मुर्दा हुए शरीर को , जीना सिखाइये !
मरते हुए ज़मीर को , पीना सिखाइये !
इतने से दर्द में ही , क्यूँ ऑंखें छलक उठी
गुंडों की गली में इन्हें , रहना सिखाइये !
नज़रें उठायीं तख़्त पे दिलदार, तो खुद को ,
सरकार के डंडों को भी,सहना सिखाइये !
मरते हुए ज़मीर को , पीना सिखाइये !
इतने से दर्द में ही , क्यूँ ऑंखें छलक उठी
गुंडों की गली में इन्हें , रहना सिखाइये !
गद्दार कोई हो , मगर हक़दार सज़ा के ,
उस्ताद, मोमिनों को ही चलना सिखाइये !
अनभिज्ञ निरक्षर निरे जाहिल से देश को !
सरकार,शाही खौफ से, डरना सिखाइये !
सरकार,शाही खौफ से, डरना सिखाइये !
नज़रें उठायीं तख़्त पे दिलदार, तो खुद को ,
सरकार के डंडों को भी,सहना सिखाइये !
"थोड़े से दर्द में ही,क्यूँ ऑंखें छलक उठी
ReplyDeleteगुंडों की गली में इन्हें , रहना सिखाइये!"
हमेशा की तरह तीखा। एक लम्बे अर्से के बाद टूटती चुप्पी जैसे।
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 23 जनवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
गज़ब लेखन
ReplyDelete'सरकार के डंडों को भी सहना सिखाइए'
ReplyDeleteलेकिन इस से फ़ायदा क्या होगा? हम डंडों से डरना अगर सीख भी गए तो उन्हें अपने मनोरंजन के लिए हम पर गोली चलाने से कौन रोकेगा?
रचना का शीर्षक पूरी रचना पर छाया हुआ है.बहुत सुन्दर.... बहुत दिनो के बाद आपको लिखते देखकर खुशी हुई।
ReplyDeleteशानदार कटाक्ष
ReplyDeleteवाह