यह सच है कि हम भारतीय पाखंड अधिक करते हैं, प्रौढ़ावस्था के कपड़े अलग, जवानों के अलग और बुढ़ापे में रंगहीन कपड़े और मोटा चश्मा, दाढ़ी के साथ ! विधवा है तब रंगीन कपड़े , चूड़ी पायल कंगन आदि सब त्याज्य अन्यथा सब लोग क्या कहेंगे !
अगर लेखक हैं और आम लोगों में मशहूर होना है तो सबसे पहले नाम बदलिए , बेहतरीन सांस्कृतिक नाम रखिए, दाढ़ी बढ़ा लीजिए बड़े बाल कंधे तक बनाइए, खादी कुर्ता पजामा, चेहरे पर गंभीरता , और कुछ चेले लेकर चलना शुरू करें फिर देखिए जलवा !
अगर लेखक हैं और आम लोगों में मशहूर होना है तो सबसे पहले नाम बदलिए , बेहतरीन सांस्कृतिक नाम रखिए, दाढ़ी बढ़ा लीजिए बड़े बाल कंधे तक बनाइए, खादी कुर्ता पजामा, चेहरे पर गंभीरता , और कुछ चेले लेकर चलना शुरू करें फिर देखिए जलवा !
सबसे बढ़िया धंधा करना हो तो बाबा बन जाइए, सतीश सक्सेना जैसे बकवास नाम की जगह सत्यानंद सरस्वती अधिक प्रभावशाली रहेगा, दाढ़ी और सर के बाल बढ़ाकर नारंगी रंग की धोती पहनिए, पैरों में खड़ाऊँ हों तो क्या कहने, राह चलते लोगों में पैर छूने की होड़ लग जाएगी , आशीर्वाद दो और धन बरसने लगेगा !
और अगर 69-70 की उम्र में आकर, टी शर्ट, शॉर्ट पहन लिया तब लोगों से यह सुनने को तैयार रहिए, चढ़ी जवानी बुड्ढे नू ! मन को मारना सीख ले, इस उम्र में यह रंग, सब लोग क्या कहेंगे !
अभी हमें मानसिक तौर पर विकसित होने में, कम से कम 100 साल लगेंगे !
काफ़ी हद तक आपकी बात ठीक ही है। हमारे समाज में पाखंड को अधिक महत्व दिया जाता है। अपने प्रति सत्यनिष्ठ रहते हुए किसी के जीने को समाज को सहज भाव से स्वीकार नहीं करता।
ReplyDeleteहम भी हैं
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