अभी हाल में , मैंने एक महिला मित्र की आहत मन से लिखी पोस्ट पर , नैराश्य से बाहर आने का सुझाव दिया , मगर स्वभाव अनुसार भावना में बहते हुए उन, हमउम्र महिला को माते शब्द से सम्बोधित कर दिया , और उन्होंने नाराजी जाहिर करते हुए उसी कमेंट को लाइक नहीं किया जिसे सबसे अधिक पसंद करना चाहिए , शायद उन्हें मेरे (६८ वर्षीय) द्वारा, माँ कहना नागवार गुजरा होगा, बहुत कष्ट होता है जब लोग स्नेह को समझने में नाकाम होते हैं !
मैं जब भी किसी महिला से बात करता हूँ पहले उसमें माँ की तलाश अवश्य करता हूँ , और अधिकतर सफल भी रहता हूँ ! अनुलता नैयर जैसी छोटी लड़कियां , सुमन पाटिल जैसी हमउम्र अथवा पुष्पा तिवारी जैसी बड़ी , सुदेश आर्य को मैं अक्सर मां सम्बोधन देता हूँ और यह सम्बोधन उनके स्नेही स्वभाव के कारण ही होता है अन्यथा सुदेश मेरे लिए एक चंचल बच्ची से अधिक कुछ नहीं !
गरजें लहरें बेचैनी की
कहाँ किनारा पाएंगी !
धीरे धीरे ये आवाजें ,
सागर में खो जाएंगी !
क्षितिज नज़र न आये फिर
भी, हार न मानें मेरे गीत !
ज़ख़्मी दिल में छुपी वेदना, जाने किसे दिखाएँ गीत !
समझ रहे हैं थोड़ा थोड़ा ये समझ कर की शायद हमें है स्नेह पहचान लेने की थोड़ी सी समझ। वैसे हमारी एक और केवल एक घर की महिला को तो मां से ज्यादा अम्मा ज्यादा पसंद है । :)
ReplyDeleteस्वागत भाई जी
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ReplyDeleteसाफ़ दिल के लोग जो सपाट बात करते हैं, आज के युग में कहाँ पसंद किए जाते हैं सतीश जी। पॉलिश की हुई मुँह देखी बातें करने वाले ही लोकप्रिय होते हैं। मैंने आपके नज़रिए को समझ लिया क्योंकि मेरा नज़रिया भी यही है पर हम जैसे लोग अल्पमत में हैं - वास्तविक संसार में ही नहीं, आभासी संसार में भी।
ReplyDeleteवाक़ई दोस्त
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteस्वागत
Deleteसक्सेना जी, आपकी बात अच्छे से समझ में आ गई ।
ReplyDeleteसमाज बदल रहा है। इसमें संबोधन भी बदल रहे हैं। कालेज की एक लड़की को बहनजी सुनना पसंद नहीं आता। कई तो झिडक भी देती हैं। हम उम्र फेशन परस्त महिला भी बहनजी कहना पसंद नहीं करतीं , कुछ को उनके फेशनस्टाइल का आपमान लगता है।
तेलंगाना में आज भी साधारणतः स्त्रियों, लड़कियों (छोटे या बड़े) को अम्मा संबोधित करना सम्यनजनक माना जा रहा है, इसलिए मैं खुश हूँ कोई संबोधन की दुविधा नहीं है, किंतु बहुत जगह ऐसी दुविधा है। मुझे ऐसी भी जानकारी है कि एक शब्द "बाई" कहीं सम्मानजनक है तो कहीं अपमान जनक। ऐसे और भी हैं।
यह सब इसलिए कह रहा हूँ कि बदलते समाज में समय के साथ चलना ही उचित है अन्यथा अनचाहे ही समस्याओं में घिर जाएँगे।
यदि आपको मेरी बात सही नहीं लगी या स्वीकार्य नहीं है तो उपेक्षित समझें और क्षमा करें।
यहाँ बात भावनाओं और परस्पर समझ की है , यकीनन अजनबी लोगों से सम्बोधन सोचकर ही उपयोग किए जाने चाहिए मगर जहां स्नेह की बात हो तब तो नासमझी ही कहलाएगी परस्पर सम्बन्धों में
Deleteसबकी अपनी-अपनी समझ होती है इसलिए अपने अनुसार उसका मतलब निकाल लेते है। नेक सलाह और भावनाओं के समझने की समझ हर एक में हो तो फिर रोना किस बात का ..
ReplyDeleteआपके गीत जोश से भरे होते हैं और जीवन सीख देते हैं। .
गरजें लहरें बेचैनी की
कहाँ किनारा पाएंगी !
धीरे धीरे ये आवाजें ,
सागर में खो जाएंगी !
क्षितिज नज़र न आये फिर
भी, हार न मानें मेरे गीत !
ज़ख़्मी दिल में छुपी वेदना, जाने किसे दिखाएँ गीत !
स्वागत आपका
Deleteभावनाओं की अनदेखी करना जमाने का चलन है ।कभी-कभी हम ऐसी परिस्थितियों में घिर जाया करते हैं अनजाने में । मन की व्यथा को उद्घाटित करती चिन्तन परक पोस्ट ।
ReplyDeleteस्वागत आपका
Deleteसबकी अपनी अपनी समझ । अपनी भावनाओं को स्वच्छ और सम्मानजनक रखें । बाकी कौन क्या सोचता है इसकी परवाह न करें ।।
ReplyDeleteप्रणाम !
Deleteअब आपको देखने से आपकी वह उम्र तो दिखती नहीं, जो आप बता रहे हैं, तो भ्रम होना स्वाभाविक है। भगवान आपकी यह सेहत और छवि बनाए रखे और आपके संबोधन पर लोग एतराज करते रहें, मेरी तो यही कामना है।😄😄😄
ReplyDeleteअरे याऽऽर !!
Deleteबहुत सुंदर कहा सर माँ शब्द से परे कोई शब्द नहीं स्नेह दरसाने हेतु।
ReplyDeleteसच तो यही है
Deleteस्वागत
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