सुन भी लें तो भी ,मन में इबादत नहीं रही !
इक वक्त था जब कवि थे देश में गिने चुने
यह वक्त चारणों का, मुहब्बत नहीं रही !
जब से बना है काव्य चाटुकार , राज्य का
जनता को भी सत्कार की आदत नहीं रही
माँ से मिली ज़ुबान , कब के भूल चुके हैं !
गीतों से कोई ख़त ओ क़िताबत नहीं रही !
संस्कार माँ बहिन की गालियों में ,खो गए
माँ से मिली ज़ुबान , कब के भूल चुके हैं !
गीतों से कोई ख़त ओ क़िताबत नहीं रही !
संस्कार माँ बहिन की गालियों में ,खो गए
कवितायें बिकाऊ हैं , बग़ावत नहीं रही !
लाजवाब
ReplyDeleteबहुत खूब सतीश जी 👌👌👌जब कवि कवि ना रह कर सत्ताधारी पार्टियों के चारण बन जाते है तो कविता का रीतिकाल आ जाता है। तब कविताएँ sirf सुनी जाती हैं गुनी नहीं। बिकता कवि कविता के पतन का द्योतक है। चाटुकार कवियों को आईना दिखाती रचना। हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🙏🙏💐💐
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteशानदार👌
ReplyDeleteखरी खरी बात !
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