साथ कहना कहना चाहूँगा
बेखुदी में मै ही समझ न पाया तेरी वफ़ा को ,
अपनी ही नजरों से गिर गया हूँ इस जहन्नुम में
जाने अनजाने, वे भूलें , कुछ पछताए, कुछ रोये थे !
ReplyDeleteहमने ही ,नज़रें फेरीं थीं , उसने तो, वफादारी की थी !
सतीश जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल गुस्ताखी के साथ कहना कहना चाहूँगा
बेखुदी में मै ही समझ न पाया तेरी वफ़ा को ,
अपनी ही नजरों से गिर गया हूँ इस जहन्नुम में
क्या बात है..
ReplyDeleteबेहद शानदार गजल सतीश जी,मन को छूने वाली आपका आभार।
ReplyDeleteमिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
ReplyDeleteहमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !
वाह...
लाजवाब ग़ज़ल...
अच्छी प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबढ़िया ग़ज़ल... खूबसूरत अंदाज़-ए-बयाँ....!
ReplyDeleteबहुत खूब!:)
~सादर!!!
वाह सतीश जी ..बहोत खूब
ReplyDeleteबहुत शानदार ग़ज़ल... दाद स्वीकारें.
ReplyDelete
ReplyDeleteसुन्दर बिम्ब भाव और व्यंजना मतले से ही गजल ऊंची उड़ान ले लेती है .ओम शान्ति
मिसरा,मतला,मक्ता,रदीफ़,काफिया,ने खुद्दारी की थी !
हमने भी ग़ज़ल के दरवाजे,कुछ दिन पल्लेदारी की थी !
क्या बेबाक लिखा है ... बहुत खूब ...
ReplyDelete
ReplyDeleteसबलोग बड़े भौचक्के थे,ऐसा तो कभी, देखा न सुना !
उस रोज़,नशे के सागर में,हमने ही समझदारी की थी !
क्या बात है सर जी नए तेवर नया अंदाज़ है क़ोइ बयानी सी बयानी है
वाह वाह क्या बात है बहोत खुब वाह वाह
ReplyDeleteतब नशे में इतराते सतीश और शहंशाह कहलाते थे !
ReplyDeleteजिनको सर माथे, रखना था, उनसे थानेदारी की थी !
अद्भुत प्रस्तुति...
स्नील शेखर
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteApke shabdoon par puri pakad aur samjhane ka hunar hai :] Bahut Khoob likha hai :]
ReplyDeleteवाह सरदार !
ReplyDeleteSHABDO CHAYAN LAJWAB HAI,SUNDAR GHAZAL
ReplyDelete