रूद्र अब की बाढ़ में इस देश का कूड़ा गहें !
धवल खद्दर वस्त्र पहने,कुछ मदारी तो बहें !
हे प्रभु भूकम्प का कुछ हो असर मेरे देश में !
नफरतों की,रंजिशों की,कुछ दिवारें तो ढहें !
धूर्त गुरु, मक्कार चेले , हैं इसी उम्मीद में !
धुर गंवारों की गली में भाग्य इनके भी जगें !
मान्यवर की बेहयाई,है शिखर पर आजकल
मन वचन कर्मों से डाकू,शक्ल से साधू लगें !
धर्म रक्षक भी परेशां, ताकत ए साईं की देख
कैसे इस दमदार शिरडी को भी,गेरू से रंगें !
नफरतों की,रंजिशों की,कुछ दिवारें तो ढहें !
धूर्त गुरु, मक्कार चेले , हैं इसी उम्मीद में !
धुर गंवारों की गली में भाग्य इनके भी जगें !
मान्यवर की बेहयाई,है शिखर पर आजकल
मन वचन कर्मों से डाकू,शक्ल से साधू लगें !
धर्म रक्षक भी परेशां, ताकत ए साईं की देख
कैसे इस दमदार शिरडी को भी,गेरू से रंगें !
पृथ्वी पर जब अन्याय, अत्याचार, ढोंग, चोर-लफंगों ढोंगी लोगों का भार बढ़ जाता है तब प्रकृति अपना काम एक दिन जरूर करती हैं. भले ही देर से लेकिन अंधेर हर समय नहीं रहता। .
ReplyDeleteआपका आक्रोश मुखर हुआ है कविता में ...
हो रही घर घर
ReplyDeleteकी नौटंकियों
के परदे गिरें
पढ़े लिखे जमूरे
अपने दिमाग से
कभी तो खुद सोचें
भरे हुए गोबर
का कुछ जतन करें :)
वाह दमदार ।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 08 जून 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteभाई वाह ... झूमती हुयी मस्त ग़ज़ल में सभी बातें कमाल की हैं .... काश ऐसा हो सके इन बार ...
ReplyDeleteबहुत उम्दा। वाह।
ReplyDeleteवाह...बहुत ख़ूबसूरत और सटीक ग़ज़ल...
ReplyDeleteदेश की काहिल और बुरी तरह जंग खाई व्यवस्था और उसके नीति नियंताओं पर तीखा व्यंग्य करती है आपकी यह काव्य रचना। अच्छी रचना के लिए आपका आभार।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteसटीक ग़ज़ल बहुत उम्दा :)
ReplyDeleteढह ही जानी चाहिए ये बुराइयां। जबरदस्त रचना।
ReplyDeleteबहुत ही ऊंची बात इस रचना के माध्यम से कह दी आपने, बहुत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteरामराम
#हिंदी_ब्लागिंग
Nice information
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